बिना जीवनी जाने कैसे आई लव मुहम्मद?
- 09-Oct-25 12:00 AM
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शंकर शरणअधिकांश मुसलमान भी मुहम्मद को पूरा नहीं जानते। ज्जब उन्हें सब के लिए हर विषय में अनुकरणीय बताया तो उन के जीवन की पूरी जानकारी लेना लाजिम हो जाता है। वरना अनुकरण कैसे होगा?ज्विचारशील मुसलमान भी समझते हैं कि ऐसे प्रोफेट को पूरी मानवता के लिए अनुकरणीय बताना बेढब है! इसीलिए मुस्लिम नेता और उलेमा मुहम्मद की चर्चा से ही बचना चाहते हैं। पर आई लव मुहम्मद ने उस की चर्चा अनिवार्य बना दी।मुहम्मद से मुहब्बत? पहले उन्हें जानें (2)इस्लाम पूरी तरह गैर-मुस्लिमों के प्रति विरोध-भाव पर केंद्रित है। काफिर-विरोध ही इस्लाम की टेक है। पूरी दुनिया को हर हाल में इस्लामी बनाने के उसूल का मतलब ही है सभी गैर-इस्लामी तत्व मिटाना। सो, घोड़ा घास से यारी कैसे करेÓ वाली बात है। इसीलिए जिस समाज में गैर-मुस्लिम और मुस्लिम दोनों हों, वहाँ शान्ति सदैव अस्थाई रही है।एक बड़े भारतीय मौलाना ने मुस्लिमों के किसी सवाल पर कहा था कि यदि किसी विषय में समझ न आए कि क्या करना जायज होगा, तो उस पर काफिर जो करते हैं उस का उल्टा करो। आखिर, मुहम्मद ने ही मुसलमानों को कहा था: मूँछें मुड़वा लो और दाढ़ी बढ़ा लो; ताकि मूर्तिपूजकों से अलग दिखो। (बुखारी, 7:72:780)। बस, यही कारण था। कुरान भी आधे से अधिक यही है कि काफिर बुरे, गंदे, और घृणित हैं। उन के लिए एक भी अच्छा शब्द उस में नहीं।वही मुहम्मद पूरी मानवता के लिए अनुकरणीय, और अंतिमÓ प्रोफेट भी हैं। यह उन का केंद्रीय दावा है (कुरान, 33:40)। उसी से जुड़ी इस्लाम की अखीरतÓ और कयामतÓ की धारणा है। यानी दुनिया का अंत बहुत निकट है, यह कुरान में बार-बार दुहराई गई बात है (कुरान, 15:85, 44:10, 78:40)।पर वह गलत साबित हुई। कुरान में दर्ज मुहम्मद के उस कथन के बाद दुनिया चौदह सदियों से चल रही है। जब कि मुहम्मद के अनुसार अंत तभी करीब था। वह अपने सामने के लोगों को चेतावनी दे रहे थे। वह आसन्न अंत की बात थी, न कि हजारों साल बाद। वरना तब मौजूद लोगों को वह चेतावनी अनर्गल होती! सो, मुहम्मद की वह बात गलत निकली।अत: जब कयामत नजदीक नहीं थी, तो वह प्रोफेट भी अंतिम नहीं हो सकते। कुरान के ही अनुसार पहले दर्जनों प्रोफेट हुए। तब आगे नहीं होंगे, इस की यही दलील थी कि दुनिया का ही अंत होने वाला है। यदि दुनिया खत्म नहीं होने वाली थी, जो गत चौदह सौ सालों से प्रमाणित है, तो इस्लाम के प्रोफेट भी आखिरी नहीं हो सकते।यही बाद के इतिहास ने भी दिखाया। प्रोफेट की धारणा न इस्लाम से आरंभ हुई, न इस्लाम को उस का अंतÓ करने का अधिकार था। प्रोफेट का सदैव अर्थ था -– ईश्वरीय प्रेरणा से बोलने वाला, ईश्वर की चर्चा करने वाला, भविष्य की बातें बताने वाला, लोगों को ज्ञान देने वाला, आदि। सो मुहम्मद के बाद, अपने जीवन काल में ही सैकड़ों गुने अधिक अनुयायियों वाले प्रोफेट, यानी दैवी प्रेरणा वाले लोग अनेक देशों में होते ही रहे। जैसे, रूस में संत बोरिस, ब्लेस्ड मैत्र्योना; भारत में आदि शंकर, गुरु रामानन्द, गुरु नानक, चैतन्य; तिब्बत के दलाई लामा; आदि के लाखों-लाख शिष्य हुए हैं। इतने अनुयायी मुहम्मद को तमाम जीत, लूट का माल बाँटने, जन्नत के प्रलोभन, जहन्नुम की धमकी, जोर-जबर्दस्ती, आदि के बाद भी हासिल नहीं हो सके थे। मुहम्मद की मृत्यु के समय मोटे तौर पर उनके एक लाख अनुयायी थे।