आम चुनाव-2024 : सरोकारी माहौल जरूरी
- 22-Mar-24 12:00 AM
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प्रो. आनंद कुमारभारतीय जनतंत्र में राजनीतिक दलों, मीडिया और मतदाताओं के लिए आम चुनाव एक महत्वपूर्ण संदर्भ होता है। पिछले दिनों चुनाव के बारे में राजनीतिक दलों और नागरिक समाज का दृष्टिकोण अलग-अलग हो गया है।एक तरफ दल चुनाव को सत्ता की सीढ़ी मानकर इसे जीतने के लिए हर तरह के प्रयास कर रहे हैं, दूसरी तरफ नागरिक समाज में चुनाव में बढ़ रही समस्याओं को लेकर खास तरह का अविश्वास भाव बन रहा है। नागरिक समाज का आग्रह है कि चुनाव व्यवस्था में सुधार किए जाएं और सुधारों की एक लंबी सूची बनती जा रही है। सबसे बड़ा दोष धन शक्ति का बढ़ता प्रभाव था। आधी शताब्दी पहले लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने इसे संबोधित किया था। आज पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि मोरारजी देसाई की सरकार द्वारा जयप्रकाश नारायण के सुझावों की अनदेखी से एक बड़ी बीमारी की शुरुआत हो गई।इस समय हर तरफ आम सहमति है कि हमारी चुनाव व्यवस्था के तीन बहुत बड़े दोष हैं। पहला, लोक शक्ति को धन शक्ति ने पराजित कर दिया है, दूसरा, मतदाताओं को सेवा और संगठन के जरिए प्रभावित करने की बजाय सभी दल मीडिया के माध्यम से प्रभावित करने का सहारा लेने लगे हैं, और तीसरा, कई जगहों पर चुनावों के मौके पर असामाजिक तत्वों की भूमिका उल्लेखनीय हो जाती है। कुछ दल तो असामाजिक तत्वों को अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाने में बड़ी शान समझने लगे हैं। सबका विवरण एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स जैसे निर्दलीय नागरिक मंचों द्वारा बराबर सामने आने से अजीब किस्म का असमंजस पैदा हो गया, वोट देने जाएं या न जाएं!क्या हमारा वोट एक उचित प्रतिनिधि का चयन करने में समाज की मदद करेगा! क्याचुने गए लोग जनप्रतिनिधि हैं, या धन शक्ति के प्रतीक हैं! ऐसी और भी कई बातें हर चुनाव के बाद सामने आने लगी हैं। इसीलिए इस बार के आम चुनाव में नागरिक समाज की भूमिका के बारे में सावधानी की जरूरत है। हमें अच्छी तरह से याद है कि इमरजेंसी के दौर में चुनाव को एक साल के लिए आगे बढ़ा दिया गया था तो सारा देश खुली जेल जैसा होने लगा था। किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं थी। गैर-संवैधानिक शक्ति केंद्रों ने सिर उठा लिए थे। प्रधानमंत्री सचिवालय से लेकर थाने के स्तर तक हर तरफ गैर-संवैधानिक ताकतों का बोलबाला हो गया। उस समय यानी 1976 में पूरे देश से एक ही मांग आ रही थी कि चुनाव समय पर और ठीक से कराए जाएं। चुनाव का महत्त्व निर्विवाद है। तमाम दोषों के बावजूद अभी भारतीय जनतंत्र के पास सत्ता के संचालन के लिए, देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए चुनाव के अलावा कोई विकल्प नहीं है। प्रशासन के संचालन के लिए हमने उम्मीदवारों का मूल्यांकन करने वाली परीक्षाओं का इंतजाम किया है। उसमें लाखों विद्यार्थी बनते हैं, और कुछ सौ चुने जाते हैं। जिनको पुलिस, प्रशासन, विदेश नीति आदि की जिम्मेदारी दी जाती है। विधानमंडल को चलाने के लिए, संसद का संचालन करने के लिए हमारे जनप्रतिनिधि कैसे चुने जाएं, इस प्रक्रिया को चुनाव के माध्यम से पूरा करना लगातार कठिन होता जा रहा है। लगता है कि पूरी गंगा मैली हो गई है।