जनसंख्या नियंत्रण : सख्ती भी सहमति भी

  • 21-Mar-24 12:00 AM

डॉ. धर्मेंद्र प्रताप सिंहस्वातंत्रयोत्तर भारत की सरकार ने आम जन को जब पहली बार परिवार नियोजनÓ शब्द से परिचित कराया, तब अनेक लोगों का कहना था कि क्या अब यह भी सरकार बताएगी कि बच्चे कितने पैदा करने हैं!तब से आज तक सरकार द्वारा परिवार नियोजन संबंधी अनेक पहल की जा चुकी हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय के हाल ही के एक ऐतिहासिक निर्णय से यह मुद्दा एक बार फिर से सार्वजनिक बहसों में जीवित हो उठा है।12 अक्टूबर, 2022 के राजस्थान उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए राजस्थान सरकार के सरकारी नौकरी के लिए दो बच्चों के नियम पर मुहर लगाते हुए उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है, राजस्थान पुलिस अधीनस्थ सेवा नियम, 1989 का नियम 24(4) गैर-भेदभावपूर्ण है, और संविधान का उल्लंघन नहीं करता। यह संविधान के दायरे से बाहर है, क्योंकि प्रावधान के पीछे का उद्देश्य परिवार नियोजन को बढ़ावा देना है। राजस्थान सरकार का नियम नीति के दायरे में आता है। अत: इसमें हस्तक्षेप की कोई जरूरत नहीं है।Ó इसका अर्थ हुआ कि राजस्थान सरकार का यह कानून अब पूर्णत: स्थापित हो चुका है, जिसके अनुसार राजस्थान में अब दो से ज्यादा बच्चों वाले लोग सरकारी नौकरियां नहीं कर सकेंगे।उच्चतम न्यायालय का यह फैसला न केवल सकारात्मक है, बल्कि सामाजिक समानता और न्याय को प्रोत्साहित करता हुआ विकसित भारत के निर्माण में परिवार नियोजन की महत्त्वपूर्ण भूमिका को भी रेखांकित करता है। वस्तुत: ऐसा नियम बनाने वाला राजस्थान पहला राज्य नहीं है। अन्य कई राज्यों में ऐसी नीतियां पहले से ही लागू हैं। मध्य प्रदेश में 2001 से सिविल सेवा (जनरल कंडिशन ऑफ सर्विसेज) लागू है। तेलंगाना पंचायत राज अधिनियम का सेक्शन 19(3), 156(2), 184(2) दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्ति को चुनाव लडऩे से अयोग्य घोषित करता है। आंध्र प्रदेश पंचायत राज अधिनियम, 1994 में भी यही धाराएं लागू हैं। 2005 के गुजरात सरकार के लोकल अथॉरिटीज एक्ट के संशोधन केअनुसार दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्ति पंचायतों, नगर पालिकाओं और नगर निगमों के चुनाव नहीं लड़ सकते। उत्तराखंड सरकार ने दो से अधिक बच्चों वाले लोगों को पंचायत चुनाव लडऩे से रोकने का फैसला किया था। महाराष्ट्र जिला परिषद और पंचायत समिति अधिनियम उन लोगों को स्थानीय निकाय चुनाव लडऩे से अयोग्य घोषित करते हैं, जिनके दो से अधिक बच्चे हैं। हरियाणा के पंचायत चुनाव में भी ऐसे ही नियम लागू हैं।जनसंख्या नियंत्रण के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर खूब विमर्श होते रहे हैं। जनसंख्या की बात होते ही भारत की तुलना चीन से की जाने लगती है। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि 1970 के दशक में भारत में जब परिवार कार्यक्रम शुरू हुआ तो उसी के आसपास 1979 में चीन ने भी दो बच्चों की नीति को लागू कर दिया था, लेकिन भारत में यह संकल्प बार-बार दुहराया जाता रहा है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए भारत को चीन जैसी कठोर नीति बनाने की आवश्यकता नहीं है। यह ठीक है कि सत्तर और अस्सी के दशक में दुनिया के ये दो बड़े देश जनसंख्या नियंत्रण की ओर बढ़ रहे थे लेकिन यह भी सच है कि क्षेत्रफल की दृष्टि से चीन भारत से सवा तीन गुना से भी ज्यादा बड़ा देश है। भारत का जनसंख्या घनत्व भी चीन से बहुत अधिक है। चीन में जहां बहुसंख्यक आबादी आज वयस्क हो चुकी है वहीं भारत आज युवाओं का देश है।गैर-बराबरी के ऐसे अनेक बिंदुओं के कारण भारत और चीन के जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों के सूत्र या प्रतिमान एक जैसे नहीं हो सकते। पिछले कोई दो दशकों में भारत की आबदी लगभग चालीस फीसद बढ़ी है। वर्तमान भारत में लगभग ढाई करोड़ लोगों का हर साल जन्म होता है और नब्बे लाख लोगों की मृत्यु होती है यानी भारत की वार्षिक औसत जनसंख्या वृद्धि डेढ़ करोड़ के बीच होनी चाहिए लेकिन वास्तविकता इससे अलग है। धीरे-धीरे बढ़ता जनसंख्या का यह असंतुलन भारत के लिए समस्या बनता जा रहा है। इसके समाधान स्वरूप परिवार नियोजन को कुछ दशक के लिए लागू करने की बात प्रमुखता से उठाई जाती है। समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़ेगा और संसाधनों के अनुरूप आबादी के आधिक्य से संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ता जाएगा। ऐसे में सरकारी नौकरियों में दो बच्चों का नियम नीतिगत एवं सामाजिक स्तर पर बड़ा संदेश देने की जरूरी कोशिश प्रतीत होता है।इस प्रकार के विषयों पर सामान्यत: विभिन्न समुदायों के बीच असहमति होती है। कुछ लोग इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन कहते हैं जबकि कुछ इसे सामाजिक समानता और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक मानते हैं। यह भी सच है कि कोई भी समाज जैसे-जैसे साक्षर होता जाएगा, परिवार नियोजन जैसी बातें सहजता से स्व-नियमन का हिस्सा बनती जाएंगी। परिवार नियोजन या जनसंख्या नियंत्रण की प्रक्रिया किसी समाज की सामाजिक-आर्थिक प्रगति का मजबूत आधार बन सकती है। इससे सामाजिक समानता, गुणवत्तापूर्ण जीवन-शैली और आर्थिक समृद्धि का द्वार खुलता है। जनसंख्या नियोजन के परिणाम स्वरूप समाज में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच में व्यापक सुधार की संभावना दिखाई पड़ती है।मातृत्व स्वास्थ्य, बच्चों की मृत्यु दर और अन्य स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में सुधार की गुंजाइश बढ़ती है। इसके माध्यम से परिवारों के आर्थिक-सामाजिक दबाव को कम किया जा सकता है, जिससे उनकी साक्षरता सहित शिक्षा के स्तर में सुधार हो। जनसंख्या नियोजन से महिलाओं को निर्णायक फैसलों का अधिक नियंत्रण मिलता है और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार होता है। इससे बच्चों समेत परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार दिखाई पड़ेगा क्योंकि यह उन्हें अपने संसाधनों का उचित उपयोग करने में मदद करता है। जनसंख्या नियोजन से लघु पारिवारिकता बढ़ती है, जो जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संतुलन को सुधारने में मदद कर सकती है। इससे वन्य जीवन को संरक्षित किया जा सकता है, और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग संतुलित रूप से हो सकता है। ऐसा करके ही संसाधनों एवं संभावनाओं से परिपूर्ण भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र के अपने सपने को साकार करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकेगा।




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