नदियों की याददाश्त बहुत मजबूत अपना रास्ता नहीं भूलतीं

  • 08-Jul-24 12:00 AM

पंकज चतुर्वेदीशायद कभी उसका नाम सुखीÓ नदी होगा लेकिन बहुत दिन उसमें पानी आया नहीं तो नाम हो गया सूखी नदीÓ। इंसान भी भूल गया कि कभी यहां नदी थी और खाली जगह पर अपनी गाडिय़ां खड़ी करने लगा।नदियों की याददाश्त बहुत मजबूत होती है, वे दो सौ साल अपना रास्ता नहीं भूलतीं, भले ही लुप्त हो जाएं। इस बार आषाढ़ की पहली बारिश में ही नदी अचानक जिंदा हो गई और उनके बहाव में दर्जनों कारें बह गई। यह हुआ हरिद्वार में खडख़ड़ी श्मशान के पास।हर साल की तरह गुरु ग्राम फिर जल ग्राम बन गया। कारण वही है कि असल में जहां पानी भरता है, वह अरावली से चल कर नजफगढ़ में मिलने वाली साहिबी नदी का हजारों साल पुराना मार्ग है, नदी सुखा कर सड़क बनाई गई। अब समाज कहता है कि उसके घर-मोहल्ले में जल भर गया जबकि नदी कहती है कि मेरे घर में इंसान बलात कब्जा किए हुए हैं। देश के छोटे-बड़े शहर-कस्बों में कंक्रीट के जंगल बोने के बाद जलभराव स्थायी समस्या बन गया है।इसका मूल कारण है कि वहां बहने वाली कोई छोटी सी नदी को समाज ने अस्तित्वहीन समझ कर मिटा दिया। यह तो अब समझ आ रहा है कि समाज, देश और धरती के लिए नदियां बहुत जरूरी हैं, लेकिन अभी यह समझ में आना शेष है कि छोटी नदियों पर ध्यान देना जरूरी है। गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है, पर ये नदियां बड़ी इसीलिए बनती हैं क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियां आकर मिलती हैं, यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी, यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा। छोटी नदियां अक्सर गांव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती हैं। कई बार एक ही नदी के अलग-अलग गांव में अलग-अलग नाम होते हैं। बहुत नदियों का तो रिकार्ड भी नहीं है।हमारे लोक समाज और प्राचीन मान्यता नदियों और जल को लेकर बहुत अलग थीं, बड़ी नदियों से दूर घर-बस्ती हो। बड़ी नदी को अविरल बहने दिया जाए। कोई बड़ा पर्व या त्योहार हो तो बड़ी नदी के किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें। छोटी नदी या तालाब या झील के आसपास बस्ती। यह जल संरचना दैनिक कार्य के लिए जैसे स्नान, कपड़े धोने, मवेशी आदि के लिए हो। पीने की पानी के लिए घर-आंगन, मोहल्ले में कुआं, जितना जल चाहिए, श्रम करिए, उतना ही रस्सी से खींच कर निकालिए।अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा, यदि तालाब और छोटी नदी में पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में जल की कमी नहीं होगी। मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हजार छोटी ऐसी नदियां हैं, जो उपेक्षित हैं, उनके अस्तित्व पर खतरा है। नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड के दर्द साथ-साथ चलने की कहानी देश के हर जिले और कस्बे की है। लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है, उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही है कि धरती की कोख में जल भंडार तभी लबालब रहता है, जब पास बहने वाली नदियां हंसती-खेलती हों। अंधाधुंध रेत खनन, जमीन पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थायी निर्माण ही छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं है, उनको शातिर तरीके से नाला बता दिया जाता है। जिस साहिबी नदी पर शहर बसाने से हर साल गुरु ग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं है, झारखंड-बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हजार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई। हम यमुना में पैसा लगाते हैं, लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं। कुल मिला कर यह नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है।छोटी नदी केवल पानी के आवागमन का साधन नहीं होती; उसके चारों तरफ समाज भी होता है और पर्यावरण भी। नदी किनारे किसान भी हैं और कुम्हार भी, मछुआरा भी और धीमर भी। नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से ले कर कुएं तक में जल का संकट हुआ। सो, परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं है जो इससे प्रभावित नहीं हुआ हो। इन सबसे बचाव का तरीका तो यही है कि सबसे पहले छोटी नदियों का सर्वे और उसके जल तंत्र का दस्तावेजीकरण हो। फिर छोटी नदियों की अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और अतिक्रमण को मानव-द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए। नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें। नदी में पानी रहेगा तो तालाब, जोहड़ समृद्ध रहेंगे और इससे कुएं या भूजल। सबसे बड़ी बात समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा।




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