भाजपा के दक्कन अभियान की चुनौतियां

  • 17-Mar-24 12:00 AM

अजीत द्विवेदीभौगोलिक रूप से हिमालय की चढ़ाई मुश्किल मानी जाती है लेकिन राजनीतिक रूप से उत्तर भारत की पार्टियों और शासकों के लिए दक्कन का अभियान हमेशा मुश्किल रहा है। मध्य काल में मुगल शासकों के लिए भी दक्कन की चुनौती हमेशा रही तो अंग्रेज, पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी सबने भारत का अपना अभियान दक्कन से शुरू किया लेकिन किसी का साम्राज्य दक्कन में ज्यादा फला-फूला नहीं।सबसे सफल औपनिवेशिक ताकत यानी ब्रिटिश राज भी गंगा के मैदानी इलाकों में ही समृद्ध हुआ। सतपुड़ा के घने जंगलों और विंध्य पर्वत के दक्षिण में उनको भी नाकों चने चबाने पड़े। आजादी के बाद शुरुआती कुछ दिनों तक कांग्रेस के सामने दक्षिण की चुनौती नहीं रही लेकिन जब चुनौती शुरू हुई तो एक एक करके दक्षिणी राज्यों से कांग्रेस के पांव उखड़ते गए। भारतीय राजनीति में अभी भाजपा केंद्रीय ताकत है लेकिन दक्षिण में कर्नाटक को छोड़ कर कहीं भी उसका मजबूत आधार नहीं बन सका है।कह सकते हैं कि भाजपा ने इससे पहले कभी भी दक्षिण को लेकर बहुत गंभीरता नहीं दिखाई थी और बहुत सुनियोजित अभियान नहीं चलाया था। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा ने कभी सोचा ही नहीं कि उनको दक्षिण में या पूर्वोतर भारत में भी अपना विस्तार करना चाहिए। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा ने पहले पूर्वोत्तर की दीवार गिराई। कोई न कोई उपाय करके पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा का संगठन बनवाया और सरकार भी बनाई।असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मणिपुर जैसे राज्यों में भाजपा ने लगातार दूसरी बार अपनी सरकार बनाई तो मेघालय और नगालैंड में सहयोगी पार्टियों के साथ सरकार में शामिल हुई। सिक्किम में भी भाजपा की सहयोगी पार्टी सरकार में है। एक मिजोरम को छोड़ कर बाकी सभी राज्यों में भाजपा एक मजबूत राजनीतिक ताकत है। उत्तर और पश्चिम में पहले से भाजपा का मजबूत जमीनी आधार था। सो, पूरब, पश्चिम और उत्तर के बाद भाजपा अब दक्षिण की ओर से चली है। वह दक्षिणायन हो रही है।सवाल है कि क्या दक्षिणावर्त भाजपा अपने अभियान में कामयाब होगी? क्या वह गंगा और नर्मदा के किनारे से निकल दक्कन के विशाल पठार चढ़ पाएगी? सतपुड़ा के घनों जंगलों को पार करना क्या भाजपा के लिए संभव हो पाएगा? एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या भाजपा इस बार के लोकसभा चुनाव में दक्षिण विजय करके वास्तविक अर्थों में पूरे देश की पार्टी बन पाएगी?इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं क्योंकि भाजपा के लिए दक्षिण की राजनीति भी उलझी हुई है और सामाजिक व सांस्कृतिक स्थितियां भी वैसी नहीं हैं, जैसी उत्तर या पूरब और पश्चिम में उसे मिली हैं। उसे दक्षिण की सामाजिक व सांस्कृतिक स्थितियों के साथ सामंजस्य बनाना है या मौजूदा सामाजिक व सांस्कृतिक विमर्श के बरक्स एक नया विमर्श खड़ा करना है। दक्षिण की सामाजिक व सांस्कृतिक धरातल पर दोनों पैर टिका कर खड़े हुए बगैर भाजपा के लिए राजनीतिक जमीन को उर्वर बनाना आसान नहीं होगा।आमतौर पर भाजपा के दक्कन के अभियान को राजनीतिक नजरिए से देखा जा रहा है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। चूंकि भाजपा ने ऐसे राजनीतिक दांव चले हैं कि उनसे नजर नहीं हटती है और सारी व्याख्या उसी के ईर्द गिर्द घूमने लगती है। भाजपा ने कर्नाटक में, जहां उसकी अपनी जमीन मजबूत है वहां राज्य की एकमात्र प्रादेशिक पार्टी जेडीएस से तालमेल कर लिया। भाजपा लिंगायत तो जेडीएस वोक्कालिगा वोट की राजनीति करती है। इसी तरह आंध्र प्रदेश में, जहां वह एक फीसदी वोट की पार्टी है वहां उसने तेलुगू देशम पार्टी और जन सेना पार्टी से तालमेल कर लिया। तेलुगू देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू कम्मा हैं तो जन सेना पार्टी के प्रमुख पवन कल्याण कापू समुदाय से आते हैं। राज्य की दो बड़े जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां भाजपा के साथ हैं। तमिलनाडु में भाजपा का तालमेल अन्ना डीएमके से खत्म हो गया है लेकिन वह तमिल मनीला कांग्रेस के साथ साथ टीटीवी दिनाकरण और ओ पनीरसेल्वम से तालमेल कर रही है। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा दक्षिण के राज्यों में जो राजनीतिक दांव चल रही है वह अपनी जगह है लेकिन उसने राजनीतिक पहल करने से पहले सामाजिक व सांस्कृतिक धरातल पर भी काम शुरू कर दिया था।हो सकता है कि अभी इसका बड़ा राजनीतिक असर नहीं दिख रहा हो लेकिन काशी-तमिल संगम के जो कार्यक्रम शुरू हुए हैं उनका असर आने वाले समय में दिखाई देगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ समय पहले ही हिंदुओं की सबसे पवित्र नगरी काशी को तमिल के साथ जोडऩा शुरू किया था। यह तमिलनाडु में नई जमीन तोडऩे की तरह था। ध्यान रहे तमिलनाडु का जनमानस व्यापक रूप से ईवी रामास्वामी नायकर पेरियार और द्रविडियन आंदोलन से बना हुआ है। सनातन विरोध की गहरी जड़ें वहां स्थापित हैं। सामाजिक स्तर पर जातियों की राजनीति उत्तर भारत के मुकाबले बहुत पहले से जमी हुई है।आरक्षण की सीमा 34 साल से 65 फीसदी से ऊपर है। कह सकते हैं कि सनातन विरोध और पिछड़ी जातियों के वर्चस्व की राजनीति स्थापित है। ऊपर से हिंदू विरोध और तमिल की सर्वोच्चता का भाव भी उत्तर भारत की पार्टियों के लिए मुश्किल पैदा करने वाला है। लेकिन याद करें कितना पहले नरेंद्र मोदी ने अमेरिका की एक सभा में तमिल को संस्कृत से भी पुरानी भाषा बता कर उसकी महत्ता का गुणगान किया था। सो, चाहे भाषा की बाधा तोडऩे का मामला हो या सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श में अपना पक्ष उजागर करना होगा या धर्म के मामले में सनातन बनाम सनातन विरोध का विमर्श बनवाना हो, हर जगह भाजपा ने अपने को खड़ा किया है।भाजपा की सक्रियता से राज्य में सत्तारूढ़ डीएमके नेता अतिशय सजग हो गए और उन्होंने अपनी रक्षा में आक्रामक होकर भाजपा पर हमला शुरू कर दिया। ऐसे भी कह सकते हैं कि वह भाजपा के जाल में फंस गई और उसके तय किए गए एजेंडे पर प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। डीएमको को अन्ना डीएमके से लडऩा है, जिसका सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक एजेंडा एक जैसा है लेकिन उससे लडऩे की बजाय डीएमके ने भाजपा के बनाए विमर्श से लडऩा शुरू कर दिया अन्यथा कोई कारण नहीं था कि उदयनिधि स्टालिन और ए राजा सनातन को बीमारी बता कर उसे खत्म करने का संकल्प जताते।सनातन का एजेंडा मुख्य विपक्षी पार्टी अन्ना डीएमके का नही था, बल्कि हाशिए पर की पार्टी भाजपा का था। लेकिन अपनी गलती से डीएमके ने भाजपा का पैदा किया गया विमर्श केंद्र में ला दिया। अपना पिछला प्रदर्शन दोहराने के दबाव में डीएमके ने भाजपा को दुश्मन नंबर एक बना दिया, जिसका सीधा फायदा भाजपा को होगा। एक प्रतिष्ठित मीडिया समूह के सर्वेक्षण में भाजपा को 20 फीसदी वोट मिलने की संभावना जताई गई है। ध्यान रहे देश के उन हिस्सों में भाजपा को ज्यादा कामयाबी मिली है, जहां लोगों ने उसे आजमाया नहीं है या नरेंद्र मोदी के प्रति जहां जिज्ञासा है।इसी तरह केरल की राजनीति को ध्यान में रख कर भाजपा ने ईसाई समुदाय को अपने साथ जोडऩे का अभियान शुरू किया। नरेंद्र मोदी के चर्च के दौरे बढ़ गए और वे वेटिकन के पोप का आशीर्वाद भी ले आए। ईसाई और मुस्लिम समुदाय के बीच की फॉल्टलाइन को बढ़ा कर भाजपा लाभ लेने की कोशिश में है। उसको लग रहा है कि हिंदू उसका साथ देंगे और अगर इसाइयों का का एक समूह उसके साथ आया तो एक मजबूत ताकत बन सकती है। ध्यान रहे अभी वह 11 फीसदी वोट की पार्टी है लेकिन यह चुनाव उसके बहुत मजबूत होने का चुनाव हो सकता है।तेलंगाना भी भाजपा की उम्मीदों का प्रदेश है, जहां उसे ओवैसी की पार्टी के रूप में एक रेडिमेड दुश्मन उपलब्ध है। यह नहीं कहा जा सकता है कि इसी चुनाव में भाजपा जीत जाएगी या बड़ी पार्टी हो जाएगी लेकिन यह तय है कि दक्कन के पठार उसके लिए बहुत दुर्गम नहीं रह जाएंगे।




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