इसलिए लोकतंत्र को बचाए रखने के अब दो ही रास्ते बचे हैं-या तो हम चुनाव के दिन अपने-अपने घरों में बैठ जाएं। मानकर चलें कि चुनाव से कुछ नहीं होगा। दूसरा उपाय है कि चुनाव के हर मोड़ पर यानी चुनाव की घोषणा, घोषणा-पत्रों की तैयारी, प्रतिनिधियों का चयन और प्रचार का तंत्र; हर स्तर पर सक्रिय निगरानी करें, सक्रिय भागीदारी करें और सक्रिय योगदान करें। बहुत पहले राहुल सांकृत्यायन ने कहा, भागो नहीं, दुनिया को बदलो।Ó आज लोकतंत्र जिस नाजुक मोड़ पर खड़ा है, उसमें भागने से तो सुधार नहीं होना। बदलने से शायद सुधार हो। वैसे भी, लोकतंत्र की लोकप्रियता सारी दुनिया में घट रही है। दुनिया में जिन देशों का नाम लोकतंत्र के निर्माताओं के रूप में लिया जाता है, वहां चुनाव के जरिए अलोकतांत्रिक जमातें और ताकतें सत्ता में आ रही हैं। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप से रूस में ब्लादीमिर पुतिन तक के नाम लिए जा सकते हैं। इसलिए 2024 का लोक सभा चुनाव अगले पांच साल की दिशा तय करेगा।नागरिक समाज का क्या अर्थ है! असल में ये वे लोग हैं, जो सरोकारी नागरिक हैं। संविधान प्रदत्त नागरिक कर्त्तव्य सूची को सम्मान देते हैं और चुनाव के अलग समाज की समस्याओं को सुलझाने में सार्थक और रचनात्मक योगदान करते हैं। समाज के वास्ताविक मुद्दे अब दलों की दिलचस्पी के मुद्दे नहीं रह गए। इसका मतलब यह नहीं है कि समाज को इन मुद्दों पर हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। उसी जरूरत को पूरा करने वाले संगठन अपने छोटे समूहों के माध्यम से इन सवालों को सुलझाने में लगे हैं। यह भारतीय लोकतंत्र का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। आम समझ है कि लोकतंत्र चार खंभों पर खड़ी इमारत है और चार खंभे हैं-विधानमंडल, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया। लेकिन असल में इस इमारत के तीन खंभे और हैं, जो भारत के लोकतंत्र को बचाए रखने और संवर्धित करने में योगदान करते हैं। उन तीन खंभों में एक है राजनीतिक दल, दूसरा है विविद्यालय आदि शिक्षा एवं ज्ञान केंद्र। और तीसरा है, नागरिक समाज। यह सातवां खंभा आज बहुत मजबूत है।इसमें यह भाव नहीं है सत्ता हमारे पास आए, बल्कि यह प्रयास है कि सत्ता योग्य व्यक्तियों के हाथों में जाए। वैसे तो कोई भी सत्ता किसी का दखल पसंद नहीं करती, लेकिन मौजूदा सत्ता संचालक नागरिकों की पहलों को एकदम नापसंद करते हैं। इसलिए काशी से लेकर कलकत्ता तक नागरिक समाज पर ग्रहण लगा हुआ है। आशा करनी चाहिए कि तमाम बाधाओं के बावजूद सक्रिय और सरोकारी नागरिक परस्पर सहयोग का वातावरण बनाकर चुनाव को शुद्ध बनाने, प्रदूषणमुक्त बनाने और निर्मल बनाने के लिए घोषणा-पत्र निर्माण, उम्मीदवारों के चयन, प्रचार की रणनीति और मतदान का पक्ष-सबकी निगरानी करेंगे, सबमें हिस्सेदारी करेंगे और सबमें योगदान करेंगे। इस समय चारों तरफ खास तरह के सरोकार का माहौल दिखाई पड़ रहा है। इसलिए 2024 का लोक सभा चुनाव एक मायने में मील का पत्थर साबित होगा, ऐसी आशा की जा रही है।
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