कैलाश इंदौर के फिऱ बने सिरमौर
- 05-Feb-25 12:00 AM
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नितिनमोहन शर्माइंदौर के मामले में एक बार फिऱ ख़ालिस इन्दौरी कैलाश विजयवर्गीय सिरमौर बनकर उभरे। भाजपा नगर व जिला अध्यक्ष का पद आखिऱकार उन्हीं की झोली में आया। वे तब तक डटे व अड़े रहें, जब तक उनके मनोनुकूल निर्णय नही हुआ। न सत्ता उन्हें नजरअंदाज कर सकी और न संगठन। वो घेराबंदी भी काम नही आई, जो विजयवर्गीय को घेरने के लिये बनाई गई थी। मंत्री सहित जिले के 4 विधायक उनके खि़लाफ़ लामबंद हुए थे। इस लामबंदी को ग्वालियर से लेकर भोपाल तक से बल भी मिल रहा था। कैलाश कैम्प ने अपने खि़लाफ़ इंदौर से ग्वालियर व भोपाल से दिल्ली तक बनी व्यूहरचना से न सिफऱ् पार पाया बल्कि उसे ध्वस्त भी कर दिया। एक बार फिऱ विजयवर्गीय का सरकार व संगठन में दबदबा नजऱ आया। आखऱी तक इंदौर का फैसला नही हो पाया। न कोई हिम्मत दिखा पाया कि विजयवर्गीय को परे रख घोषणा की जाए। पूरे प्रदेश के जिलाध्यक्ष घोषित होने तक भी इंदौर की घोषणा का रुका रहना ही साबित कर गया कि फि़लहाल तो इंदौर के मामले में विजयवर्गीय को नजरअंदाज नही किया जा सकता। जिले व नगर के फैसले में उन्हें एक बार फिर मालवा अंचल का क्षत्रप साबित किया।नगर व जि़ले के कप्तान के मामले में भाजपा में इस बार जो हुआ, वैसा कभी नही हुआ। सब कुछ कांच की तरह साफ होने के बाद भी इंदौर की राह रोक ली गई। रायशुमारी को एक तरफ सरका दिया गया और नए नए समीकरण गढ़े गए ताकि अध्यक्ष कैलाश कैम्प से हटकर हो। इस काम में कांग्रेस की गुट बनाने वाली बीमारी भी पाल ली गई। जिले के 4 विधायक व एक मंत्री महोदय एकजुट भी हुए। इस कथित गुट को प्रदेश से जुड़े एक केंद्रीय मंत्री की मदद भी मुहैया हुई। घर बैठी वयोवृद्ध नेता को भी उकसाकर खड़ा किया गया। उन्होंने भी वीटो लगाया लेकिऩ वे सतर्क भी बनी रहीं। सीएम के सपोर्ट का शोर भी मचाया गया। लेकिऩ उन्ही सीएम साहब ने इंदौर के मामले में आखिर में तटस्थता अख्तियार कर ली औऱ गुटबाजी का दम निकल गया। परिणाम सामने हैं। नगर में रायशुमारी को ही अहमियत मिली और जि़ले में किसी के हित स्थापित नही हो पाए। जबकि नगर पर दबाव बनाकर जि़ले में हुकूमत की बिछात मजबूती से बिछाई गई थी।विफ़ल हुए कैलाश को कमज़ोर करने प्रयास पूरे मामले में विजयवर्गीय को इंदौर में कमजोर साबित करने के प्रयास बहुतेरे हुए। सत्ता से ज्यादा सँगठन ने इसमे रुचि दिखाई लेकिऩ कैलाश केम्प ने सबसे पार पा लिया। शहर में तो उनका तीन इक्का तुवर ब्रांड नाम ही सामने आया। जि़ले में भी उन्होंने मास्टर स्ट्रोक खेल विरोधियों को चौका दिया। पूर्व जिलाध्यक्ष की निरंतरता के लिए वे अड़े रहें। लिहाज़ा विरोधी कैम्प नए नाम के साथ सामने आता रहा लेकिऩ इस कैम्प को भी भरोसा न था कि कैलाश कैम्प अपने पुराने दिवंगत मित्र नंदू भैय्या की खोज पर हाथ रख देगा। विजयवर्गीय की घेराबंदी ही इसलिए हो रही थी कि उन्हें जिले व शहर में से किसी एक पद तक सीमित किया जाए। शहर पर दबाव बनाकर जि़ले की कमान अपने हाथ मे लेने के विजयवर्गीय विरोधी केम्प के मंसूबे परवान नही चढ़ पाए। जि़ले के मुखिया के रूप में ऐसा नेता सामने आ गया, जो रबर स्टाम्प नही, संगठनजीवी हैं। विजयवर्गीय ने इसी नाम की पैरवी 2023 विधानसभा चुनाव में भी बड़े गांव के लिए की थी। अब वो ही नाम जिले की कमान संभालेगा। ... दयालु भी साबित हुए चाणक्य इस पूरे मामले में दयालु भी चाणक्य साबित हुए। मोन रहकऱ वे, वह काम कर गुजरे जिसकी किसी को कल्पना नही थी। शुरुआत उन्होंने रायशुमारी से की और बाद में अपने साथ अन्य विधायकों को जोड़ कैलाश कैम्प की राह आसान कर दी। उन्होंने अपने प्रिय नाम को पहले हर विधानसभा से रायशुमारी में स्थान दिलाया और वह भी ऐसा कि पूरे शहर की 80 फीसदी भाजपा दयालु के नाम के साथ खड़ी नजर आई। ये रणनीति ही अंतिम विजय तक कारगर रही। न सत्ता न संगठन रायशुमारी की मजबूती को नकार सका। सरकार के मुखिया की तटस्थता के पीछे दयालु की ही रणनीति रहीं। वे स्वयम दो दो बार सीएम से मिलें। बीच शहर के युवा विधायक का साथ सोने पर सुहागा साबित हुआ। परिणाम में सालों बाद दीनदयाल भवन में रमेश युग लौट आया। शहर के नूतन कप्तान से दयालु का रिश्ता जगजाहिर हैं और उस रिश्ते के लिए इस बार दादा ने हर चौखट पर दयालु बनकर दस्तक दी। ये उन्ही की मनुहार का असर है कि पार्टी में उनके केम्प के विरोधी हार गए और एक बार फिऱ दयालु के भाईसाहब इंदौर में सिरमौर बनकर उभरे।
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