उत्पीडऩ झेला, बलिदान हुए सभी को याद किया जाए

  • 27-Jul-24 12:00 AM

अवधेश कुमारजून 25 यानी आपातकाल लगाने की तिथि को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने की नरेन्द्र मोदी सरकार की घोषणा पर आ रही प्रतिक्रियाओं में कुछ तो स्वाभाविक हैं किंतु कुछ आश्चर्य में भी डालने वाली हैं।कांग्रेस पार्टी इसके विरुद्ध अलग-अलग प्रकार का तर्क दे तो समझ में आता है लेकिन जिन नेताओं और पार्टयिों ने आपातकाल के विरु द्ध संघर्ष किया, जिनमें से कई की पहचान आपातकाल विरोधी संघर्ष से ही बनी वो भी खुलकर आपातकाल की आलोचना के लिए तैयार नहीं है। ऐसा वातावरण बना है मानो आपातकाल के विरुद्ध केवल भाजपा हो और बाकी उसे सही मान लिया हो।जब कांग्रेस सहित ज्यादातर विपक्ष भाजपा संविधान खत्म कर देगी तथा संविधान बचाओ संविधान बचाओ को राजनीति और चुनाव का बड़ा मुद्दा बनाते हैं तो भाजपा के लिए इसका प्रभावी प्रत्युत्तर देना स्वाभाविक है। सब जानते हैं कि देश के वर्तमान ढांचे में संविधान को खत्म कर देना या उसका गला घोंट देना और पूरी राजनीतिक प्रशासनिक ढांचे को आमूल रूप से बदल देना संभव नहीं है। यह झूठ चुनाव में मुद्दा बना तथा एक बड़े वर्ग तक पहुंचा। संविधान खत्म होने के साथ ही आरक्षण खत्म करने की भी बात थी और दोनों एक दूसरे से सन्नद्ध थे।प्रधानमंत्री मोदी की नीति-अटैक इज द बेस्ट डिफेंस यानी आक्रमण सबसे बड़ा बचाव है-रही है। इस बार के चुनाव में संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा को रक्षात्मक या बचाव की मुद्रा में ज्यादातर समय रहना पड़ा। भाजपा मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को समझाने में सफल नहीं रही कि विपक्ष गलत मुद्दा बना रहा है। चुनाव परिणाम के बाद निश्चय ही इस पर विचार हुआ है। ध्यान रखिए की 25 जून को सरकारी कार्यक्रम भले आज घोषित किया गया हो किंतु हर वर्ष देश भर में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो आपातकाल के काले अध्याय को याद करते हुए कार्यक्रम रखते हैं।आज सपा इस मामले पर खामोश है या प्रश्न उठा रही है किंतु स्वयं मुलायम सिंह यादव आपातकाल विरोधी कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री रहते हुए भी शामिल होते रहे। वर्तमान राजनीति का बड़ा संकट आंदोलनकारियों, संघर्ष से आगे आने वालों और वास्तविक एक्टिविस्टों की संख्या न के बराबर होना है जिस कारण ज्यादातर नेताओं जनप्रतिनिधियों को इसका पता ही नहीं कि 25 जून और 5 जून को याद करने और संकल्प लेने के कार्यक्रम देश में लगातार होते हैं। निश्चित रूप से इस मामले में भाजपा की रणनीति यही है कि आम लोग समझ लें कि संविधान खत्म करने की कोशिश किसने की।25 जून,1975 को आपातकाल भी संविधान की धारा 352 के तहत लगाअगर किसी काल में संविधान व्यवहार में खत्म था तो वह आपातकाल का दौर ही था। यद्यपि 25 जून,1975 को आपातकाल भी संविधान की धारा 352 के तहत ही लगा था। आपातकाल लगने के बाद व्यवहार में सारी शक्तियां एक व्यक्ति यानी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी में निहित हो गई थीं। संविधान संशोधन कर ऐसी स्थिति बना दी गई थी कि प्रधानमंत्री के फैसले में उच्चतम न्यायालय भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। नागरिकों के मौलिक अधिकार खत्म थे तथा प्रेस को बगैर सेंसरशिप अधिकारी की अनुमति के एक शब्द भी छापने की अनुमति नहीं थी।