सो, जिन्हें तमाम पश्चिमी भाषाओं में प्रोफेटÓ कहा गया, यहाँ आदिशंकर, रामानन्द, गुरू नानक, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस, आदि वैसे ही महापुरुष थे। यह सब मुहम्मद के बाद हुए। अत: मुहम्मद आखिरी प्रोफेट नहीं थे। उन का यह दावा भी गलत सिद्ध हुआ।वस्तुत: अधिकांश मुसलमान भी मुहम्मद को पूरा नहीं जानते। विशेषकर, गैर-अरब मुसलमान। मूल अरबी इस्लामी पुस्तकों के अनुवादों में बहुत सी बातें काफी नरम और अर्थांतर की हुई मिलती हैं। यह अरब लेखिका वफा सुल्तान ने अपनी पुस्तक में उदाहरण देकर दिखाया है। ऊपर से, भारतीय-पाकिस्तानी मुस्लिमों को अनेक मनगढ़ंत बातें भी बताई जाती रही हैं। यह भारतीय मौलानाओं ने यहाँ की स्थिति देखते हुए किया, जहाँ महान प्रोफेटोंÓ की गौरवशाली परंपरा है। पाकिस्तानी लेखक हैरिस सुल्तान ने बचपन में मुहम्मद के बारे में सुनी ऐसी मधुर कहानियों के उदाहरण अपनी पुस्तक में दिए हैं, जो किसी मूल स्त्रोत में नहीं मिलते।कारण वही है कि मुहम्मद को मानवता के लिए सर्वोत्तम अनुकरणीय मॉडल बताने में उन के जीवन की असंख्य तफसीलें मुसीबत बन जाती हैं। उन की जीवनी की जिन बातों पर मुसलमान सदियों से गर्व करते रहे, अब वह सामान्य नैतिकता से बड़ी गड़बड़ लगती हैं। विशेषकर, जब मुहम्मद के बाद हुए प्रोफेटों से तुलना करें। इसीलिए, मुस्लिम नेता कुरान की बातों की भी चर्चा करने पर नाराज होते हैं। क्योंकि उस से मुहम्मद की वह छवि सामने आने लगती है, जिसे अब वे छिपाना चाहते हैं।परन्तु मुहम्मद का निजी जीवन छोड़ भी दें — यद्यपि जब उन्हें सब के लिए हर विषय में अनुकरणीय बताया तो उन के जीवन की पूरी जानकारी लेना लाजिम हो जाता है। वरना अनुकरण कैसे होगा? — किन्तु वह रहने भी दें, तो सभी इस्लामी किताबें मुहम्मद की बड़ाई में उन के युद्ध, हमले, जीत, लूट के माल, उस के बँटवारे, भोग, धमकी, चेतावनी, आदि की ही अधिक चर्चा करती हैं। सो, यह किसी ज्ञानी के बदले प्राय: किसी योद्धा और शासक की जीवनी रहती है। वह भी किस प्रकार के? ऊपर उद्धृत मुहम्मद की अपनी बताई पाँच विशेषताएंÓ ही दिखाती हैं, कि उन के लिए आतंकÓ और लूट का मालÓ जायज है। (सहीह बुखारी, 1:7:301)विचारशील मुसलमान भी समझते हैं कि ऐसे प्रोफेट को पूरी मानवता के लिए अनुकरणीयÓ बताना बेढब है! इसीलिए मुस्लिम नेता और उलेमा मुहम्मद की चर्चा से ही बचना चाहते हैं। पर आई लव मुहम्मदÓ ने उस की चर्चा अनिवार्य बना दी। यह अच्छा है। ज्ञान हितकर होता है। विशेषकर मुहम्मद के बारे तो सच्चा ज्ञान सब को होना ही चाहिए।इसलिए भी उल्लेखनीय है कि भूत-भविष्य, लोक-परलोक तो दूर, मुहम्मद को अपने समय की दुनिया की भी पूरी खबर न थी! कुरान की सारी कथाएं केवल यहूदी बाइबिल की बातों के दुहराव हैं। जो तब अरब में प्रचलित थीं। जबकि मुहम्मद के समय भारत, चीन, आदि में बड़े-बड़े बौद्ध व हिन्दू राज्य थे। असंख्य हिन्दू और बौद्ध कथाएं, देवी-देवता, अवतार, धर्म-विचार, महाकाव्य, रामायण, महाभारत जैसी महान पुस्तकें कई पूर्वी देशों में सदियों से प्रतिष्ठित थीं। किन्तु मुहम्मद की तमाम जानकारी बस अब्राहम, यहोवा, जीसस, मेरी, नोआ, गैब्रील, आदि तक सीमित थी! इसीलिए कुरान में ही अनेक उल्लेख दिखाते हैं कि कई अरब भी मुहम्मद की बातों को यहूदियों की कथाओं, बातों की नकल भर समझते थे। (कुरान, 25:4-5, 6:25, 83:13)।