(रतलाम)आसक्ति पाप है और अनासक्ति धर्म-आचार्य प्रवर श्री विजयराजजी मसा

  • 07-Nov-23 12:00 AM

रतलाम, आरएनएस, 07 नवंबर। जीवन के सुख की प्राप्ति के लिए अनासक्ति की मनस्थिति होना चाहिए। आसक्ति पाप है और अनासक्ति धर्म है। बादलों की छाया, बुढापे की काया और अनीति की माया का कभी भरोसा मत करना, ये कभी भी धोखा देकर जा सकते है। भरोसा सिर्फ प्रभु की वाणी पर करो, क्योंकि वही अनासक्ति की मन स्थिति का निर्माण कर सकती है।यह बात परम पूज्य, प्रज्ञा निधि, युगपुरूष, आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने प्रवचन में कही। छोटू भाई की बगीची में उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा जीवन के सुख सिर्फ अनासक्ति में निहित है। आसक्ति तो दुखों की जड है। आसक्ति में जीने वालों के सामने अभाव ही अभाव बना रहता है। अल्पता और अभाव बहुत बडे दुख है, ये उन्हें ही मिलते है, जो आसक्ति की मन स्थिति में जीते है। अनासक्ति में जीने वालों के भीतर हमेशा सदभाव ही रहता है और वे अपने जीवन का लक्ष्य भी प्राप्त कर लेते है।आचार्यश्री ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति के पास ये विकल्प होता है कि उसे आसक्ति की मन स्थिति का निर्माण करना है अथवा अनासक्ति का। अनासक्ति के लिए संसार छोडकर संयम नहीं ले सकते, तो संसार में रहकर भी अनासक्ति में रह सकते है। ये संभव नहीं हो, तो आसक्ति की परिधि बांध सकते है। आसक्ति की परिधि में जो नहीं रहते, उन्हें जीवन भर शिकायतें और मरने के बाद पश्चाताप ही रहता है।आचार्यश्री ने कहा कि अनासक्ति रखने वाला ही सच्चे अर्थों में धर्मात्मा और पुण्यात्मा बनता है। ऐसा व्यक्ति जीते-जी स्वर्ग का अनुभव करता है। विडंबना है कि आजकल सब तरफ आसक्ति का बोलबाला है। इससे बचने के लिए हर व्यक्ति को खुद के अंदर अनासक्ति का दीया जलाना पडेगा। दूसरों की मोमबत्ती के सहारे ये जीवन चलने वाला नहीं है। चातुर्मास का अवसर मनस्थिति में परिवर्तन के लिए मिलता है। इसमें आसक्ति छोडकर अनासक्ति की और अग्रसर होना ही जीवन को सार्थकता प्रदान करेगा। आरंभ में उपाध्याय प्रवर श्री जितेशमुनिजी मसा ने संबोधित किया। प्रवचन के दौरान बडी संख्या में श्रावक-श्राविकागण उपस्थित रहे।




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