(भोपाल) याद रखें लोहिया की नसीहत, विपक्ष का मतलब विरोधी नहीं

  • 14-Oct-23 12:00 AM

भोपाल,14 अक्टूबर (आरएनएस)। डॉक्टर राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं जिनका केाई परावार नहीं। उनसे जुड़ा एक प्रसंग प्रख्यात समाजवादी विचारक जगदीश जोशी ने बताया था, जो विपक्ष के विरोध की मर्यादा और उसके स्तर के भी उच्च आदर्श को रेखांकित करता है। बात 1957 के आम चुनाव की है। डॉ. लोहिया जी रीवा से सिंगरौली जा रहे थे। सीधी-सिंगरौली के वनवासी बेल्ट में डॉ. लोहिया माने भगवान। लोहिया जी की जीप में जोश्ीा जी के अलावा रीवा-सीधी के उत्साही समाजवादी युवातुर्क श्रीनिवास तिवारी व कई और कार्यकर्ता थे। स्वाभविक है कि बात चुनावी राजनीति की ही चल रही थी। एक उत्साही युवा ने अभद्र भाषा में नेहरु जी आलोचना करना शुरु कर दी। फिर मक्खन लगाते हुए यहां तक कह दिया कि डॉक्टर साहब आपके साथ अन्याय हुआ आपको नेहरु की जगह होना चाहिए। इतना सुनते ही लोहिया जी तमतमा गए। ड्रायवर से कहा गाड़ी रोको। फटकारते हुए नेहरु पर टिप्पणी करने वाले को वहीं उतार दिया। फिर गुससे से बोले ये आज का लड़का नेहरु पर टिप्पणी करेगा...? इतनी जुर्रत। ये जानता क्या है नेहरु के बारे में। नेहरु का विरोध लोहिया ही कर सकता है। नेहरु को नवहीं होना चाहिए जहाँ वो हैं, मुझे वहीं होना चाहिए जहां मैं हूँ। विरोध करने का कोई स्तर कोई मर्यादा होनी चाहिए कि नहीं। जोशीजी ने बताया कि डॉक्टर साहब के ऐसे तेवर से हम सभी थरथराने लगे। किसी की ये हिम्मत नहीं हुई कि जीप से उतारे गए साथी के बारे में उनसे कुछ कहते कि इस जंगल में कहां जाएगा बेचारा। आठ दस किलोमीटर आगे आने के बाद लोहिया जी जब ठंडे पड़े तो उन्हीं ने उसके बारे में पूछा-फिर जीप लौटाई, उसे बैठाया, तब आगे बढ़े। जानते हैं आज क्या हाल है। कोई सड़कछाप या राजनीति का नया मुल्ला प्रधानमंत्री या उनके समकक्षी प्रतिपक्ष के नेता को कुछ भी कह देता है। कमाल तो यह है कि अखबार टीवी वाले दिखाते और छापते भी हैं। सोशल मीडिया का क्या कहना वह तो सब्जी मंडी का साँड... है, कहीं मुँह मारे, कहीं गोबर करे। कभी आपने यह नहीं सुना होगा कि पार्टी के नेतृत्व ने कभी अपने ऐसे काय्रकर्ता पर कोर्ठ कार्रवाई की हो। अब तो नया चलन है ऐसे कार्यकर्ताओं की झटपट तरक्की भी हो जाती है। छोटे मझौलों की बात कौन करे, बड़े नेता भी ऐसे प_े पाल के रखते हैं, जिसका काम ही नेताजी के विरोधी की तमाम करना होता है। चैनलों की पैनलिया संस्कृति जब से चल निकली है, हम देखते हैं कि सड़ा से सड़ा आदमी बड़े से बड़े नेता काी इज्जत उतारने में लगा है। न कोई अध्ययन, न संदर्भ, न ज्ञान न भाषा की समझ, इनसे विरोध की मर्यादा से क्या लेना देना। बची रहे या जाए भाड़ में। टीवी में दिख रहे सो पार्टी में धाक जम गई। नेतृत्व के लिए भी बड़े काम के। सत्ता