एक अनूठी पार्टी: भाजपा ने भारतीय राजनीति में नेतृत्व के पहलू को कैसे पुनर्परिभाषित किया
- 31-Oct-25 12:00 AM
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हरदीप सिंह पुरीआजाद भारत के इतिहास में राजनीति ज्यादातर समय हक की एक ऐसी भावना से प्रभावित रही, जिसने विरासत और वैधता के बीच घालमेल किया। एक परिवार और एक पार्टी को यह लगने लगा कि वे शासन करने के लिए ही पैदा हुए हैं। गुजरते वक्त के साथ, इस मानसिकता ने संस्थाओं को खोखला कर दिया और पीढिय़ों को राजनीतिक विशेषाधिकार को जन्मसिद्ध अधिकार मानने के लिए प्रेरित किया। इस धारणा को अब योग्यता, जवाबदेही और प्रदर्शन पर आधारित नई राजनीतिक नैतिकता द्वारा चुनौती दी जा रही है। हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित वन नेशन, फ्यू फैमिलीज शीर्षक लेख में भारत में वंशवादी राजनीति के जारी रहने को लेकर एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है। यह लेख जिस मुद्दे को उजागर करता है वह वास्तविक तो है, लेकिन उसकी व्याख्या अधूरी है। वंशवाद भाजपा समेत सभी दलों में मौजूद है। फिर भी, भाजपा की एक खासियत यह है कि वहां पारिवारिक पृष्ठभूमि अपने-आप नेतृत्व में तब्दील नहीं होती। यह एक ऐसी पार्टी है जहां अवसर अर्जित करना जरूरी होता है और जहां किसी व्यक्ति का उत्थान उसके काम, प्रतिबद्धता एवं जनता के विश्वास पर निर्भर करता है, न कि वंश पर। भाजपा में, एक पारिवारिक पहचान एक दरवाजा तो खोल सकता है, लेकिन उस दरवाजे को हमेशा के लिए खुला नहीं रख सकता। यह एक मौलिक अंतर है। राजनीतिक रिश्तेदारी अपने आप में कोई समस्या नहीं है। लेकिन वंशानुगत नियंत्रण एक समस्या है। जब नेतृत्व एक ही परिवार की मिल्कियत बन जाए, जब आंतरिक बहस की जगह रक्त संबंधों के प्रति निष्ठा ले ले, तो लोकतंत्र मुरझा जाता है। राजनीतिक संस्कृतियों के बीच का यह अंतर काफी गहरा है। वर्ष 2000 से, भारतीय जनता पार्टी के आठ राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए हैं- बंगारू लक्ष्मण, जना कृष्णमूर्ति, वेंकैया नायडू, लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, अमित शाह और जे.पी. नड्डा। ये सभी अलग-अलग क्षेत्रों एवं पृष्ठभूमि से आए हैं और इनमें से प्रत्येक संगठनात्मक कार्य के अनुशासन के रास्ते आगे बढ़े हैं। इसी अवधि के दौरान, कांग्रेस के मात्र तीन अध्यक्ष ही हुए हैं, जिनमें से दो गांधी परिवार से हैं। सोनिया गांधी उन्नीस वर्षों तक इस पद पर रहीं और आज भी पार्टी में इस परिवार का निर्णय ही अंतिम होता है।इंडियन एक्सप्रेस का विश्लेषण, इन अंतरों को कम करके मौलिक रूप से भिन्न राजनीतिक हकीकतों को एक जैसा बना देता है। आकस्मिक रिश्तेदारी और संस्थागत कब्जे के बीच अंतर किए बिना ही, यह विश्लेषण राजनीति में रिश्तेदारों वाले विधायकों की संख्या की गिनती करता है। भाजपा के 2,078 विधायकों में से 84 राजनीतिक परिवारों से आते हैं, जो लगभग चार प्रतिशत है। कांग्रेस के 857 विधायक हैं, जिनमें से 73 वंशवादी हैं, जो लगभग नौ प्रतिशत है। आनुपातिक रूप से मापने पर, कांग्रेस का वंशवादी घनत्व दोगुना है। फिर भी, इस लेख में संख्याओं की गिनती का हवाला देकर एक झूठी समरूपता गढ़ी गई है।कांग्रेस से परे भी, सत्ता का एक परिवार विशेष के हाथों में केन्द्रित होना ही कई क्षेत्रीय दलों की पहचान है। समाजवादी पार्टी की बागडोर मुलायम सिंह यादव से निकलकर अखिलेश यादव के पास चली गई। राष्ट्रीय जनता दल यादव परिवार के ही अधीन है। द्रमुक की लगाम एम. करुणानिधि से एम. के. स्टालिन और अब उदयनिधि स्टालिन के पास चली गई। तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक के इर्द-गिर्द ही घूमती है। झारखंड मुक्ति मोर्चा पर सोरेन परिवार का नियंत्रण बना हुआ है। ये बहुलवादी नेतृत्व के नहीं, बल्कि विरासत में मिले नेतृत्व के उदाहरण हैं। परिवार को हटा दिया जाये, तो पार्टी ढह ही जाये।