भाजपा ने दांव बहुत कायदे से आजमाया
- 02-Dec-24 12:00 AM
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अजीत द्विवेदीहरियाणा और महाराष्ट्र दोनों राज्यों के चुनाव नतीजे हैरान करने वाले थे। दोनों राज्यों में सामान्य समझ यह कह रही थी कि भाजपा का गठबंधन चुनाव हार रहा है। तमाम पत्रकार, सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियां, राजनीतिक विश्लेषक और पार्टियों के नेता भी यह मान रहे थे कि दोनों राज्यों में भाजपा के खिलाफ माहौल है। पांच महीने पहले दोनों राज्यों में लोकसभा चुनाव में भाजपा को झटका लगा था। महाराष्ट्र में उसकी सीटें 23 से घट कर नौ और हरियाणा में 10 से घट कर पांच रह गई थीं।हरियाणा में तो सत्ता विरोधी लहर को कम करने के लिए भाजपा ने साढ़े नौ साल मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल खट्टर को हटा दिया था और उनकी जगह नायब सिंह सैनी को सीएम बनाया था। हालांकि उन सैनी की इच्छा के विपरीत उनकी विधानसभा सीट बदल दी गई थी। वे चुनाव जीतने के लेकर कई कतई आशान्वित नहीं थे। तभी आठ अक्टूबर को वोटों की गिनती के दौरान शुरुआती रूझानों में जब भाजपा बहुत पिछड़ गई तो उन्होंने सामने आकर हार स्वीकार कर ली और कहा कि अगर भाजपा हारती है तो उसकी जिम्मेदारी उनकी होगी, पार्टी आलाकमान की नहीं होगी। लेकिन उसके चंद मिनटों के बाद ही सारी तस्वीर बदल गई और भाजपा ने बड़ी जीत हासिल कर ली।हरियाणा में चुनाव नतीजों के बाद कहा गया कि पिछड़ी जाति के नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का मास्टरस्ट्रोक था, जिससे 36 फीसदी पिछड़ी जातियां एकजुट हो गईं और भाजपा जीत गई। यही तर्क महाराष्ट्र की आश्चर्यजनक जीत के पीछे भी दिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि भाजपा ने मराठा ध्रुवीकरण के मुकाबले पिछड़ी जातियों को एकजुट किया। इसके लिए सरकारी स्तर पर भी प्रयास किए गए और राजनीतिक स्तर पर भी। तभी करीब 38 फीसदी पिछड़ी जातियां भाजपा और उसके गठबंधन के पक्ष में एकजुट हो गईं।जीत के पीछे अगर यह कारक है तो यह एक बहुत बड़ी परिघटना है। इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिस राज्य में भी नब्बे के दशक में मंडल की राजनीति बहुत असरदार नहीं थी या जहां मंडल की राजनीति का विरोध था या जहां मंडल की राजनीति से बड़े नेता नहीं निकले या जहां ओबीसी की आबादी 50 फीसदी से कम है वहां भाजपा ओबीसी वोट की मुख्य हकदार बन गई है। उन राज्यों में कांग्रेस या विपक्ष का ओबीसी का दांव यानी जातिगत गणना कराने या आरक्षण बढ़ाने या ओबीसी का चेहरा आगे करने का दांव काम नहीं कर रहा है।ऐसा नहीं है कि यह परिघटना अनायास घटित हो रही है। भाजपा इसके लिए प्रयास भी कर रही है। उसने अलग अलग राज्यों में जातियों के बीच की फॉल्टलाइन को समझा है और मजबूत व दबंग जातियों के खिलाफ अपेक्षाकृत कमजोर जातियों को खड़ा किया है। यह समाज का विभाजन कराने वाली बात है लेकिन दुर्भाग्य से भारत की राजनीति ऐसे ही विभाजन पर फल फूल रही है। अगर हरियाणा की बात करें तो भाजपा ने वहां पहले दिन से गैर जाट राजनीति की।