स्लम बस्तियां : क्या बदल सकेगी किस्मत
- 03-Apr-24 12:00 AM
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अमित बैजनाथ गर्गअदानी ग्रुप को एशिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती मुंबई की धारावी के रि-डवलपमेंट की अनुमति मिलने के बाद स्लम बस्तियां फिर चर्चा में आ गई हैं। असल में स्लम बस्तियां भारत ही नहीं, बल्कि समूची दुनिया के लिए समस्या बनी हुई हैं। दुनिया की एक चौथाई शहरी आबादी स्लम बस्तियों में रहती है। आने वाले 10 वर्षो में भारत की 50 प्रतिशत आबादी नगरों में रहने लगेगी। देश की वर्तमान आबादी का 28 प्रतिशत हिस्सा शहरों में रहता है। शहरी आबादी में होने वाली बेतहाशा वृद्धि का सीधा प्रभाव आवासन पर पड़ेगा जिससे आने वाले वर्षो में मलिन बस्तियों में रहने वाली आबादी में तीव्र वृद्धि होगी।एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 2,613 शहरों में स्लम एरिया हैं, जहां बहुत बड़ी आबादी इन बस्तियों में रहती है। इनमें से 57 फीसद तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र से आती है। दिल्ली दुनिया का छठा सबसे बड़ा महानगर है। इसके बावजूद यहां एक तिहाई आवास स्लम क्षेत्र के हिस्से हैं। इस हिस्से में कोई बुनियादी संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। हाल में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हर छठा शहरी नागरिक स्लम बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है।आंकड़े बताते हैं कि जहां आंध्र प्रदेश में हर तीसरा शहरी परिवार मलिन बस्तियों में रहता है, वहीं ओडिशा में हर 10 घर में से नौ में जल निकासी की सुविधा नहीं है। शहरों की चकाचौंध दुनिया का हिस्सा होने के बावजूद इन बस्तियों में रहने वाले लोग आज भी अंधेरे में हैं। गंदी बस्तियों में रहने वाले विकसित समाज, राजनीतिक गलियारों और प्रशासन की बेरुखी के शिकार हैं। असल में स्लम क्षेत्र का आशय सार्वजनिक भूमि पर अवैध शहरी बस्तियों से है। आम तौर पर यह एक निश्चित अवधि के दौरान निरंतर एवं अनियमित तरीके से विकसित होता है। स्लम को शहरीकरण का अभिन्न अंग माना जाता है और शहरी क्षेत्र में समग्र सामाजिक-आर्थिक नीतियों एवं योजनाओं के क्रियान्वयन के रूप में देखा जाता है।स्लम एरिया में साक्षरता दर कम है। हालांकि धारावी में साक्षरता दर 69 प्रतिशत है। आंध्र प्रदेश में शहरी आबादी का 36.1 प्रतिशत हिस्सा मलिन बस्तियों में रहता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, ओडिशा की मलिन बस्तियों में रहने वाले 64.1 प्रतिशत घरों में अब तक पीने का स्वच्छ पानी नहीं पहुंच पाया है। इन बस्तियों के 90 प्रतिशत घरों से जल निकासी का कोई प्रबंध नहीं है।नेशनल सर्विस स्कीम राउंड के सर्वेक्षण के अनुसार, देश की 81 प्रतिशत आबादी अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करती है। कोविड लॉकडाउन के लागू होने से झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वालों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित हुई थी। इस दौरान दिल्ली में भारी संख्या में रिवर्स माइग्रेशन देखा गया जब हजारों प्रवासी कामगार अपने गृह नगर वापस चले गए। इस दौरान कोई 70 प्रतिशत स्लम निवासी बेरोजगार हो गए, 10 प्रतिशत की मजदूरी में कटौती हुई और आठ प्रतिशत पर इसके अन्य प्रभाव देखे गए।इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एन्वायरनमेंट एंड पॉल्यूशन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, स्लम बस्तियों से होने वाले प्रदूषण के कारण एशिया में मौसम के पैटर्न में बदलाव आ रहा है। एक ओर हवा की रफ्तार में वृद्धि हो रही है, तो दूसरी ओर बारिश में भी कमी आ रही है। क्लाइमेट मॉडल्स इस बात के संकेत दे चुके हैं कि स्थानीय स्तर पर प्रदूषण चक्रवाती तूफान बनने और उनके बढ़ाव को प्रभावित कर सकता है। भारत के पूर्वी तट पर कई बड़े शहर हैं, जो नियमित रूप से हर वर्ष अक्टूबर-दिसम्बर के बीच इन तूफानों से प्रभावित होते हैं। इन शहरों की झुग्गी-बस्तियों में लाखों लोग खाना पकाने के लिए ईधन के रूप में लकड़ी का उपयोग करते हैं, जिससे बड़ी मात्रा में बायोमास कण उत्पन्न होते हैं, जो हवा में मिल जाते हैं। ये प्रदूषित कण, जो काफी समय तक रासायनिक रूप से शहरों में वायु के भीतर रहते हैं, बादलों में क्लाउड कंडेनसेशन न्यूक्लियर की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं।असल में सरकारी योजनाओं के लाभ अभीष्ट लाभार्थियों के छोटे से हिस्से तक ही पहुंच पाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि इन बस्तियों को सरकार की ओर से आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी जाती। उचित सामाजिक सुरक्षा उपायों का अभाव भी देखा गया है और यहां निवासियों में रोग प्रतिरोधक क्षमता पर प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार शहरी नियोजन और प्रभावी शासन के लिए नया दृष्टिकोण समय की आवश्यकता है। टिकाऊ, मजबूत और समावेशी बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए आवश्यक कार्रवाई करना जरूरी है। स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों को बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें ऊपर से नीचे के दृष्टिकोण को अपनाने की जरूरत है। स्लम बस्तियों की समस्याओं के समाधान के लिए सभी को मिल कर काम करना होगा वरना हालात को बदला नहीं जा सकेगा।
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