इस बात को समझने के लिए कि भाजपा अलग तरह से क्यों काम करती है, हमें इसके संस्थागत ढांचे पर गौर करना होगा। भाजपा का संगठन स्तरीकृत, सामूहिक और लक्ष्य-उन्मुख है। वहां कार्यकर्ताओं को बहुत जल्दी ही पहचान लिया जाता है और उन्हें व्यवस्थित कार्यक्रमों के जरिए प्रशिक्षित किया जाता है और बूथ, मंडल, जिला और राज्य स्तर पर जिम्मेदारी देकर परखा जाता है। प्रत्येक चरण में किया गया प्रदर्शन अगले अवसर का निर्धारण करता है। चुनाव जीते जाने वाली प्रतियोगिताएं होती हैं, लेकिन ये संगठन की लामबंदी, लोगों को समझाने और परिणाम देने की क्षमता का भी लेखा-जोखा होती हैं। यह संरचना एक ऐसी संस्कृति का निर्माण करती है जिसमें सेवा, अनुशासन और परिणाम ही आगे बढऩे के पैमाने हैं।नेतृत्व की पाइपलाइन की भी यही कहानी है। वर्ष 2014 से पार्टी ने पहली पीढ़ी के वैसे नेताओं को आगे बढ़ाया है जो भारत की सामाजिक गतिशीलता को दर्शाते हैं। छत्तीसगढ़ के पहले आदिवासी मुख्यमंत्री विष्णु देव साईं ने निरंतर जमीनी स्तर पर काम करके अपना करियर बनाया। ओडिशा में मोहन माझी ने मुख्यमंत्री पद का दायित्व मिलने से पहले संगठन और विधानमंडल में वर्षों बिताए। हरियाणा में नायब सिंह सैनी एक साधारण पृष्ठभूमि से आते हैं और राजस्थान में भजन लाल शर्मा वर्षों तक निर्वाचन क्षेत्र में काम करके और पार्टी की जिम्मेदारी निभाकर आगे बढ़े। इनमें से किसी को भी राजनीतिक पद विरासत में नहीं मिला। इनमें से प्रत्येक इस बात के उत्कृष्ट उदाहरण हैं कि एक योग्यता-आधारित पार्टी में नेतृत्व कैसे अर्जित किया जा सकता है।भाजपा का संसदीय और सरकार में रहने का अनुभव भी पहुंच और प्रभुत्व के बीच के अंतर को दर्शाता है। कई युवा नेताओं को दृश्यता और जिम्मेदारी दी जाती है, लेकिन उनका मूल्यांकन उनके काम के आधार पर किया जाता है। मंत्रियों का मूल्यांकन परिणामों, सुधारों और जन संवाद के आधार पर किया जाता है। पार्टी के पद समयबद्ध और प्रदर्शन से जुड़े होते हैं। इससे त्रुटि या महत्वाकांक्षा समाप्त नहीं होती और न ही कोई भी संस्था ऐसा कर सकती है। लेकिन यह कवायद ऐसे प्रोत्साहन पैदा करती है, जो वंशावली की तुलना में योग्यता को प्राथमिकता देते हैं।इसके उलट, वंशानुगत पार्टियां नए प्रयोगों को आजमाने में जूझती हैं क्योंकि वहां उत्तराधिकार पूर्वनिर्धारित होता है। वहां प्रतिभाएं अपने उत्तराधिकारी की रक्षा करने की जरूरत के बोझ से घिरी रहती हैं। पारिवारिक परंपरा के विरोधाभास के डर से आंतरिक बहस मंद पड़ जाती है। संगठनात्मक नेटवर्क प्रशासकों और विधायकों के बजाय दरबारियों और दलालों के इर्द-गिर्द घूमने लगते हैं। इसका नतीजा न केवल राजनीतिक गतिरोध में होता है, बल्कि जनता के विश्वास का भी क्षरण होता है। मतदाता अंतत: अर्जित नेतृत्व और हस्तांतरित नेतृत्व के बीच के अंतर को पहचान लेते हैं। इतिहास को स्वीकार करना जरूरी होता है। कांग्रेस ने राष्ट्रीय कल्पना में राजनीतिक विरासत को आम बात बना दिया। वाईएसआर कांग्रेस और बीआरएस से लेकर तृणमूल तक, कई क्षेत्रीय वंशवादी संगठन कांग्रेस की ही शाखाएं हैं और उन्होंने उसके वंशानुगत ढांचे की नकल की है। दशकों से इस संस्कृति ने राजनीतिक दलों को ऐसे पारिवारिक उद्यमों में बदल दिया है, जहां विचारधारा की जगह निष्ठा ने ले ली और नेतृत्व के विकास की जगह उत्तराधिकार के नियोजन ने ले ली। यह मॉडल कुछ समय तक चुनावी सफलता तो दिला सकता है, लेकिन यह शायद ही कभी टिकाऊ संस्थाओं या सक्षम नेताओं की एक व्यापक श्रृंखला का निर्माण कर पाता है।