में हैं तो निगम, मंडल की कुर्सी इन्हीं के लिए है। विपक्ष में हुए तो मंत्री, महामंत्री की सूची इन्हीं के नाम से शुरु होगी। विरोध की न कोई मर्यादा बची है न स्तर कौन जिम्मेदार है इस सबके लिए? नेहरु और लोहिया, इंदिरा जी और अटलजी का विरोध मर्यादताओं का उच्च आदर्श था। लोहिया जी तो नेहरु की बाल की खाल निकालने के लिए मशहूर थे। जोशी जी ने ढेर सारे किस्से में एक किस्सा और बताया थ कि अपोजीशन की इंटेसिटी क्या होती है। लोहिया जी एक बार रीवा से इलाहाबाद के रास्ते दिली जा रहे थे। अप्रैल का महीना था। खेतों में फसलें कट रही थीं। सड़क के किनारे एक दृश्य देखकर लोहिया जी ने गाड़ी रुकवाई। देख एक महिला अपने धोती के पल्लू में रखे गोबर को ऐ गड्ढे में धो रही थी। लोहिया जी ने पूछा ये क्या है। उसने बताया-साहब ये गोबरी है, इसमें अन्न छान रही हूं, इसे सुखाकर फिर चक्की में पीसूंगी तब न इसकी रोटी बनेगी। लोहिया की आँखों में आँसू आ गए। उससे गोबरी का मु_ी भर अन्न लिया और अपनी रुमाल में बाँधा। सुबह दिल्ली पहुँचते ही सीधे संसद गए। सदन में वो गोबरी का मु_ी भर अन्न लेकर नेहरु को दिखाते हुए कहा-नेहरु तुम्हारे देश की जनता ये खाती है, लो खाकर देखो तुम भी। फिर गोबरी की पूरी कहानी संसद को बताते हुए चार आने बनाम पंद्रह आने की वो ऐतिहासिक बहस की जिनकी मिसाल आज भी दी जाती है। सदन में प्रधानमंत्री का इससे भीषण विरोध और क्या हो सकता है पर विरोध का स्तर और उसकी मर्यादा दृष्टव्य है। आज प्रतिपक्ष विरोधीपक्ष हो गया है। दो भागों ेमं बंट गया है हमारा लोकतंत्र। एक ओर सत्ता और उसके सरहंग समर्थक, दूसरी ओर विरोधीपक्ष और उसके हुल्लड़बाज। अब सदन व विधानसभाओं में दोनों पक्षों की चिन्हित हुल्लड़ ब्रिगेडें हुआ करती हैं। संसदीय रिपोटिंग में जब इनका जिक्र आता है तो ये इतने में ही गौरवान्वित हो लेते हैं। अटलजी के प्रधानमंत्रित्वकाल में आर्गनाइज हुल्लड़ ब्रिगेड बनी इसकी परंपरा को मनमोहन काल में भी जारी रही, अब भी चलती चली आ रही है। संसद व विधानसभाओं में हम देखते हैं कि अब सिर्फ विरोध के लिये विरोध होता है। विपक्ष में तो जरूरी से जरूरी मसला ही विरोध करेंगे। तर्क, तथ्य, संदर्भ गए तेल लेने। जबकि विरोध करने का सबसे ज्यादा फायदा सत्ता पक्ष को ही होता है क्यों कि आमजन में विरोध की विश्वसनीयता धीरे धीरे खत्म हो जाती है, इसी के समानांतर सत्ता की स्वेच्छाचारिता बढ़ जाती है। लोहिया मानते थे कि असहमति और विरोध लोकतंत्र के स्वास्थ्य का सबसे बड़ा टॉनिक है लेकिन यह हवा-हवाई नहीं तथ्यपूर्ण, तर्कसम्मत भाषाई मर्यादा में होना चाहिए। अटलजी ने सन 1971 में बांग्ला विजय पर संसद में इंदिराजी का दुर्गा कहकर अभिनंदन किया था। बांग्लादेश अभियान में आरएसएस भी कांग्रेस के स्टैंड के साथ था।




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