मुकम्मल जीत की संज्ञा नहीं दी जा सकती

  • 07-Jun-24 12:00 AM

नवल किशोर कुमारआखिरकार, मतगणना पूर्व सारी कयासबाजियों को खारिज कर कांग्रेस ने एक तरह से भाजपा के मुकाबले जीत हासिल कर ली है। हालांकि और बेशक, इसे मुकम्मल जीत की संज्ञा नहीं दी जा सकती है।भाजपा के करीब 232-236 सीटों के मुकाबले उसे 105 सीटें मिलने के आसार हैं। यदि हम इंडिया गठबंधन के लिहाज से देखें तो पूरे गठबंधन को देश भर में बहुमत के जादुई आंकड़े से कम या फिर इसके बिल्कुल करीब 260-65 सीटें मिल सकती हैं, और अब यह तय हो गया है कि देश में मोदी राज का एक तरह से अंत हो सकता है। लेकिन यह तभी मुमकिन होगा यदि कांग्रेस अपने साथ जदयू जैसे राजनीतिक दलों को साथ मिलाए, जिसने बिहार में 12 सीटें जीत कर अपना महत्त्व एनडीए और इंडिया गठबंधन, दोनों के लिए एक समान रखा है। अब सरकार किसकी बनेगी, इसका दरोमदार बहुत हद तक नीतीश कुमार के रुख पर निर्भर करता है।यदि हम अभी सरकार के गठन पर विचार न करें और केवल इस बात पर फोकस करें कि कांग्रेस को मिली यह जीत उसके लिए कितना मायने रखती है तो हम मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को सहज तरीके से समझ सकते हैं। इसके साथ ही हमें कांग्रेस की जीत पर नये सिरे से विचार करना होगा कि आखिर, उसे यह जीत मिली है, कैसे मिली है, और अब उसके सामने किस तरह की चुनौतियां आने वाली हैं। सबसे पहले तो यह कि कांग्रेस को मिली यह जीत केवल उसकी जीत नहीं है, बल्कि इसमें उसके सहयोगी दलों की भी अहम भूमिका रही है। खासकर उत्तर भारत में उसकी जीत मुमकिन नहीं होती यदि उसे सहयोगी दलों का सहयोग प्राप्त नहीं होता।मसलन, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 7 सीटें मिलने के आसार हैं, और उसके मुख्य सहयोगी दल समाजवादी पार्टी को अप्रत्याशित तरीके से 36 सीटों पर जीत मिल सकती है। हालांकि बिहार में कांग्रेस और उसके सहयोगी घटक दल वह प्रदर्शन नहीं पाए हैं, जो उत्तर प्रदेश में उन्होंने कर दिखाया।उसकी मुख्य सहयोगी राजद स्वयं 5 सीटों के अंदर सिमट गई है तो कांग्रेस को भी वहां राजद जैसे सहयोगियों के साथ होने से 2 सीटें मिलने के आसार हैं। लेकिन झारखंड में भी कांग्रेस को यदि 2 सीटें मिलने के आसार हैं, तो इसकी मुख्य वजह झारखंड मुक्ति मोर्चा है, जिसे 3 सीटें मिल सकती हैं। ऐसे ही मध्य भारत विशेषकर महाराष्ट्र में कांग्रेस को मिली जीत के पीछे एनसीपी (शरद पवार गुट) और शिवसेना (उद्धव ठाकरे) गुट की भूमिका है।अलबत्ता, हम यह कह सकते हैं कि राजस्थान छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को मिली जीत उसकी अपनी जीत है। ऐसे ही दक्षिण भारत में उसे मिली कामयाबी का श्रेय कांग्रेस को अकेले नहीं दिया जा सकता है। यह साफ है कि कांग्रेस को मिली यह ऐतिहासिक कामयाबी के पीछे इंडिया गठबंधन का होना है, जिसने दस साल से चली आ रही नरेन्द्र मोदी हुकूमत को लगभग उखाड़ फेंका है। ऐसे में अब यह कांग्रेस की जिम्मेदारी है कि वह इस इंडिया गठबंधन की एकता को बनाए रखे और अब जो सरकार बनेगी, उसमें वह अपने घटक दलों को समुचित सम्मान दे। इसके अलावा, उसे यह सनद रहना चाहिए कि इंडिया गठबंधन ऐसे राजनीतिक दलों का समूह है जो विचारधारा के स्तर पर मौलिक रूप से एक नहीं हैं। इस कारण भी कांग्रेस की चुनौतियां निश्चित रूप से बढऩे वाली हैं। हालांकि वर्ष 2004 में यूपीए-1 के दौरान भी इस तरह का माहौल था, तब कांग्रेस ने डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर अपने सहयोगियों की एकता को मजबूत किया था। जाहिर तौर पर प्रधानमंत्री कौन बनेगा, बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करेगा।