आलोचक कभी-कभी यह पूछते हैं कि क्या भाजपा पूरी तरह से वंशवादी हस्तियों से मुक्त है। इसका ईमानदार जवाब यह है कि ऐसा नहीं है और न ही कोई भी बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी ऐसी हो सकती है। लेकिन प्रासंगिक सवाल कुछ दूसरा है। क्या ऐसे व्यक्ति केवल अपने वंश की बदौलत ही पदों पर आसीन होते हैं या उन्होंने फिर निरंतर कार्य करके संगठन और मतदाताओं का विश्वास अर्जित किया है। भाजपा का रिकॉर्ड दर्शाता है कि पारिवारिक पृष्ठभूमि एक जीवनी संबंधी तथ्य हो सकती है, लेकिन यह योग्यता का पर्याप्त प्रमाण नहीं है। नेतृत्व का रास्ता सभी के लिए एक जैसा ही है - कार्यकर्ता से नेता, कार्यकर्ता से प्रतिनिधि, प्रतिनिधि से मंत्री और हर कदम प्रदर्शन के जरिए ही अर्जित किया जाता है।यह अंतर अपने सामाजिक और भौगोलिक आधार का विस्तार करने की भाजपा की क्षमता को भी दर्शाता है। एक योग्यता-आधारित पार्टी नए समुदायों और क्षेत्रों का समावेश कर सकती है क्योंकि वह भागीदारी के ऐसे रास्ते प्रदान करती है, जो किसी परिवार से निकटता पर निर्भर नहीं होते। वह स्थानीय प्रतिभाओं की पहचान कर सकती है, उन्हें जिम्मेदारी दे सकती है और उनके परिणामों को पुरस्कृत कर सकती है। इस तरह ही एक पार्टी स्थानीय वास्तविकताओं में निहित रहते हुए राष्ट्रीय चरित्र हासिल करती है। इसी तरह ही एक पार्टी ऐसे नेताओं के जरिए विचारधारा को शासन में परिवर्तित करती है, जिन्हें केवल विरासत में पाने के बजाय कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया गया होता है।मतदाता इस अंतर को पहचान चुके हैं। मतदाता नाम से प्रभावित नहीं होते। वे नेताओं का मूल्यांकन उनके वंश से नहीं, बल्कि उनके कार्यों से करते हैं। वे जनसेवा से अर्जित वैधता और वंश-परंपरा से प्राप्त अधिकार के बीच का अंतर समझते हैं। इसीलिए वंशवादी राजनीति से संबंधित बहस को केवल आंकड़ों के खेल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। गंभीर मुद्दा नेतृत्व की संस्कृति का है। क्या कोई पार्टी सेवा और योग्यता को पुरस्कृत करती है या फिर किसी परिवार से जुड़ाव को। इस कसौटी पर भाजपा की खूबी बिल्कुल साफ नजर आती है। इंडियन एक्सप्रेस के लेख में यह पूछा गया कि भारत की कौन सी पार्टियां परिवारों द्वारा संचालित हैं। लेकिन इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उनमें से कौन सी पार्टी परिवार द्वारा संचालित नहीं हैं। भाजपा उन चंद पार्टियों में से एक है जहां नेतृत्व विरासत में नहीं मिलता, केवल अर्जित किया जाता है। पार्टी में विभिन्न पृष्ठभूमि के नेता आते रहेंगे, जिनमें वे भी शामिल होंगे जिनके रिश्तेदार सार्वजनिक जीवन में हैं, लेकिन उन्नति की शर्तें सभी के लिए एक जैसी ही होंगी। कड़ी मेहनत कीजिए, विश्वास अर्जित कीजिए, परिणाम दीजिए और लोगों को आश्वस्त कीजिए। लोकतंत्र में इसके अलावा और कोई स्थायी रास्ता नहीं है।भारत का लोकतंत्र एक मौन बदलाव के दौर से गुजर रहा है। नागरिक वंशावली के बजाय योग्यता से शासित होने के अपने अधिकार पर जोर दे रहे हैं। जैसे-जैसे नेतृत्व अधिक जवाबदेह होता जा रहा है, संस्थाओं में आत्मविश्वास लौट रहा है। राजनीति विरासत से कम और सेवाभाव से अधिक प्रभावित दिखने लगी है। यह यात्रा अभी पूरी नहीं हुई है और कभी होगी भी नहीं। हर पीढ़ी को इसे नवीनीकृत करते रहना होगा। लेकिन दिशा बिल्कुल स्पष्ट है। योग्यता मायने रखती है। प्रदर्शन मायने रखता है। जनता सबसे अधिक मायने रखती है।इस मायने में, भाजपा एक अनूठी पार्टी है। इसलिए नहीं कि वह पूर्णता का दावा करती है, बल्कि इसलिए कि उसने एक ऐसी संस्कृति विकसित की है जो नेतृत्व अर्जित करने पर जोर देती है। भारत के सार्वजनिक जीवन में यही वह खूबी है जिसे बनाए रखना जरूरी है, क्योंकि यह सत्ता को जवाबदेही से और महत्वाकांक्षा को सेवा से जोड़ती है।(लेखक केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री हैं)
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