उच्च शिक्षा में भी बदलाव जरूरी

  • 25-Apr-24 12:00 AM

प्रमोद भार्गवराष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पुस्तकों में पढ़ाए जाने वाले भारत के इतिहास में आर्य अब आक्रामणकारी नहीं, बल्कि भारतीय मूल के रूप में दर्शाए गए हैं।21 वर्ष की खींचतान और दुनिया भर में हुए अध्ययनों के बाद तय हो गया कि आर्य सभ्यताÓ भारतीय ही थी। राखीगढ़ी के उत्खनन से निकले इस सच को देश के पाठ्यक्रमों में शामिल करने का श्रेय राखीगढ़ीमैनÓ के नाम से प्रसिद्ध प्राध्यापक वसंत शिंदे को जाता है। एनसीईआरटी की कक्षा 12 की किताब में बदलाव किया गया है। इतिहास की पुस्तक में ईट, मोती और हड्डियां : हड़प्पा सभ्यताÓ पाठ में आर्यों को मूल भारतीय बताया गया है। कक्षा 7, 8, 10 व 11 की इतिहास व समाजशास्त्र की पुस्तकों में भी बदलाव किया गया है।इतिहास तथ्य और घटना के सत्य पर आधारित होता है, इसलिए इसकी साहित्य की तरह व्याख्या संभव नहीं है। विचारधारा के चश्मे से इतिहास को देखना उसके मूल से खिलवाड़ है परंतु अब आर्यों के भारतीय होने संबंधी एक के बाद एक शोध आने के बाद इतिहास बदला जाने लगा है। इस सिलसिले में पहला शोध स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के टॉमस कीवी शील्ड ने किया था।2003 में अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्सÓ में प्रकाशित इस शोध-पत्र में सबसे पुरानी जाति और जनजाति के वंशाणु (जीन) के आधार पर आर्यों को भारत का मूल निवासी बताया गया था। हालांकि 2009 में वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. लालजी सिंह और प्रो. थंगराज ने भी आनुवांशिक परीक्षण के बाद आयरे को मूल भारतीय बताया था। 2019 में प्रो. वसंत शिंदे द्वारा राखीगढ़ी उत्खनन से मिले 4000 साल पुराने वंशाणु की जांच में सबसे बड़ा सच सामने आया। शोध में पाया गया कि राखीगढ़ी से मिला जीन वर्तमान के प्रत्येक भारतीय व्यक्ति में उपलब्ध है। एनसीआरईटी की इतिहास पाठ्यक्रम निर्धारण समिति के अध्यक्ष बनने पर प्रो. शिंदे ने इस तथ्य के आधार पर पाठ्यक्रम में संशोधन कराए हैं।इसी पुस्तक में मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के नाम के साथ छत्रपति और महाराज जोड़ा गया है। कक्षा 12वीं के समाजशास्त्र विषय के पाठ्यक्रम से सांप्रदायिक दंगों के चित्र हटाए गए हैं। इतिहास की पुस्तकों में यह बदलाव सिनौली-राखीगढ़ी में हुए उत्खननों में मिले साक्ष्यों के आधार पर संभव हुआ है। गोया, अब यह अवधारणा पलट गई है कि आर्य न तो विदेशी थे और न ही उन्होंने भारत पर आक्रमण किया।हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी में पुरातत्वीय खुदाई में 5000 साल पुराने मिले दो मानव कंकालों के डीएनए अध्ययन के निष्कर्ष से यह धारणा सामने आई है। इन कंकालों में एक पुरुष और एक स्त्री का था। इनके कई नमूने लेकर उनका आनुवांशिक अध्ययन पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, भारत सरकार, डेक्कन विश्वविद्यालय पुणे, सीसीएमबी, हैदराबाद और हार्वड स्कूल ऑफ मेडिसन बोस्टन, यूएसए ने किया है।डीएनए विश्लेशण में यह भी स्पष्ट हो गया है कि आर्य और द्रविड़ मूल भारतीय हैं। आर्य हमलावर के रूप में विदेश से आए होते और नरसंहार किया होता तो मानव कंकालों के शरीर पर घावों के निशान होते। भारतीय संस्कृति और भाषाएं नष्ट हो गई होतीं। ऐसा होता तो आक्रमण की बात सिद्ध होती। व्यापार, पर्यटन आदि के लिए भारत में विदेशी आते रहे और भारतीय भी विदेश जाते रहे, इन कारणों से जीन में मिलावट होती रही हैं। प्रो. शिंदे ने राखीगढ़ी के उत्खनन के समय बताया था कि अलग-अलग खुदाई में 106 से भी ज्यादा नर-कंकाल मिले। भिन्न आकार-आकृति के हवन-कुंड और कोयले के अवशेष भी मिले हैं। तय है कि भारत में 5000 साल पहले हवन होते थे। यहीं सरस्वती और इसकी सहायक दृश्यवंती नदी के किनारे हड़प्पा सभ्यता के निशान मिले हैं। ये लोग सरस्वती की पूजा करते थे। आनुवांशिक अनुसंधान ऐतिहासिक-अवधारणाओं को बदलने के ये आधार बने हैं। आर्योंÓ के ऊपर आनुवांशिकीÓ के आधार पर पहले भी एक शोध सामने आया है। उससे तय हुआ है कि भारतीयों की कोशिकाओं का जो आनुवांशिकी ढांचा है, वह बहुत पुराना है।डीएनए के आधार पर एक महत्त्वपूर्ण खोज से साबित हुआ है कि भारत के बहुसंख्यक लोगों के दक्षिण भारतीय दो आदिवासी समुदाय पूर्वज हैं। गंगा घाटी से आयरलैंड तक की भाषाएं आर्य परिवार की आर्य भाषाएं हैं। इसी कारण इन भाषाओं में लिपि एवं उच्चारण की भिन्नता होने के बावजूद अपभ्रंशी समरूपता है और इन भाषाओं का उद्गम स्रोत संस्कृत है।बंगाली इतिहासकार एसी दास इस स्थान अथवा मूल भारतीयों का निवास स्थल सप्त सिंधुÓ मानते हैं, जो पंजाब में था। अब आर्यों के मूल भारतीय होने की अवधारणा को मान्यता मिल रही है। तब इतिहास के इस तथ्य के बदलाव को केवल शालेय पुस्तकों में परिवर्तन तक सीमित न रखते हुए उच्च शिक्षा में भी बदलाव जरूरी हैं।




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