नई सरकार का नेतृत्व के अलावा कांग्रेस के सामने अब जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह अपने वायदों को पूरा करने की है। इन वायदों में सामाजिक न्याय को लेकर किए गए वायदे हैं, जिसे उसने अपने घोषणापत्र में प्रथम स्थान दिया था। इसके मुताबिक उसे देश में जातिगत जनगणना करवाने की घोषणा अति शीघ्र करनी होगी, क्योंकि मोदी सरकार ने 2021 में होने वाली सामान्य जनगणना पर भी रोक लगा रखी थी।इसके अलावा, कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण पर 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा को समाप्त करने की बात कही थी, तो इसके लिए भी उसे पहलकदमी करनी होगी। और ये दोनों काम इतने आसान नहीं हैं क्योंकि जातिगत जनगणना को लेकर कांग्रेस के अंदरखाने में ही विषम आवाजें तब भी सुनाई दे रही थीं, जब वह जीत के लिए संघषर्रत थी। ऐसे में उसे अपने अंदर उठने वाली आवाजों से भी टकराना होगा। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने चुनावी सभाओं में जनसंख्या के अनुपात में समानुपातिक हिस्सेदारी का सवाल बार-बार उठाया था। अब जब कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनना तय हो गया है तो उसे अब यह सत्य करके दिखाना होगा। लेकिन वह सरकारी तंत्र, जिस पर अब भी सामान्य वर्ग के लोगों का कब्जा अधिक है, क्या इसके लिए तैयार होगा? इसके लिए उसे नीतियां बनाने से लेकर न्यायालयों तक का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा, उसे यह नहीं भूलना होगा कि अगर भाजपा विपक्ष में बैठी तो वह कमजोर नहीं होगी।निस्संदेह यदि कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार का गठन होता है तो उसके समक्ष अब पूर्ववर्ती सरकार के द्वारा उठाए गए हिन्दुत्ववादी कदमों को वापस लेने की जिम्मेदारी होगी। मसलन, यदि हम अकादमिक जगत का ही उदाहरण लें तो उसे पूर्ववर्ती मोदी सरकार द्वारा पाठ्यक्रमों में किए गए बदलावों को खारिज करना होगा। लेकिन यह सब किसी जादुई छड़ी के घुमाने मात्र से नहीं होगा। इसके लिए अगली सरकार को कड़े फैसले लेने होंगे।कांग्रेस के समक्ष देश की अर्थव्यवस्था को संभालने की भी जिम्मेदारी है, क्योंकि इससे तो कतई इंकार नहीं किया जा सकता है कि पूर्ववर्ती मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण आम आदमी के हितों को नुकसान पहुंचा। अब उसे ठीक करने और अर्थव्यवस्था को पटरी लाने की जिम्मेदारी कांग्रेसनीत सरकार की होगी।कुल मिलाकर यह कि कांग्रेस को मिली यह जीत सिर कांटों से भरे ताज के समान है, जिसे न केवल उसे पहनना पड़ेगा, बल्कि देश के समक्ष जो चुनौतियां वर्तमान में हैं, उनसे भी निबटना होगा। गठबंधन धर्म की मुश्किलें उसे अलग से आएंगी। अब इसमें वह कितनी सफल होगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। फिलहाल तो यह कहा ही जा सकता है कि कांग्रेस ने अपने सहयेगी दलों के साथ मिलकर एक इतिहास रचा है। यह एक ऐसी जीत है, जिसकी तुलना हम जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को मिली जीत से नहीं कर सकते, क्योंकि अतीत में कांग्रेस देश की मुख्य ताकत थी और वर्तमान में वह सिर्फ एक गठबंधन की मुखिया है, जिसे उसके घटक दलों के बल पर जीत हासिल हुई है।




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