कृत्रिम स्थिरता की चाहत
- 03-Mar-24 12:00 AM
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एक राष्ट्र-एक चुनावÓ योजना की प्रेरक सोच पर गंभीर सवाल हैं। ऐसी ही सोच के तहत दल-बदल विरोधी कानून बनाया गया था। उससे दल-बदल तो नहीं रुका, इससे सांसदों-विधायकों की स्वतंत्र चेतना पर जरूर ताला लग गया।खबरों के मुताबिक एक राष्ट्र-एक चुनावÓ योजना पर 22वां विधि आयोग अपनी सिफारिशें जल्द ही केंद्र सरकार को सौंप देगा। इस बीच आयोग ने अपनी सिफारिशों की प्रस्तुति पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के नेतृत्व में बनी उच्चस्तरीय समिति के सामने की है। इसमें दो संविधान संशोधनों की सिफारिश की गई है।कोविंद समिति नरेंद्र मोदी सरकार की इस इच्छा पर सुझाव देने के लिए बनाई गई है कि लोकसभा, सभी राज्यों की विधानसभाओं, और पूरे देश में नगर-निकायों के चुनाव एक साथ संपन्न कराए जाएं। इस बीच विधि आयोग ने जो सुझाव रखे हैं, उसके मुताबिक सभी विधानसभाओं के चुनाव दो किस्तों में इस तरह संपन्न कराए जाएंगे, जिससे 2029 में लोकसभा के साथ-साथ उन सबका चुनाव कराया जा सके। एक दूसरा संशोधन इस योजना को टिकाऊ बनाने के लिए दिया गया है।इसके तहत अगर सदन की मध्यावधि में कोई सरकार गिर जाती है, तो विकल्प के तौर पर विभिन्न दलों की एकता सरकारÓ बनाई जाएगी। अगर यह संभव नहीं हुआ, तो फिर नया चुनाव बची अवधि भर तक के लिए कराया जाएगा, ताकि एक राष्ट्र- एक चुनाव का क्रम बना रहे। इस योजना में यह समझ अंतर्निहित है कि सभी दलों की नीतियां कमोबेश एक जैसी हैं और सारी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा व्यक्तियों की महत्त्वाकांक्षाओं के बीच है।इसलिए यूनिटी गवर्नमेंट सहजता से बन जाएगी। बहरहाल, उससे कहीं ज्यादा गंभीर सवाल इस योजना की प्रेरक सोच पर है। स्पष्टत: यह सोच कृत्रिम राजनीतिक स्थिरता थोपने की है । ठीक ऐसी ही सोच के तहत 1985 में दल-बदल विरोधी कानून बनाया गया था। इस कानून से दल-बदल तो नहीं रुका, इससे सांसदों-विधायकों के स्वतंत्र राजनीतिक रुख तय करने की प्रवृत्ति पर जरूर ताला लग गया।अब जो सुझाव विधि आयोग ने दिए हैं, उनसे राजनीतिक प्रक्रिया और सरकारों को जवाबदेह बनाए रखने की विधायिका की भूमिका पर वैसा ही अंकुश लग सकता है। आज भारतीय लोकतंत्र की मूलभूत समस्या सत्तासीन लोगों और संस्थाओं की जवाबदेही तय करने की व्यवस्था का कमजोर पड़ते जाना है। अब जो सुझाव दिए गए हैं, उनसे खर्च तो शायद ही बचे, लेकिन जवाबदेही का सिस्टम जरूर और कमजोर हो जाएगा।
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