आपातकाल में संघ की भूमिका महत्त्वपूर्ण अध्याय

  • 27-Jun-24 12:00 AM

डॉ. प्रशांत बड़थ्वालभारतीय राजनीति में जब कभी भी लोकतांत्रिक इतिहास का कलंकित अध्याय खोला जाएगा, तो वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा सांविधानिक प्रावधानों की निर्मम हत्या कर देश में आपातकाल की घोषणा 25 जून की मध्यरात्रि ही रहेगा।आपातकाल महज नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित करना एवं समाज में पुन: निरंकुश कानून को स्थापित करना भर नहीं था, बल्कि इलाहबाद उच्च न्यायालय में गांधी की एकतरफा हार का प्रमुख कारण रहा। तत्पश्चात अपने हजारों राजनीतिक विरोधियों को गिरफ्तार किया गया, प्रेस की स्वतंत्रता को कम कर दिया गया और सरकार के लिए खतरा माने जाने वाले संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उन संगठनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) एक प्रभावशाली संगठन था।इसके बाद जो हुआ, वह आरएसएस के इतिहास के सबसे उल्लेखनीय अध्यायों में से एक निष्क्रिय प्रतिरोध आंदोलनÓ था, जिसने प्रतिबंध की पुरज़ोर अवहेलना की और अपने संगठनात्मक ढाँचे को काफी हद तक अक्षुण्ण रखा और आपातकाल का विरोध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रतिरोध के शीर्ष पर संघ के तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस (बालासाहेब देवरस) थे। उन्होंने अपनी गिरफ्तारी से पूर्व कार्यकताओं और स्वयंसेवकों को संबोधित किया और कहा कि, इस असाधारण स्थिति में, स्वयं सेवक अपना संतुलन खोने के लिए बाध्य नहीं हैं। 26 जून, 1975 की सुबह जैसे ही आपातकाल की घोषणा की खबर पूरे भारत में फैली, देश में अविश्वास और भय की भावना फैल गई।आपातकाल का लागू होना राजनीतिक उथल-पुथल, आर्थिक चुनौतियों और इंदिरा गांधी की बढ़ती सत्तावादी प्रवृत्तियों के दौर की परिणति के रूप में आया। संघ, जो लंबे समय से गांधी की चुनिंदा नीतियों की आलोचना करता रहा, आपातकाल की घोषणा के कुछ ही घंटों के भीतर उनके प्रमुख नेताओं को घेर लिया गया और गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि यह संघ की दूरदर्शिता ही थी कि शीर्ष नेतृत्व ने इस तरह के कदम का पूर्वानुमान लगा लिया था।आपातकाल से कुछ समय पूर्व जैसे-जैसे राजनीतिक तनाव बढ़ा, बालासाहब देवरस और संघ के अन्य वरिष्ठ नेतृत्व ने आकस्मिक योजनाएं बनानी शुरू कर दी थीं। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि संगठन की यह तैयारी उस तूफान का अपनी क्षमतापूर्वक सामना करने में महत्त्वपूर्ण साबित होगी जो इसे घेरने वाला था और जनकल्याण हेतु कार्य में विघ्न उत्पन करने वाला था। संघ के वरिष्ठ प्रचारक और लोक संघर्ष समिति के संयोजक, नानाजी देशमुख (जिन्होंने 1977 में जनता पार्टी के बैनर तले विपक्ष को एक साथ लाने में अहम भूमिका निभाई) और के. एस. सुदर्शन ने भी पत्रों के माध्यम से विभिन संगठनों के साथ भी संवाद किया। संघ पर सरकार की कार्रवाई त्वरित और कठोर थी। शीर्ष नेतृत्व से लेकर स्थानीय स्तर के हजारों कार्यकर्ताओं एवं स्वयंसेवकों तक को गिरफ्तार किया गया और जेल में डाल दिया गया।संगठन के कार्यालयों पर छापे मारे गए और दस्तावेज के साथ संपत्ति भी जब्त कर ली गई। 4 जुलाई, 1975 को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माने जाने वाले कई अन्य संगठनों के साथ संघ को आधिकारिक रूप से मीसा कानूनÓ के अंतर्गत प्रतिबंधित कर दिया गया था। इस भारी-भरकम दृष्टिकोण के बावजूद संघ नई वास्तविकता के लिए पुन: अनुकूल होने में कामयाब रहा। संघ ने अपने स्थानीय शाखाओं की अनूठी संरचना से राष्ट्र में व्याप्त भय के वातावरण में भी विकेंद्रीकृत नेतृत्व के साथ जनमानस तक केंद्र सरकार की निरंकुश नीतियों का दमन और समाज में अन्य वर्ग के लोगों की सहायता से कई प्रचार-प्रसार के कार्य सफलतापूर्वक किया, जिसमें स्वयंसेवकों के अलावा सामान्य जनता का भी सरकार के प्रति रोष संघ के लिए अतुलनीय योगदान के रूप में सिद्ध हुआ।वर्ष 1975 के अंत में जेल से बाहर आकर आपने संदेश में देवरस ने लिखा-वर्तमान संकट वैचारिक मतभेदों से परे है। लोकतंत्र और कानून के शासन में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को हमारे मौलिक अधिकारों पर इस हमले का विरोध करने के लिए एक साथ आना चाहिए। इस निर्देश से संघ और अन्य विपक्षी समूहों के बीच सहयोग बढ़ा, जिसमें समाजवादी और मध्यमार्गी शामिल थे। देवरस ने अहिंसक प्रतिरोध के महत्व पर भी जोर दिया।उन्होंने स्वयंसेवकों को निर्देश दिया कि वे अधिकारियों के साथ टकराव से बचें जो हिंसा का कारण बन सकते हैं, इसके बजाय सविनय अवज्ञा और भूमिगत संगठनात्मक कार्य पर ध्यान केंद्रित करें। अपनी औपचारिक संरचनाओं के बाधित होने के कारण आरएसएस ने संगठन को सुचारू रूप से सक्रिय रखने के लिए भूमिगत संचालन के सबसे उल्लेखनीय पहलुओं में से एक इसकी दैनिक शाखाओं की निरंतरता को रखा। आपातकाल के दौरान संघ ने भारत के सबसे काले समय में लोकतांत्रिक परिवर्तन की संभावना को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई। चाहे कोई संघ की विचारधारा से सहमत हो या नहीं, आपातकाल के दौरान इसकी भूमिका को भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण अध्याय के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।




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