मीडिया सिर्फ सत्ता का भोंपू नहीं होता

  • 24-Jul-24 12:00 AM

सुधीश पचौरीएक बहस में एक प्रवक्ता एंकर से शिकायत करता है कि वह उसे बोलने से रोक रहा है क्योंकि वह (एंकर) भाजपावादी है..जबकि विपक्षी प्रवक्ता से एंकर ने सिर्फ इतना कहा था कि आप विषय पर बात करें, इधर उधर की बात न करें।एंकर भी क्या करे? वह बहस के शुरू में टॉपिक को इंट्रोड्यूसÓ करता है। फिर पक्ष विपक्ष के प्रवक्ताओं आदि को आमंत्रित करता है कि वे टॉपिक पर बात करें..लेकिन जब प्रवक्ता विषय से हटकर इधर उधर की बातें करने लगते हैं तो एंकर टोकने लगता है कि आप मुद्दे की बात करें..ऐसा सुनते ही कई प्रवक्ता एकदम फैल जाते हैं और एंकर पर आरोप लगाने लगते हैं कि तुम बिके हुए हो..ऐसी ही एक बहस में एक प्रवक्ता ने तो एंकर को यहां तक धमका दिया कि अब तो होश में आ जाओ कल को हम सत्ता में होंगे तो क्या करोगे?कई एंकर ऐसे नाजुक मौकों पर बड़ी शालीनता से जवाब देते हैं कि हमारा चैनल किसी का पक्षपाती नहीं, न हम किसी के दलाल हैं, हम जनता के पक्षधर हैं, सभी तरह के विचारों को दिखाते हैं, जब आप इधर उधर करते हैं तो हमें टोकना पडता है और ऐसा हम सबके साथ करते हैं..अरसे से बहसों को देखता आ रहा यह टिप्पणीकार इस बात का गवाह है कि जब से विभाजनकारी राजनीतिÓ बढ़ी है तब से कई प्रवक्ताओं का रोष एंकरों और चैनलों पर निकलता है..ऐसे में बताइए एंकर क्या करे? वह अपना शोÓ चलाए या ऐसे धमकीवादी प्रवक्ताओं की धौंसपट्टी को माने?ऐसे हर मौके पर कई एंकर बिना उत्तेजित हुए जवाब देते हैं कि आप एक बड़े दल के प्रवक्ता हैं। आप को धमकी की भाषा शोभा नहीं देती। जरूरत होने पर हम सबको टोकते हैं। अगर आप मुद्दे पर तर्क- वितर्क नहीं कर सकते तो बताइए। हम कैसे न टोकें..आखिर,और भी कई लोग हैं जिनको अपनी बात कहनी है..।आप ही इस तरह से अगर सारा टाइम खराब करेंगे तो मुझे आपके माइक को साइलेंट करना पड़ेगा। स्पष्ट है कि यह सब मीडिया को अपने दबाव में लाने, उसे धमकाने, उस पर हावी होने की राजनीति है जो पिछले दिनों काफी बढ़ी है। चैनलों का काम है कि हर दिन या उसके आसपास के विवादित मुद्दों पर चरचा कराएं ताकि जनता अधिक जागरूक बने। यही उनका काम है जिसे वे मेहनत से करते हैं. दरअसल, जब से हमारी राजनीति अधिकाधिक नफरतभरीÓ और कलहभरीÓ होती गई है तब से चैनल भी ऐसी बाइटों, ऐसे टॉपिकों पर बहस कराते हैं जो लोगों की जुबान पर होते हैं। लेकिन कई प्रवक्ता पूरी तैयारी से नहीं आते जबकि एंकर की अपेक्षा होती है कि वो बोलें तो मुद्दे पर तकरेÓ और तथ्योंÓ के साथ बोलें। ऐसा करने से उनके दल का तो मान बढ़ेगा ही, आम दर्शकों के दिलों में उनका भी सम्मान बढ़ेगा।फिर भी, ऐसे कई प्रवक्ता ऐसा करने की जगह अपने मुद्दोंÓ को ही बहस का मुद्दा बनाने पर तुल जाते हैं और वही बोलते चले जाते हैं जो रटÓ के आए होते हैं। कई प्रवक्ता ऐसे भी हैं जो मुद्दा कोई हो अपनी शिकायत का पिटारा खोलकर बैठ जाते हैं कि आप उन्हीं मुददों को उठाते हैं जो सत्ता के पक्ष में होते हैं, आप जनहित के मुद्दों पर बहस नहीं कराते। और कई तो ऐसे भी होते हैं जो टाइम खत्म हो जाने पर भी बोलते-बड़बड़ाते रहते हैं ताकि दूसरे को जबाव देने का टाइम ही न मिले। यह तरकीब कई दलों की नई रणनीति का हिस्सा है:चाहे मुद्दा बाढ़ का हो या रेल दुर्घटना का, वे अपने ही एजेंडे को बार-बार रिपीट करते रहते हैं। और जब से 2024 के लोक सभा चुनाव हुए हैं तब से विपक्ष एक नये आकामक तेवर के साथ पेश होता है जबकि सत्ता पक्ष अपने ही बड़बोलेपन का शिकार होकर हतप्रभÓ नजर आता है।इसी तरह, कुछ विपक्षी प्रवक्ता अधिक हावी नजर आते हैं जबकि सत्ता-प्रवक्ता चुनावी पिटाई से अभी तक नहीं उबरे हैं। समझना होगा कि मीडिया किसी का पूरा चमचाÓ नहीं होता। जनतंत्र का ऐसा चौथा पायाÓ होता है जो कभी-कभी सत्ता को आईना दिखा सकता है क्योंकि उसे जनता के प्रति भी वफादार होना होता है। इसलिए वह कभी-कभी ऐसे सुर भी लगा देता है जो जन हित के होते हैं। यों चोम्स्की मानते हैं कि मीडिया सहमति (कंसेट) को बनाने वाला होता है लेकिन हमारा अनुभव है कि सहमतिÓ बनाने के साथ-साथ वह असहमतिÓ भी बनाता है क्योंकि मीडिया की भाषा एकार्थÓ की जगह जनता के बीच अनेकार्थÓ बनाने की गुंजाइश छोड़ती है। इसलिए मीडिया सिर्फ सत्ता का भोंपू हमेशा नहीं होता, बल्कि कभी-कभी जनता का भी भौंपूÓ बन जाता है।




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