चुनावी चंदे की पारदर्शी व्यवस्था बने

  • 19-Feb-24 12:00 AM

अजीत द्विवेदीचुनावी बॉन्ड को लेकर पिछले छह-सात साल में जितनी बहस हुई है और चंदे की इस व्यवस्था पर जितने सवाल उठे हैं उन्हें देखते हुए अब केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खुले दिल से स्वीकार कर लेना चाहिए। इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना कर संसद के जरिए इसे बदलने का वैसा प्रयास नहीं किया जाना चाहिए, जैसा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदे की पूरी व्यवस्था को असंवैधानिक करार दिया है और इस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है।इतना ही नहीं सरकार ने सभी पार्टियों से कहा है कि अगर किसी के पास कोई चुनावी बॉन्ड बचा है तो वह उसे तत्काल वापस लौटाए और स्टेट बैंक उसे बॉन्ड खरीदने वाले व्यक्ति के खाते में लौटा दे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि यह कानून सूचना के अधिकार का उल्लंघन करता है और साथ ही संविधान के अनुच्छेद 19 (1) से मिले मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन करता है। अदालत ने अप्रैल 2019 के बाद चुनावी बॉन्ड से दिए गए चंदे की सारी जानकारी 13 मार्च तक सार्वजनिक करने का आदेश दिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने एक राय से इस मामले में फैसला सुनाया है।चुनाव आयोग का फैसला बहुत स्पष्ट है। इसमें उन तमाम बातों का जिक्र है, जिसकी आशंका पिछले छह-सात साल से जताई जा रही थी। ऐसा नहीं है कि सिर्फ विरोधी पार्टियों के लोग या केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के चिरंतन विरोधी ही इस पर सवाल उठा रहे थे। भारत की दो स्वायत्त संस्थाओं ने भी इस पर सवाल उठाए थे। चुनाव आयोग ने कहा था कि चंदा देने वालों के नाम गुमनाम रखने से पता लगाना संभव नहीं होगा कि राजनीतिक दल ने धारा 29 (बी) का उल्लंघन करके चंदा लिया है या नहीं। साथ ही विदेशी चंदा लेने वाला कानून भी बेकार हो जाएगा।इसी तरह भारतीय रिजर्व बैंक ने इस योजना को लेकर कहा था कि चुनावी बॉन्ड धन शोधन को बढ़ावा देगा। इसके जरिए काले धन को सफेद करना आसान हो जाएगा। ये दोनों ऐसे मुद्दे हैं, जो बार बार उठाए जा रहे थे। साफ साफ दिख रहा था कि इस योजना में पारदर्शिता बिल्कुल नहीं है। चुनावी बॉन्ड खरीदने वाला कहां से पैसे ला रहा है यह पता लगाने का कोई जरिया नहीं था। इसलिए आयकर कानून के नियमों को लागू करने या धन शोधन के नियमों को लागू करने की संभावना समाप्त हो जाती थी। चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक ने इस पहलू की ओर ध्यान आकर्षित किया था।लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ साथ कुछ ज्यादा बड़े सवाल भी उठाए हैं। सबसे बड़ा सवाल लोकतंत्र का है, जिसमें जनता को यह जानने का अधिकार है कि जिस राजनीतिक दल को वह समर्थन दे रहा है या वोट दे रहा है उसे कहां से चंदा मिल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई के दौरान ही कहा था कि इस तरह की गोपनीय योजना के जरिए पार्टियों को असीमित फंडिंग का रास्ता खुलता है। असल में इस योजना को लेकर सबसे बड़ा सवाल यही था कि क्या इस तरह की चंदे की व्यवस्था से स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की संभावना प्रभावित होती है?इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट के फैसले में मिला है। अदालत ने कहा है कि इससे कॉरपोरेट फंडिंग और पॉलिसी मेकिंग यानी पार्टियों को मिलने वाले चंदे और नीति निर्माण में मिलीभगत हो सकती है। जब किसी को पता नहीं होगा कि किस कॉरपोरेट ने या किस व्यक्ति ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया है तो यह भी पता नहीं चलेगा कि किसी सरकार की किस योजना से किस कॉरपोरेट को क्या लाभ हुआ है। इससे लोकतंत्र की बुनियादी व्यवस्था प्रभावित होती है और मतदाता के अधिकार भी प्रभावित होते हैं। साथ ही सरकार के कामकाज में भ्रष्टाचार व भेदभाव बढऩे की संभावना भी पैदा होती है।सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नसीहत देने के अंदाज में कहा है कि चुनावी चंदे में काले धन के चलन को रोकने के लिए एकमात्र रास्ता यही नहीं है। इसके अलावा दूसरे रास्ते भी तलाशे जा सकते हैं, जो ज्यादा पारदर्शी हों और मौलिक अधिकार व सूचना के अधिकार का उल्लंघन नहीं करते हों। सोचें, 2017 में जब तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस योजना की घोषणा की थी और इसे लागू करने का फैसला हुआ था तब इसके विरोध पर वे बार बार कहते थे कि और कुछ हो या न हो यह तय है कि चंदे में दिया जाने वाला पैसा काला धन नहीं है। जबकि हकीकत में सबसे ज्यादा इसी पर सवाल उठा है। चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सवाल उठाया है। इसलिए सरकार को इस मामले में किसी तरह की जिद पकडऩे की बजाय ज्यादा पारदर्शी व्यवस्था बनाने के बारे में विचार करना चाहिए।ध्यान रहे भारत में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की व्यवस्था कभी भी परफेक्ट नहीं रही है। पार्टियों को 20 हजार रुपए से कम का चंदा बिना चेक के लेने का अधिकार है। अनेक पार्टियां ऐसी हैं, जिनको समूचा चंदा इसी तरीके से मिलता है। भारत की एक बड़ी राजनीतिक पार्टी बसपा है, जो पिछले करीब डेढ़ दशक से चुनाव आयोग को बता रही है कि उसे 20 हजार रुपए से ऊपर का एक भी चंदा नहीं मिला है।सोचें, उसे सैकड़ों करोड़ रुपए का चंदा मिल चुका है लेकिन किसी ने चेक से चंदा नहीं दिया। वह सत्ता में रही तब भी उसने यही बताया कि उसे मिलने वाले सारे चंदे 20 हजार रुपए से नीचे के हैं। इस तरह के चंदे के बारे में कुछ भी जानकारी देने की जरुरत नहीं होती है और जितना भी चंदा मिलता है वह आयकर से मुक्त होता है।राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए पहले ट्रस्ट के जरिए चंदा देने की व्यवस्था भी बनी थी और बाद में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदा देने का कानून ले आई। इस कानून में बुनियादी खामियां थीं, जिन्हें विस्तार से सुप्रीम कोर्ट ने बताया है। इस कानून के मुताबिक कोई भी व्यक्ति या कंपनी स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से चुनावी बॉन्ड खरीद सकता था। वह जिस पार्टी को चुनावी बॉन्ड देगा उसे 15 दिन के भीतर उस बॉन्ड को कैश कराना होगा। इस कानून के मुताबिक चुनावी बॉन्ड खरीदने वाले की पहचान नहीं जाहिर की जाती है और न उसके बारे में सूचना के कानून के तहत कोई जानकारी साझा की जाती है।हालांकि उसकी सारी जानकारी सरकार के पास होती है। तभी यह योजना सरकार के हाथों का एक टूल बन गई थी। लोग सरकार को खुश करने के लिए उसे ज्यादा चंदा दे रहे थे और विपक्षी पार्टियों के चंदे का स्रोत सूखता जा रहा था। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बराबरी के मैदान की धारणा खत्म हो गई थी। इससे काले धन का इस्तेमाल बढऩे की संभावना भी बढ़ गई थी और यह आरोप भी लग रहा था कि इसे कॉरपोरेट को ध्यान में रख कर लाया गया है। इस योजना में यह सुविधा थी कि कोई कॉरपोरेट घराना बिना पहचान बताए जितना चाहता उतना चंदा किसी को दे सकता था।इसके बदले में उसे कुछ न कुछ लाभ भी मिलता, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मिलीभगत कहा है। जब इन सारे पहलुओं से परदा उठ गया है तो चुनावी चंदे की एक ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए, जिससे काले धन की संभावना खत्म हो, जिसके बारे में सारी जानकारी आम लोगों को भी मिले और पक्ष व विपक्ष के बीच आंशिक रूप से ही सही लेकिन बराबरी का मैदान सुनिश्चित हो।




Related Articles

Comments
  • No Comments...

Leave a Comment