उसने 2014 में चुनाव जीतने के बाद पंजाबी समुदाय के मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया। इसकी प्रतिक्रिया में 2019 के चुनाव में जाट ध्रुवीकरण पूरी तरह से भूपेंदर सिंह हुड्डा के नाम पर कांग्रेस के साथ हो गया। इसे अवसर मान कर भाजपा ने 2024 में खट्टर को हटा दिया और पिछड़ी जाति के नायाब सिंह सैनी को सीएम बना दिया। इसमें भी भाजपा ने बड़ी होशियारी से गैर यादव पिछड़ी जाति का चेहरा आगे किया क्योंकि हरियाणा के इतिहास में अब तक उनका कोई सीएम नहीं बना था। सो, उसने अपेक्षाकृत कमजोर पिछड़ी जाति का नेतृत्व आगे करके एक नई जातीय अस्मिता को जन्म दिया। इसका फायदा उसको चुनाव में मिला।जब हरियाणा का चुनाव शुरू हुआ तब तक अनुसूचित जातियों के आरक्षण में वर्गीकरण का सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका था। भाजपा ने सरकारी स्तर पर इसे लागू करने का ऐलान तो नहीं किया लेकिन राजनीतिक स्तर पर इसे लागू कर दिया। उसने राज्य की एससी आरक्षित सीटों पर जाटव की बजाय अपेक्षाकृत कमजोर दलित जातियों के उम्मीदवार ज्यादा उतारे। दूसरी ओर जाटव वोट बांटने के लिए बहुजन समाज पार्टी व इनेलो और आजाद समाज पार्टी व जननायक जनता पार्टी का गठबंधन था। यह गठबंधन अपने आप बना या उसके पीछे कोई प्रबंधन था, वह अलग अटकल का विषय है। परंतु जाटव वोट बंटे और गैर जाटव वोट भाजपा के साथ जुड़े। इस तरह भाजपा ने सबसे मजबूत और दबंग जाटों को और दलितों में जाटवों को अलग थलग किया और कमजोर पिछड़ी जाति का सीएम बना कर उनके साथ कमजोर दलित समूहों को जोड़ा। जाट शाही की वापसी के हल्ले में 36 बिरादरी को भाजपा ने एक किया। चुनाव के बाद पहली कैबिनेट में जिस तरह से नायब सिंह सरकार ने अनुसूचित जाति के आरक्षण में वर्गीकरण का फैसला लागू किया उससे साफ हो गया कि चुनाव में कैसे उसने इस दांव का प्रयोग किया था।इसी तरह महाराष्ट्र में भाजपा ने मराठा आरक्षण का इस्तेमाल अपने हक में किया। असल में जिस मराठा आरक्षण को भाजपा के लिए खतरा माना जा रहा था उसने उसको अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया। भाजपा के समर्थन वाली एकनाथ शिंदे सरकार ने मराठाओं को ओबीसी कोटे में आरक्षण देने का फैसला किया, जिससे ओबीसी समूह नाराज हुए। इसका मकसद मराठा बनाम ओबीसी के विवाद को बढ़ाना था। दोनों के बीच पहले से फॉल्टलाइन थी, जिसे भाजपा ने और बड़ा कर दिया। यह एक जोखिम भरी रणनीति थी, लेकिन भाजपा को पता था कि वह इसे हैंडल कर सकती है। उसने मराठाओं और पिछड़ी जातियों का झगड़ा बढऩे दिया।राज्य की ओबीसी राजनीति के सबसे बड़े चेहरे छगन भुजबल को इस आग में घी डालने दिया गया। उन्होंने ओबीसी की रैलियां कराईं और उनको जाग्रत कर दिया। इसके बाद यह नैरेटिव सेट किया गया है कि मराठा वोट शरद पवार, उद्धव ठाकरे और कांग्रेस के साथ हैं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले खुद सबसे मजबूत पिछड़ी जाति कुनबी से आते हैं लेकिन वे भाजपा के इस नैरेटिव को काउंटर नहीं कर सके। भाजपा ने जैसे हरियाणा में जाट और