भारत में वह समाचार चैनलों का दौर नहीं था। समाचार, विचार और अन्य सूचनाओं के मुख्य स्रेत समाचार पत्र-पत्रिकाएं थीं। सरकारी टेलीविजन दूरदर्शन तथा आकाशवाणी के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं। प्रधानमंत्री कार्यालय संजय गांधी के निवास या फिर सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ला के आवास एवं कार्यालय से ही उसका संचालन होता था। समाचार छापने के पहले सेंसरशिप अधिकारी को भेजा जाता था जो बताता था कि किस समाचार में क्या बदलना है, कितना छाप सकते हैं। संविधान की हत्या या संविधान खत्म करने का इससे बड़े कदम भारत में उसके पूर्व न कभी उठा और न बाद में ऐसी कोशिश हुई। इस तरह आपातकाल में संविधान खत्म करने की बात सच है लेकिन वर्तमान समय में संविधान खत्म करने का खतरा दिखाना सरासर झूठ।वैसे जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता में आने के बाद आंतरिक आपातकाल लगाने का प्रावधान संविधान से लगभग खत्म कर दिया। यह प्रचार भी झूठ है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा एक व्यक्ति के शासन की स्थिति संविधान परिवर्तन कर ला सकती है।एक बार आपातकाल लगाने का परिणाम देश भुगत चुका है और स्वयं कांग्रेस पार्टी भी चुनाव में बुरी तरह पराजित हुई। देखा जाए तो जनता पार्टी की अंतर्कलह के कारण 1980 में अवश्य कांग्रेस लौटी और 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति में राजीव गांधी को अपार बहुमत मिला किंतु उसके बाद से कांग्रेस कभी भी बहुमत की अवस्था में नहीं पहुंच सकी। सभी नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए यह सबक है। इसलिए कोई इस तरह संवैधानिक शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए निरंकुशता स्थापित करने का दुस्साहस नहीं करेगा। वर्षो बाद संविधान हत्या दिवस मनाने की प्रासंगिकता और उपयोगिता पर भी प्रश्न उठाए जा रहे हैं।निस्संदेह, आपातकाल के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार या उसके बाद जो भी गैर-कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई उसने ऐसा निर्णय नहीं किया। किसी ने नहीं किया इसलिए आगे वैसा नहीं किया जाए इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके पहले संविधान खत्म कर देने का इस तरह का दुष्प्रचार भी भारतीय राजनीति में कभी नहीं हुआ। कांग्रेस पार्टी के रणनीतिकारों को सोचना चाहिए कि हम ऐसा आरोप लगाएंगे तो निश्चित रूप में अपने गिरेबान में झांकने के लिए तथ्यों के साथ प्रतिहमला किया जाएगा। आपातकाल लगाने का यह 50वां वर्ष है। 50 वर्ष वह अवसर होता है जब हम उस घटना को लेकर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विचार करते हैं, उससे सीख लेते हैं, प्रेरणा लेते हैं, और उससे जुड़े व्यक्तियों को उनकी भूमिका के अनुरूप याद करते हैं।इसलिए 25 जून के आपातकाल दिवस को सरकारी स्तर पर आयोजित होते रहने में समस्या नहीं है। आवश्यक है कि इससे संबंधित सभी पहलुओं को जगह-जगह से सामने लाया जाए। उन सभी लोगों को याद किया जाए जिन्होंने आपातकाल का उत्पीडऩ झेला, बलिदान हुए, जिनके करियर नष्ट हुए। आपातकाल के विरु द्ध संघर्ष को याद करना हमेशा देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा संपूर्ण व्यवस्था के व्यवहार की दृष्टि से सचेतक हो सकता है।




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