खादी को अपनाना चमत्कार से कम नहीं

  • 25-Jul-24 12:00 AM

डॉ. रमेश ठाकुरखादी का स्वर्णिम काल फिर से लौट रहा है। खादी की ब्रिकी दिनों दिन नये आयाम गढ़ रही है। घोर मॉर्डन युग और पहनावे के लिहाज से मन-मस्तिष्क पर हावी हो चुकी ब्रांडेड पश्चिमी सभ्यता के बीचोंबीच लोगों का खादी को अपनाना चमत्कार से कम नहीं है।लेकिन यह चमत्कार वास्तव में खादी ने किया है। अधिकृत रूप से पिछले सप्ताह खादी एंव ग्रामोद्योग बोर्ड ने बीते दस वर्षो के आंकड़े प्रस्तुत कर खादी की ब्रिकी के पूर्व के सभी रिकॉर्ड धवस्त हो जाना बताया है। खादी के विभिन्न उत्पादों की बिक्री में 400 फीसद का उछाल आया और इनके उत्पादन में 315 फीसद की बंपर बढ़ोतरी भी दर्ज हुई है। रिकॉर्ड स्तर पर 81 फीसद नये रोजगार सृजन भी हुए हैं। 2022-23 के वित्तीय वर्ष में 332.14 फीसद ब्रिकी, 267.52 फीसद प्रोडक्शन और 69.75 फीसद स्वरोजगार पैदा हुए हैं। रोजगार ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा हुए। वहां कताई, बुनाई के कारखानों में पुरुषों के मुकाबले महिलाएं अधिक भागीदार रहीं। आज खादी तथा ग्रामोद्योग बोर्ड के अंतर्गत 9 उत्पादन केंद्र पूरे भारत में मौजूद हैं।कहावत है कि ओल्ड इज गोल्डÓ। खादी की अचानक बेतहाशा ब्रिकी ने इसे चरितार्थ कर दिया है। शायद ब्रांडेड कपड़ों और आधुनिक चकाचौंध से लोग अब उबने लगे हैं। तभी फिर से अपनी जमीन की ओर मुडऩे को तत्पर हुए हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2003-2013 में खादी का कारोबार 26109.08 करोड़ रुपये था, जो 2014-2023 में छलांग लगा कर 95956.68 करोड़ तक जा पहुंचा। इनमें खादी के निर्मिंत कपड़े अन्य उत्पादनों से कहीं अधिक हैं। जनमानस का खादी की ओर मुडऩा निश्चित रूप से स्वदेशी अभियानÓ को पंख लगाने जैसा है। मौजूदा सरकार ने करीब एक दशक से स्वेदशी अभियान की अलख जगाए हुए है। खादी की भारी बिकवाली इस अभियान की सफलता पर मुहर लगाने जैसा है।खादी का कपड़ा खास है जो किसी धर्म-समुदाय से वास्ता नहीं रखता। सच्चे देशभक्त का अपना देशी कपड़ा है। चाहे अल्पसंख्यक हों, सिख हों, साधु-संत हों, या फिर मॉर्डन जमाने के शिक्षित युवा-युवती। सभी ने खादी को अपनाना आरंभ कर दिया है। खादी का आंदोलन, एक सामाजिक-सांस्कृतिक आख्यान, गांधी जी द्वारा मई, 1915 में सत्याग्रह आश्रम से शुरू किया गया था, जो गुजरात के अहमदाबाद जिले में साबरमती आश्रम के नाम से लोकप्रिय है। गांधी युग में खादी के कपड़े लोगों के सिर चढ़कर बोलते थे। धारणा पहले कुछ ऐसी थी कि सच्चा हिन्दुस्तानी मतलब खादी को अपनाने वाला।खादी के नये कीर्तिमान स्थापित करने का मतलब है, स्वदेशी अभियान और आत्मनिर्भरता की अपील का असर दिखाना। खादी पहनना ब्रांडेड कपड़ों के मुकाबले हमेशा से सुलभ और सरल माना गया है। इसका सस्ते से सस्ता और महंगे से महंगा कपड़ा हाथों से ही बुना जाता है क्योंकि खादी वस्त्र का निर्माण मशीनों से नहीं होता। ग्रामीण स्तर पर ज्यादा निर्माण होने से वहां लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। दरअसल, खादी के कपड़े अब पहले के मुकाबले उतने सस्ते नहीं रहे? दाम भरपूर बढ़े हैं, लेकिन बावजूद इसके खरीददारों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। सरकार अगर खादी के दामों में कुछ कटौती कर दे तो कारोबार में और भी उछाल आएगा क्योंकि खादी के दाम जिस हिसाब से आसमान छू रहे हैं, वो कइयों की पहुंच से दूर हैं। इस ओर ध्यान देने की केंद्र सरकार को जरूरत है।




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