मुस्लिम बनाम अन्य का माहौल बनाया उसी तरह महाराष्ट्र में मराठा और मुस्लिम बनाम अन्य का मुकाबला बना दिया। उसने इसके लिए बंटेंगे तो कटेंगेÓ का नारा भी चलने दिया और एक रहेंगे तो सेफ रहेंगेÓ का नारा भी चलने दिया और वोट जिहाद का नैरेटिव बिल्कुल नीचे तक जाने दिया। इससे ध्रुवीकरण कराने में उसको फायदा हुआ। राज्य में 20 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाली 38 सीटों में से भाजपा और उसके सहयोगियों ने 22 सीटें इसी रणनीति से जीतीं।ऐसा नहीं है कि भाजपा ने सिर्फ राजनीतिक रणनीति, नारे या नैरेटिव के स्तर पर खेल किया। उसने सरकारी स्तर पर भी इसके लिए बहुत प्रयास किए। सबसे पहले तो इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्वकर्मा सम्मान योजना का जिक्र किया जा सकता है। यह एक गेमचेंजर योजना है, जिसने बिल्कुल कमजोर और वंचित पिछड़ी जातियों को उनके पारंपरिक रोजगार में मदद की। अगर महाराष्ट्र की बात करें तो वहां राज्य सरकार ने करीब 20 उप निगम यानी सब कॉरपोरेशन बनाए, जिनके जरिए पिछड़ी जातियों के अंदर छोटी छोटी उपजातियों और समूहों की मदद करने का प्रयास किया गया। इसका फायदा यह हुआ कि इन उपजातियों और समूहों की अपनी अस्मिता सामने आई।सरकार ने संत कशीबा गुरव युवा फाइनेंस डेवलपमेंट कॉरपोरेशन बनाया, यह गुरव जाति के लिए था। लिंगायतों के लिए जगद्ज्योति महात्मा बासवेश्वर फाइनेंस डेवलपमेंट कॉरपोरेशन, नाभिकों के लिए संत सेनाजी केशशिल्पी फाइनेंस डेवलपमेंट कॉरपोरेशन, बारी समुदाय के लिए संत नरहरि महाराज फाइनेंस डेवलपमेंट कॉरपोरेशन और राष्ट्रसंत श्रीरूपलाल महाराज फाइनेंस डेवलपमेंट कॉरपोरेशन का गठन किया। यह सूची बहुत लंबी है। संक्षेप में इतना कहा जा सकता है कि लोनारी, तेली, हिंदू खटिक, लोहार, सिम्पी, गवली, गूजर, लेउवा पटेल, वानी, वादर, बेदार, गोंढारी, डोम्बारी, नाथपंथी आदि समुदायों के लिए फाइनेंस डेवलपमेंट कॉरपोरेशन का गठन किया गया। विदर्भ की 62 में से करीब 36 सीटों पर भाजपा का यह दांव बहुत काम आने वाला था।सो, कमजोर ओबीसी जातियों की पहचान करने, उन्हें मजबूत जातियों के खिलाफ खड़ा करने और उनके महापुरुषों के नाम से योजना शुरू करके या उप निगम बना करके उनकी अस्मिता को बड़ा करने का का दांव भाजपा ने बहुत कायदे से आजमाया। ध्यान रहे यह काम राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने बहुत बारीकी से उत्तर प्रदेश और कई अन्य राज्यों में किया है, जहां अनेक ऐसी जातियों की पार्टियां बन गई हैं और प्रभावी हो गई हैं, जो पहले बिल्कुल हाशिए में थीं। बहरहाल, महाराष्ट्र में हाशिए की इन जातियों को भाजपा ने मुख्यधारा में शामिल किया। इस तरह पारंपरिक अगड़ी और कट्टर हिंदू जातियों के साथ साथ उसने पिछड़ी जातियों की अस्मिता को उभार कर और उन्हें मजबूत जातियों के खिलाफ खड़ा करके सफलता हासिल की। यह काम भाजपा झारखंड में नहीं कर पाई। गैर आदिवासी राजनीति शुरू करने के बाद वह पीछे हट गई। इसका उसको नुकसान हुआ। इस पर कल विचार करेंगे।
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