कांग्रेस संक्रमण के दौर से गुजर रही
- 14-Apr-25 12:00 AM
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हरिशंकर व्यासकांग्रेस बिना ठोस विचारों के है। संक्रमण के दौर से गुजर रही है। राहुल गांधी नए प्रयोग कर रहे हैं। कर्नाटक के दलित नेता मल्लिकार्जुन खडग़े को अध्यक्ष बनाने और जाति गणना करा कर आरक्षण बढ़ाने का गुरुमंत्र मिलने के बाद से राहुल गांधी पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक के नए चैंपियन के तौर पर उभरे हैं। वे पिछले करीब दो साल से जाति गणना कराने और आरक्षण बढ़ाने की रट लगाए हुए हैं।कांग्रेस के नेता दो दिन के अधिवेशन के लिए गुजरात में इक_ा हुए तो मंथन का एक बड़ा विषय यह था। लेकिन यह इकलौता मुद्दा नहीं है, जिस पर कांग्रेस संक्रमण के दौर में है या किसी वजह से संशय में है। अगड़ा बनाम पिछड़ा, दलित, आदिवासी का मुद्दा है तो नए बनाम पुराने का भी है और पूंजीवाद बनाम पूंजीपतियों के विरोध का भी है।जहां तक नए और पुराने का मामला है तो करीब 20 साल के संघर्ष के बाद राहुल गांधी इस पहेली को सुलझाते लग रहे हैं। पार्टी के अंदर पुराने नेताओं का वर्चस्व अब लगभग खत्म हो गया है। एकाध राज्यों में जरूर पुराने क्षत्रप हैं, जो अपना खूंटा थामे हए हैं लेकिन उनका खूंटा उखडऩा भी वक्त की बात है। राहुल गांधी ने सबसे 2009 की सरकार बनने के समय इस संघर्ष को खत्म करने का बड़ा दांव चला था।लेकिन उन्होंने जिन नए नेताओं पर दांव लगाया उनमें से ज्यादातर कांग्रेस पार्टी छोड़ कर भाजपा में चले गए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस के अंदर नए और पुराने का विवाद काफी समय पहले सेटल हो गया होता। देर से ही सही लेकिन अब जाकर कांग्रेस की कमान पूरी तरह से राहुल के हाथ में आ गई है।वे अपने हिसाब से नेताओं को केंद्रीय और प्रदेशों के संगठन में जगह दे रहे हैं। इस बार उनके चुने हुए नेता सहीं है या गलत, मजबूत हैं या कमजोर इसका पता बाद में चलेगा। समय बताएगा कि उनका चयन कितना सही है। उसके गुणदोष में गए बगैर कह सकते हैं कि कांग्रेस में नए और पुराने का विवाद काफी हद तक सुलझ गया है और अहमदाबाद अधिवेशन में यह साफ साफ दिखा।अहमदाबाद के अधिवेशन में राहुल गांधी ने आरक्षण और पिछड़ा, दलित, आदिवासी राजनीति को कांग्रेस के केंद्रीय राजनीति के तौर पर स्थापित किया। उन्होंने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में कहा कि कांग्रेस दलितों, सवर्णों और अल्पसंख्यकों की राजनीति करती रही और इस बीच पिछड़ों ने उसे छोड़ दिया।उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने पिछड़ों का ध्यान नहीं रखा तो पिछड़ों ने भी उसे छोड़ दिया। अब कांग्रेस को पिछड़ी जातियों को साथ लेकर चलना है। राहुल गांधी ने कांग्रेस अधिवेशन में तीन प्रस्ताव मंजूर कराए। कांग्रेस ने एक प्रस्ताव में यह तय किया कि वह आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से बढ़ाएगी। आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान किया जाएगा। कांग्रेस के दूसरे प्रस्ताव में कहा गया कि एससी और एसटी के वर्गीकरण को कांग्रेस मंजूर कराएगी और इन वर्गों में आबादी के अनुपात में आरक्षण बांटेंगी।तीसरा प्रस्ताव निजी विश्वविद्यालयों में आरक्षण की मंजूरी का है। कांग्रेस ने यह प्रस्ताव मंजूर किया तो कई लोग यह कहने वाले आ गए कि कांग्रेस सीधे निजी सेक्टर में आरक्षण क्यों नहीं मांग रही है, जो सिर्फ निजी विश्वविद्यालयों के दाखिले में आरक्षण की मांग कर रही है। आरक्षण को लेकर कांग्रेस के ये तीन प्रस्ताव उसे बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा की समाजवादी पार्टियों के समकक्ष खड़ा करती हैं।कांग्रेस की एक स्थायी दुविधा इस बात को लेकर रही है कि कारोबार, उद्यमी और पूंजीपति को लेकर क्या रुख रखा जाए। नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था से निकाल कर पीवी नरसिंह राव ने देश को उदार अर्थव्यवस्था के रास्ते पर डाला। इससे देश की आर्थिक तस्वीर पूरी तरह से बदली और भारत गरीबी के स्थायी दुष्चक्र से निकल कर वैश्विक व्यवस्था का हिस्सा बना।लेकिन कांग्रेस की दुविधा खत्म नहीं हुई। उसने उद्योग और कारोबार को बढ़ावा देकर अमीरी बढ़ाने, जीडीपी बढ़ाने और गरीबी मिटाने की बजाय अधिकार आधारित नीतियों पर ज्यादा ध्यान दिया। मनमोहन सिंह की 10 साल की सरकार ने आम लोगों को कई अधिकार दिए या अधिकार देने वाले कानून बनाए।इसी में राहुल गांधी दो कदम और आगे बढ़ गए। उन्होंने अडानी और अंबानी का विरोध शुरू किया लेकिन बाद में लगने लगा कि वे कारोबार, उद्योग का ही विरोध कर रहे हैं। इसका विरोधाभास कई बार ऐसे दिखा कि वे अंबानी, अडानी का विरोध करते रहे और राजस्थान से लेकर तेलंगाना तक उनकी सरकार के मुख्यमंत्री अडानी के साथ निवेश की संधिया करते रहे। कांग्रेस को अपनी यह दुविधा भी दूर करनी है।
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