आम जन को न्याय पाने में ज्यादा हलकान होना पड़ता है

  • 10-Aug-24 12:00 AM

भारत के प्रधानमंत्री जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने दोटूक कहा है कि लोग अदालतों से इतने तंगÓ आ गए हैं कि वे बस समझौता चाहते हैं। वे कहते हैं कि बस, अदालत से दूर करा दीजिए। जस्टिस चंद्रचूड़ विशेष लोक अदालत सप्ताह के दौरान शनिवार को एक कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्र के रूप में लोक अदालतों की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि लोगों में इस प्रकार की भावना उभरना बतौर जज हम लोगों के लिए गहन चिंता का विषय है। बेशक, लोगों का अदालती मामलों से त्रस्त होकर छुटकारा पाने उत्कट इच्छा न्याय व्यवस्था के लिए कोई अच्छी बात नहीं है।इससे संदेश यह निकलता है कि व्यवस्था लोगों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही है। और इसलिए उन्हें मजबूरी में मामलों में समझौता करने की राह चुनना बेहतर लगता है। समझौता कोई न्याय नहीं है, बल्कि मजबूरी में किया गया उपाय है, जो समाज में पहले से मौजूद असमानताओं को ही दर्शाता है। जैसा कि प्रधान न्यायाधीश ने भी इंगित किया है कि यह स्थिति अपने आप में सजा है।लोक अदालत की अवधारणा इस स्थिति से निजात दिलाती हैं जहां आपसी समझौते और सहमति से मामलों को सुलटाया जाता है और कोई भी अपने आप को मजबूर या न्याय से वंचित हुआ नहीं पाता। लोक अदालत से मामले का निस्तारण होने पर फैसले के खिलाफ अपील नहीं की जा सकती। सबसे अच्छी बात यह है कि फैसला परस्पर सहमति के आधार पर किया जाता है। कहना न होगा कि तमाम मामले ऐसे होते हैं, जिन्हें आपसी सहमति से सुलझाया सकता है।सबसे बड़ा तो यह कि लोक अदालत के माध्यम से न्याय दिया जाना अदालतों पर मुकदमों के भार को कम करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम है। यहां फैसला किसी भी रूप में थोपा हुआ करार नहीं दिया जा सकता। इसलिए जरूरी है कि लोक अदालत की अवधारणा को संस्था के रूप मजबूत किया जाए। न्याय की पहुंच आम नागरिकों तक सुनिश्चित करने की बात हमारे संविधान में निहित है, लेकिन नौबत यह है कि आम जन न्याय पाने की बजाय हलकान ज्यादा हो जाता है।यह स्थिति लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती। जिस समाज में आम जन को न्याय पाने में हलकान होना पड़ जाए उसे किसी भी सूरत में अभीष्ट या आदर्श समाज नहीं कहा जा सकता। लोक अदालत सार्थक हैं क्योंकि इनका उद्देश्य ही लोगों के घरों तक न्याय पहुंचाना है।




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