मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
- 22-Oct-24 12:00 AM
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रजनीश कपूरमुझे अच्छे से याद है कि शायद ही कोई ऐसा स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्रता दिवस हुआ हो जब हमने सुबह सबसे पहले उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान की शहनाई न सुनी हो। लेकिन बीते कुछ वर्षों से जिस तरह एक विशेष धर्म और समाज को लेकर भेद-भाव फैलाया जा रहा है वह हमें सही दिशा में नहीं ले जा रहा। ज्निहित स्वार्थों के बहकावे में आए बिना हमें सदियों से चली आ रही गंगा-जमनी तहज़ीब का पालन करना चाहिए, जो हमारे देश की परंपरा रही है। क्योंकि मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।Ó मशहूर फि़ल्म निर्माता यश चोपड़ा द्वारा बनाई गई फि़ल्म वीर ज़ाराÓ में भारतीय वायु सेना के एक सैनिक और पाकिस्तानी महिला की प्रेम कथा को दर्शाया गया। इसी फि़ल्म के एक गाने में भारत का यह सैनिक अपनी प्रेमिका को भारत की खूबियाँ गिनाता है। परंतु आज हम जिस विषय को इस कॉलम में उठाएँगे वह हमारे देश की गंगा – जमुनी तहज़ीब की विशेषता पर आधारित है। बरसों से हमारा देश बिना किसी भेद-भाव के सभी धर्मों का सम्मान करते हुए एकजुटता से रहता आया है। परंतु सत्ता के लोभी, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, हमेशा से इस एकता के ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचते आए हैं। बिना इस बात का अंदाज़ा लगाए कि चुनावी राजनीति तो अस्थाई है जबकि आपसी मेल-मिलाप हमेशा से ही स्थाई रहा है।पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक ऐसी पोस्ट देखी जिसने इस लेख का विषय प्रेरित किया। हमारे देश के गौरव माने जाने वाले उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान और उस्ताद विलायत ख़ान की एक जुगलबंदी यूट्यूब पर देखी। इस जुगलबंदी में उस्ताद विलायत ख़ान का सितार और उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान की शहनाई जिस लोक गीत को बजा रहे थे वह ब्रज में गोपियों द्वारा माँ यशोदा को नंदगोपाल की शिकायत को दर्शाता है। गीत के बोल कुछ इस प्रकार हैं, मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रेÓ।इस जुगलबंदी को देख कर इस बात का जऱा भी एहसास नहीं होता कि मुस्लिम कलाकारों द्वारा गाए व बजाए गये इस लोक गीत में कोई भेदभाव है। ग़ौरतलब है कि यह लोक गीत बॉलीवुड की सुपर हिट फि़ल्म मुग़ल-ए-आज़मÓ से लिया गया है। उल्लेखनीय है कि इस गीत को बॉलीवुड के मशहूर गीतकार शकील बदायूनी ने लिखा है और इसका संगीत नौशाद द्वारा दिया गया है। यह फि़ल्म मुग़ल बादशाह अकबर के बेटे शहज़ादे सलीम और एक कनीज़ की प्रेम कहानी पर आधारित है।यदि आप यूट्यूब पर इस जुगलबंदी को खोजेंगे तो आप इस जुगलबंदी में दोनों कलाकारों द्वारा बजाए जाने वाले साज़ों की मधुर आवाज़ के साथ-साथ कलाकारों के चेहरे के भाव को अनदेखा नहीं कर सकते। ग़ौरतलब है कि मुग़ल-ए-आज़म फि़ल्म हो या कोई अन्य फि़ल्म, जब भी कभी किसी भी कलाकार को, बिना उसके धर्म के भेद-भाव किए जो भी किरदार दिया जाता है वह उसे बखूबी निभाता है।चूँकि फि़ल्में समाज का आईना मानी जाती हैं, वह अपनी अच्छी-बुरी कहानियों के द्वारा हमारे समाज में एक छाप छोड़ देती हैं। फिर वो चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक। आपको ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाएँगे जहां कलाकार बिना अपने धर्म की परवाह किए, दूसरे धर्म का किरदार बखूबी निभाते हुए नजऱ आएँगे। ऐसे किरदारों को निभाते हुए वह उस किरदार में इस कदर घुल-मिल जाते हैं कि आप उन्हें वास्तव में उस किरदार के नाम से ही पहचानने लग जाते हैं।कलाकार किसी भी धर्म और जाति के क्यों न हों वह अपने किरदार और उससे संबंधित गीत-संगीत में कभी भी भेद-भाव नहीं करते। बल्कि अक्सर ऐसा देखा गया है कि एक धर्म के कलाकार ने दूसरे धर्म के किरदार को इतना बढिय़ा निभाया है कि वह किरदार यदि उसी धर्म के किसी कलाकार द्वारा निभाया गया होता तो शायद इतना बेहतर ना होता। बॉलीवुड से जुड़े जितने भी लोगों से मेरा संपर्क हुआ है, उन सभी ने इस बात को स्पष्ट रूप से कहा है कि वे धर्म व जाति के आधार पर आपस में किसी भी तरह का भेद-भाव नहीं करते।यहाँ सवाल उठता है कि यदि फि़ल्म अभिनेता आपस में किसी धर्म या जाति विशेष को लेकर इतने संवेदनशील नहीं होते तो हमारा समाज किस आधार पर बट रहा है? क्या हमारे समाज में सदियों से चले आ रहे इस भेद-भाव के प्रति चेतना को केवल राजनैतिक मंशा से ही बढ़ावा दिया जा रहा है?और कुछ नहीं तो आप इस जुगलबंदी के वीडियो को देखें तो किस क़दर दोनों कलाकार जो कई अन्य धर्म के मानने वाले हैं वे भगवान श्री कृष्णा की बाललीलाओं का गायन पूरी निष्ठा और ईमानदारी से कर रहे हैं। इतना ही नहीं जुगलबंदी के समय वे एक दूसरे को पूरा सम्मान देते हुए ख़ुशी-ख़ुशी तारीफ़ भी करते हैं। जबकि बीते कुछ वर्षों से यह देखा गया है कि यदि कोई भी नौजवान अपने धर्म से इतर होकर दूसरे धर्म के लोगों का साथ देता है तो उसे सामाजिक कुरीतिओं का हवाला देते हुए पंथ-निकाला दिया जाता है। इतना ही नहीं उसकी फि़ल्मों को न देखने का ऐलान तक बड़े आक्रामक तरीक़े से भी किया जाता है। ऐसे में उसे न चाहते हुए, मजबूरी में अपने ही धर्म का साथ देना पड़ता है।मुझे अच्छे से याद है कि शायद ही कोई ऐसा स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्रता दिवस हुआ हो जब हमने सुबह सबसे पहले उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान की शहनाई न सुनी हो। लेकिन बीते कुछ वर्षों से जिस तरह एक विशेष धर्म और समाज को लेकर भेद-भाव फैलाया जा रहा है वह हमें सही दिशा में नहीं ले जा रहा। ऐसे में हम अपनी आने वाली पीढिय़ों को क्या समझा कर जाएँगे? यह एक अहम मुद्दा है। इसलिए निहित स्वार्थों के बहकावे में आए बिना हमें सदियों से चली आ रही गंगा-जमनी तहज़ीब का पालन करना चाहिए, जो हमारे देश की परंपरा रही है। क्योंकि मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।Ó
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