विज्ञापन कंबल की दर्शनीय टांगें

  • 20-Jun-24 12:00 AM

सोनम लववंशीबरसों पहले अखबार में छपे एक विज्ञापन को देख कर जुमला कहा गया था विज्ञापन कंबल की दर्शनीय टांगें, दुकानदार से जाकर हम क्या मांगें!Ó आज भी यह बात हर विज्ञापन पर सटीक बैठती है।बाजारवाद के इस दौर में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसका विज्ञापन न किया जाता हो। विज्ञापन बनाने वाली कंपनियां इतनी चालाकी से अपने प्रोडक्ट की नुमाइश करती हैं कि न चाहते हुए भी वो प्रोडक्ट हमारे लिए जरूरी से लगने लगते हैं। यहां तक कि झूठे और भ्रामक विज्ञापनों से भी कोई गुरेज नहीं करतीं, लेकिन बीते दिनों पतंजलि के भ्रामक विज्ञापनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रवैया अपनाया।इसके बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय हरकत में आया और विज्ञापन कंपनियों को स्वप्रमाणन-पत्र जारी करने के निर्देश दिए। ऐसे में अगर कंपनियों के प्रोडक्ट में किए गए दावे गलत निकलते हैं, तो न केवल हर्जाना चुकाना होगा, बल्कि कार्रवाई के लिए भी तैयार रहने की बात कही गई है। मंत्रालय द्वारा ऐसे पोर्टल भी तैयार किए जा रहे हैं, जिनमें विज्ञापनदाता स्वप्रमाणन-पत्र अपलोड करेंगे। भ्रामक विज्ञापनों में शामिल चर्चित हस्तियों को भी झूठ में शामिल माना जाएगा। अदालत के सख्त रुख के बाद देर से ही सही पर संबंधित मंत्रालय और व्यवस्थाएं जाग रही हैं वरना तो भ्रामक विज्ञापनों की ऐसी होड़ सी मची हुई है कि स्वयं कामदेव भी दंडवत हो जाए।गोरापन बढ़ाने वाली क्रीम तो बीते 54 सालों से भ्रामक विज्ञापनों के सहारे ही बिकती आई हैं। इन क्रीमों से गोरापन भले न मिला हो पर कंपनी को 2400 करोड़ रु पये सालाना का रेवेन्यू जरूर मिल रहा है। ऐसा ही हाल पेय पदार्थों को लेकर है जिनका मार्किट 7500 करोड़ रुपये के पार पहुंच गया है जबकि सॉफ्ट ड्रिंक का मार्किट 5700 करोड़ होने का अनुमान है। विडंबना देखिए कि जिन पेय पदाथरे को स्वास्थ्यवर्धक बता कर धड़ल्ले से बेचा जा रहा है, वही बीमारियों की वजह बन रहे हैं। जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाली कंपनियों को तो सिर्फ अपना मुनाफा कमाना है जबकि आम जनता लुभावने विज्ञापनों के जाल में उलझी है।वैसे भी कहावत है कि अगर एक झूठ को 100 बार बोला जाए तो जनता उसे सच मान ही लेती है। यही वजह है कि सड़क से लेकर दीवार तक ऐसा कोई कोना नहीं है, जहां विज्ञापन न चस्पा हो। सुई से लेकर हवाई जहाज तक हर चीज का विज्ञापन दिखाया जाता है। समाचार चैनलों पर तो खबर से ज्यादा विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। इन विज्ञापनों में इस हद तक अश्लीलता परोसी जाने लगी है कि परिवार के साथ बैठकर टेलीविजन देखना भी दूभर सा हो गया है। न्यूज चैनलों के बीच कॉन्डम का विज्ञापन देखकर लगता है जैसे कोई पोर्न चैनल देख रहे हों। परफ्यूम के विज्ञापन तो ऐसे होते हैं मानो रेप कल्चर को बढ़ावा दे रहे हों। कुल मिला कर देखा जाए तो महिलाओं को विज्ञापन के केंद्र में रखकर नारी देह को अश्लील तरीके से परोसा जा रहा है। विज्ञापनों में महिलाओं को कामुक दिखाने का चलन इस कदर बढ़ गया है जैसे नारी सिर्फ उपभोग की वस्तु हो!कहने को तो हमारे देश में अश्लील प्रदर्शन के विरु द्ध कानूनी प्रावधान हैं, फिर भी उनकी खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती हैं। कोर्ट ने भ्रामक विज्ञापनों पर तो चाबुक चला दी पर विज्ञापनों के माध्यम से परोसी जा रही अश्लीलता को भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए। सच है कि वर्तमान दौर में विज्ञापन हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं, बदलते परिवेश में विज्ञापनों का रंग-रूप भी बदल गया है। एक दूसरे से बेहतर दिखने-दिखाने की चाह में विज्ञापनों में अश्लीलता का ऐसा दौर शुरू हो गया जिसकी कल्पना नहीं की गई थी।किसी के पास इन सवालों के कोई जवाब नहीं हैं कि ये विज्ञापन नारी देहÓ पर ही क्यों केंद्रित होते हैं? आखिर, एक स्त्री किसी पुरुष के अंडरवियर या परफ्यूम पर ही सम्मोहित कैसे हो सकती है? ऐसी क्या वजह है जो उत्पाद की बिक्री बढ़ाने के लिए महिलाओं के अंग प्रदर्शन और झूठ का सहारा लिया जाता है। विज्ञापन कंपनियां महिलाओं को उपभोग की वस्तु दिखाने से क्यों गुरेज नहीं करतीं? ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या जिस स्त्री स्वरूप की हमारी संस्कृति में देवी से तुलना की गई है, वो अब इसी की हकदार बची है?प्रेम और सेक्स कभी भी एक समान नहीं हो सकते और प्रेम और सेक्स को कभी समानांतर आंका भी नहीं जा सकता। लेकिन, विज्ञापनों ने उल्टी गंगा बहाना शुरू कर दिया। उनका एक ही मकसद है, स्त्रियों के कामोत्तेजक हाव-भाव और सम्मोहक अंदाज के जरिए पुरुष दर्शकों को आकर्षित करना। लेकिन, हम पैसे बनाने और किसी ब्रांड को चमकाने के लिए स्त्री की क्या छवि गढ़ रहे हैं? सवाल उस नायिका का भी है, जो ऐसे विज्ञापनों में काम भी सिर्फ पैसे की खातिर कर लेती है। समाज में महिलाओं की स्वच्छ छवि विज्ञापनों के माध्यम से दिखानी होगी। कंपनियों को अपने प्रोडक्ट की गुणवत्ता बढ़ानी होगी ताकि झूठे प्रचार की आवश्यकता ही न पड़े। महिलाओं को भी आगे बढ़कर उन विज्ञापनों का विरोध करना होगा जिनमें महिलाओं की छवि को धूमिल किया जा रहा है। भ्रामक विज्ञापनों के मायाजाल को तोडऩा होगा ताकि इनके सम्मोहन से आम जनता को बचाया जा सके।




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