इजराइल को दूरगामी नुकसान हुआ है

  • 04-Dec-23 12:00 AM

सत्येन्द्र रंजनदुनिया ने आवाक होकर इस भयानक नजारे को देखा और फिर उसका विरोध एवं उस पर गुस्सा कई रूपों में व्यक्त हुआ। नतीजतन, दुनिया की निगाह में आम तौर पर पूरे पश्चिम- और विशेष रूप से अमेरिका और इजराइल का अख़लाक पूरी तरह चूक गया है। चूंकि इजराइल और हमास एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं, इसलिए मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि उनमें एक को हुआ नुकसान दूसरे का लाभ है।इजराइल और फिलस्तीन के बीच 47 दिन तक चली लड़ाई के बाद मानवीय आधार पर हमले रोकनेÓ के लिए हुए समझौते का श्रेय अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने लिया। अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने दावा किया कि यह समझौता कराने में बाइडेन की प्रमुख भूमिका रही। तो प्रश्न है कि सात अक्टूबर को इजराइल पर हमास के हमलों के बाद से युद्धविराम का लगातार विरोध करते रहे बाइडेन आखिर ऐसी भूमिका क्यों अपनाई?साफ तौर पर इसलिए कि इजराइल की बर्बर कार्रवाइयां अमेरिकी राष्ट्रपति को भारी पडऩे लगी थीं। हमास के हमलों के बाद इजराइल के प्रति पश्चिमी देशों के एक बड़े हिस्से में सहानुभूति पैदा हुई थी। लेकिन उसके बाद प्रतिशोध की भावना के साथ इजराइल ने जिस तरह अस्पतालों, शरणार्थी शिविरों, स्कूलों आदि को निशाना बनाया और उनमें जिस बड़ी संख्या में निहत्थे लोग- शिशु, बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग मारे जाने लगे, उससे सहानुभूति की तुलना में कई गुना ज्यादा गुस्सा और विरोध भाव भी उन देशों में फैलने लगा। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने इन इजराइली कार्रवाइयों को युद्ध अपराध बताया। ये धारणा आम हो चली कि इजराइल यह सब इसलिए कर पा रहा है, क्योंकि बाइडेन प्रशासन और अन्य पश्चिमी देशों का हाथ उसकी पीठ पर है।अक्टूबर खत्म-खत्म होते बदलती जन धारणा बाइडेन और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी को भारी पडऩे लगी। खुद पश्चिमी मीडिया में ऐसी खबरों की भरमार हो गई। मसलन,तीन नवंबर को टीवी चैनल सीएनएन ने खबर दी कि जो बाइडेन और उनके प्रमुख सलाहकार अब इजराइल को चेतावनी दे रहे हैं कि गजा में मानवीय पीड़ा बढऩे के साथ दुनिया भर में फैल रहे विरोध भाव के बीच अब इजराइल के लिए अपने सैनिक मकसदों को हासिल करना अधिक कठिन होता जा रहा है। 15 नवंबर को रॉयटर्स ने खबर दी कि हमास के खिलाफ इजराइली युद्ध के लिए अमेरिका में जन समर्थन घट रहा है। ज्यादातर अमेरिकियों की राय है कि यह युद्ध एक मानवीय संकट में तब्दील हो गया है, इसलिए इजराइल को युद्धविराम लागू करना चाहिए। 19 नवंबर को प्रकाशित हुए टीवी चैनल एनबीसी के जनमत सर्वेक्षण में बताया गया कि (राष्ट्रपति बनने के बाद से) जो बाइडेन के काम से संतुष्ट लोगों की संख्या अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। मतदाताओं का बड़ा बहुमत उनकी विदेश नीति और इजराइल-हमास युद्ध के प्रति उनकी नीति से असंतुष्ट है। इजराइल के अखबार यरुशलम पोस्ट में 23 नवंबर को छपे एक विश्लेषण में कहा गया- इजराइल भले युद्ध के मैदान में जीत रहा हो, लेकिन यह मीडिया में हार रहा है। मीडिया इजराइल की विनाशकारी बमबारी और बच्चों सहित फिलस्तीनी नागरिकों के हताहत होने की नाटकीय तस्वीरों से भरा भड़ा है।