अर्थात, मुहम्मद के प्रोफेट होने का दावा उसी समय अरब में ही संदिग्ध था। इस के असंख्य संकेत कुरान में हैं। बहुत सी अन्य बातें भी धक्का पहुँचाने वाली हैं। जैसे, मुहम्मद का निर्देश है: तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं, जैसे चाहो वैसे जोतो। (कुरान, 2:233)। इसीलिए, आज के मौलाना इस्लामी बातों को नए-नए रंग-रोगन में पेश करते हैं। जिन्हें सदियों से अपरिवर्तनीय बताया जाता रहा था।अब अधिकांश उलेमा इस्लाम में गुलामी-प्रथा, स्त्रियों के प्रति नीच व्यवहार, घृणित काम, संगीत व चित्र-कला की मनाही, जिहाद, काफिर, शिर्क, जजिया, जिम्मी, तकिया, आदि के ऐसे अर्थ देने की कोशिश करते हैं जो पिछले हजार सालों में पहले कभी नहीं दी! क्योंकि अब यह दिखता है कि वह असल में क्या थी। इसीलिए, आज मुहम्मद की छवि या तो छिपायी जाती है, या अपनी ओर से मनगढ़ंत कहानियाँ जोड़ कर उन्हें आज के समाज के समक्ष प्रस्तुत करने लायक बनाया जाता है।उस की तुलना में मुहम्मद के बाद हुए भारत के प्रोफेटों पर विचार करें। आदि शंकराचार्य, चैतन्य से लेकर आज भी स्वामी शिवानन्द, विवेकानन्द, और माता अमृतानंदमयी तक, अनेक महान धर्म-चिंतकों, धर्म-मार्गदर्शकों का जीवन और उन की बातें। कहीं घमंड, धमकी, दबाव, या प्रलोभन नहीं। दूसरों की निन्दा नहीं। किसी भी उपदेश, व्याख्या, या विचार को मानने की बाध्यता नहीं। अपने संप्रदाय में आने के साथ-साथ छोड़ कर जाने में भी कोई चिन्ता नहीं।जबकि मुहम्मद ने कहा था, जो भी इस्लाम छोड़ता है, उसे मार डालो। (बुखारी, 9:84:22)। मुहम्मद के उदाहरणों से ही शरीयत यानी इस्लामी कानूनÓ बने हैं। जबकि ऐसे निर्देश इस्लाम की वैचारिक दुर्बलता का प्रमाण हैं। जिसे भरोसा नहीं कि धरती और जन्नत, दोनों जगह के लिए तरह-तरह के प्रलोभन, धमकी, और ईनाम के बावजूद मुसलमान स्वेच्छा से उस के संप्रदाय में टिके रहेंगे! वरना, इस्लाम छोडऩे पर मार डालने की क्या जरूरत थी या है?मुहम्मद की तुलना में हिन्दू या बौद्ध प्रोफेटों, यानी गुरुओं, संतों की अनगिनत श्रृंखला सहजता से चलती रही है। उन्हें पूरी दुनिया में अनुयायी मिलते रहे हैं। न केवल ऐसे धर्म-संप्रदायों को अपने प्रति कोई शंका नहीं, अपितु स्वामी विवेकानन्द की तरह वे अपने अनुयायियों को स्वयं ही प्रोफेट बन जाने के लिए प्रेरित करते हैं। अकेले प्रोफेट होने का एकाधिकार ही नहीं रखते!इसीलिए, जो मुहम्मद से प्रेम रखते हैं, उन्हें दूसरे प्रोफेटों, ज्ञानियों के जीवन, कार्य, और संदेशों का भी अध्ययन भी करना चाहिए। भारत में ऐसा करना और उपयुक्त है, जहाँ मुहम्मद को भी वही सम्मान दिया जाता रहा है, जैसा आदिशंकर, गुरु नानक, चैतन्य, आदि महापुरुषों को। हमें अपने प्रेम पात्र से प्रेम करते हुए उसे जानना भी चाहिए। वही अपने प्रति ईमानदारी होगी। वही कल्याणकारी होगा।
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