व्यंग्य: पोक वाली डिजिटल थपकी
- 04-May-25 12:00 AM
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विवेक रंजन श्रीवास्तव एक जमाना था जब लोग मिलते एक-दूसरे को राम राम, नमस्ते करके अभिवादन करते थे। फिर फोन आया , मोबाइल आया, तो कॉल करके हालचाल पूछ लेने का रिवाज बना । व्हाट्सएप आया, तो हाय और गुड मॉर्निंग की फूलों वाली तस्वीरें चलने लगीं। लेकिन जब फेसबुक ने पोकÓ और पोक बैक के बटन बना दिया, तो हम संवेदन शील लोगों को हल्का झटका लगा।—पोक। के मैसेज मिलते ही चुभन सी होती है। जैसे कोई आपके कंधे पर उंगली से टोक रहा हो: ओ भई, मैं भी हूं यहाँ! और जब आप पोक बैक कर दें, तो यह संवाद का चरमोत्कर्ष माना जाता है। कोई शब्द नहीं, कोई भावना नहीं—बस डिजिटल उंगली की संवेदना हीन चुभन।भारत में पोक को लेकर बहुत भ्रम की स्थिति है। हमारे यहाँ उंगली उठाने की परंपरा बहुत संवेदनशील मानी जाती है। किसी ठीक ठाक चलते काम में उंगली करना अच्छा नहीं माना जाता । कोई किसी को असल में उंगली से पोक कर दे, तो बात थाने तक पहुंच सकती है। लेकिन फेसबुक पर यही काम प्यारा इशारा बन जाता है।अब गाँव के चाचा ने जब फेसबुक चलाना सीखा और गलती से किसी बुआ जी को पोक कर दिया, तो पूरा खानदान चिंता में पड़ गया। चाची ने चाचा को पकड़कर पूछा, पोक का मतलब क्या होता है? चाचा बेचारे बोले, मुझे लगा घंटी जैसी कोई चीज़ है। बजा दी।पढ़े लिखे युवाओं और शहरों में पोक का इस्तेमाल कुछ अलग ही लेवल पर होता है। कुछ लोग इसे इंविटेशन टू कन्वर्सेशन मानते हैं, तो कुछ लोग डिजिटल फ्लर्टिंग का माध्यम। लेकिन अगर गलती से किसी ने अपने बॉस को पोक कर दिया, तो समझ लीजिए, अगली मीटिंग में आपको पोक-पोक करके ही निकाला जाएगा। लोक भाषा में पोक शब्द का अर्थ लीक करने वाला होता है, जब इंक पैन उपयोग होते थे और उनकी स्याही लीक हो जाती थी तो जेब का धब्बा छिपाते हुए पेन के पोक देने पर गुस्सा आता था। कोई गोपनीय वार्ता कहीं लीक हो जाती थी तो उस शख्स को ढूंढा जाता था जिसने जानकारी पोक दी होती थी।भारत में पोक और पोक बैक एक ऐसी परंपरा बन गई है, जिसे लोग करते तो हैं, लेकिन समझते कम ही हैं । यह एक ऐसा संवाद है, जिसमें संवाद नहीं होता। एक ऐसा स्पर्श है, जिसमें छूने की अनुमति नहीं। और एक ऐसा मज़ाक है, जिस पर कोई खुलकर हँसकर नहीं पाता।जरूरी है कि फेसबुक के इस पोक-बोक के खेल को भारतीय संदर्भ में थोड़ा सुधारा जाए। नाम बदलकर हल्की सी टोक, डिजिटल धक्का, या फिर कंधे पर प्यार की थप्पी, खटखटाओ, रख दिया जाए। ताकि भारतीय उपयोगकर्ता इसे दिल से समझें और हँसते-हँसते स्वीकार करें, वरना अगली बार जब दादी जी को कोई पोक करेगा, तो वो पूछेंगी, बेटा ये कौन सा रोग है? डॉक्टर को दिखाऊँ क्या?क्या आप कभी पोक हुए हैं , आज के डिजिटल जीवन में?
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