ज् बाइडेन ने इजराइल को जो अभूतपूर्व समर्थन दिया, उसकी इजराइल एवं उनके यहूदी वोटरों ने खूब तारीफ की। लेकिन इससे डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक कई तबकों- खासकर प्रगतिशील नेताओं ने कड़ी आलोचना की है।Ó दरअसल, इजराइल को अंध-समर्थन की बाइडेन की नीति ने खुद उनके प्रशासन के अंदर फूट पैदा कर दी। उधर विभिन्न देशों से मिल रही प्रतिक्रिया से प्रशासन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इस नीति के कारण दुनिया की जन धारणा में उसे स्थायी किस्म का नुकसान हो रहा है। चूंकि शुरुआत से ही वह इजराइली हमलों को आत्म रक्षा की कार्रवाई बताते हुए बार-बार यह कह चुका था कि जब तक हमास का खात्मा नहीं होता, युद्धविराम की जरूरत नहीं है, ऐसे में चेहरा बचाने के लिए उसने मानवीय आधार पर युद्ध रोकने का जुमला गढ़ा।लेकिन फिलहाल आम अनुमान यही है कि अब बंधकों की अदला-बदली के लिए लड़ाई रोकने का फैसला दीर्घकालिक कदम साबित हो है। यानी युद्धविराम की अवधि आगे बढ़ सकती है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र के मानवीय सहायता मामलों के उप महासचिव मार्टिन ग्रिफिथ ने कहा है कि लड़ाई का सबसे बुरा दौर गुजर गया है। मानवीय सहायता क्षेत्र में दशकों तक काम करने का अनुभव रखने वाले ग्रिफिथ ने अपनी इस बात पर जोर डालते हुए कहा- ऐसा मैं हलके अंदाज में नहीं कह रहा हूं।Óऊपर हमने यरुशलम पोस्ट में छपे जिस आलेख का हवाला दिया है, उसमें युद्ध के मैदान पर इजराइल जीत का उल्लेख है। लेकिन यह दावा विवादास्पद है। किसी युद्ध में किसी देश की जीत या नाकामी को सैनिक कार्रवाई के घोषित उद्देश्य के पैमाने पर मापा जाता है। इस लड़ाई में इजराइल ने अपना जो मकसद घोषित किया, उसे हासिल करना असंभव था। और इसलिए ऐसा हो भी नहीं पाया है। यह मकसद हमास का खात्मा है। लेकिन किसी संगठन को, जो एक मकसद के लिए लड़ रहा हो और किसी क्षेत्र में एक विचार के रूप स्थापित हो गया हो, उसका जड़-मूल से नाश करना असंभव होता है। अगर गजा के सभी लोगों की हत्या कर दी जाए, तब भी हमास के समर्थक, और स्वतंत्र फिलस्तीनी राज्य की स्थापना को अपना मकसद मानने वाले लोग दूसरे क्षेत्रों या यहां तक कि अन्य देशों में भी जीवित बने रहेंगे। साथ ही उसे इस मकसद के लिए कार्यकर्ता मिलते रहेंगे। इसलिए जब तक मकसद बाकी रहता है, इस तरह के संगठन जब-तब, जहां-तहां से पनपते रहते हैँ।फिलहाल, बात अगर हमास और फिलस्तीन तक सीमित रखें और लड़ाई रुकने के पहले तक का लेखा-जोखा लें, तो यह देखना अहम होगा कि सात अक्टूबर के बाद से चले घटनाक्रम में लाभ-हानि की गणना किसके पक्ष में है। चूंकि इस दौर में पहला वार हमास ने किया, इसलिए पहले उसके नजरिए से इस गणना पर ध्यान देते है:सात अक्टूबर को हमास ने भारी जोखिम उठाया। उसकी बहुत महंगी कीमत गजा और पश्चिमी किनारे की फिलस्तीनी आबादी और यहां तक कि लेबनान स्थित फिलस्तीन समर्थक समहों को चुकानी पड़ी है। उसके हमलों के बाद इजराइल ने बदले की जो बेलगाम कार्रवाई की, उसमें 13 हजार से अधिक लोग मारे गए। उनमें नौ हजार बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग हैं। मकानों और बुनियादी ढांचे को जो नुकसान हुआ, उसका आकलन अभी होना बाकी है।




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