कांग्रेस को कार्यशैली बदलने की जरुरत

  • 06-Jan-25 12:00 AM

अजीत द्विवेदीनए साल 2025 को कांग्रेस ने संगठन में बदलाव और मजबूती वाला साल कहा है। कर्नाटक के बेलगावी में 26 दिसंबर को आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की विशेष बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने कहा कि नए साल में कांग्रेस संगठन में बदलाव करेगी और उसे मजबूत बनाने के लिए काम करेगी। इसका एक प्रत्यक्ष अर्थ तो यह दिखाई देता है कि कांग्रेस अध्यक्ष को कहीं न कहीं इस बात का अंदाजा है कि कांग्रेस का संगठन मजबूत नहीं है और लगातार हो रही चुनावी हार के पीछे यह एक कारण है। अगर देश की मुख्य विपक्षी पार्टी संगठन को मजबूत करने के लिए काम करती है तो यह लोकतंत्र के लिए भी अच्छा होगा।परंतु सवाल है कि कांग्रेस अध्यक्ष ने किस तरह के बदलाव की बात की और संगठन को मजबूत करने के लिए किस तरह की पहल की योजना उनके पास है? यह सवाल इसलिए है क्योंकि संगठन में बदलाव का शाब्दिक अर्थ तो यह है कि नए चेहरे लाना और नए लोगों को जिम्मेदारी देना। लेकिन कांग्रेस संगठन की समस्या यह नहीं है। सिर्फ चेहरे बदल देने से कांग्रेस के संगठन में मजबूती नहीं आने वाली है। मजबूती के लिए चेहरों के साथ साथ पूरी कार्यशैली को बदलने की जरुरत होगी। क्या कांग्रेस उसके लिए तैयार है?अगर शाब्दिक अर्थों में कांग्रेस के संगठन में बदलाव की बात करें तो वह भी बहुत जरूरी है क्योंकि मोटे तौर पर कांग्रेस का संगठन, खासकर प्रदेशों में बहुत कमजोर है या है ही नहीं। यह सचमुच हैरान करने वाली बात है कि कई राज्यों में कांग्रेस का संगठन ही नहीं है। जैसे ओडिशा में छह महीने से कांग्रेस कमेटी नहीं है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बेहद खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जुलाई में ओडिशा की प्रदेश कमेटी भंग कर दी थी। इसके तीन महीने बाद छत्तीसगढ़ कांग्रेस विधायक दल के नेता चरणदास महंत की अध्यक्षता में ओडिशा में कांग्रेस नेतृत्व व संगठन की मजबूती के बारे में सुझाव देने के लिए एक कमेटी बनी थी। अभी तक उसकी रिपोर्ट नहीं आई है।सो, छह महीने से ओडिशा में संगठन नहीं है। इसी तरह नवंबर के पहले हफ्ते में यानी दो महीने पहले हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी को भंग कर दिया गया। पार्टी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने आदेश जारी किया और प्रदेश से लेकर जिला व प्रखंड स्तर तक की सारी कमेटियां भंग कर दी गईं। इसके एक महीने बाद यानी दिसंबर में उत्तर प्रदेश में प्रदेश से लेकर जिला व प्रखंड तक की कमेटियां भंग कर दी गईं।विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद महाराष्ट्र व हरियाणा में भी प्रदेश कांग्रेस कमेटी भंग करने की बात चली है। इतना ही नहीं बिहार में करीब दो साल से प्रदेश कमेटी का गठन ही नहीं हुआ है। सितंबर में शुभंकर सरकार पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष बने लेकिन उनकी भी कमेटी नहीं बन पाई है। झारखंड में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अध्यक्ष बने केशव महतो कमलेश भी अपनी कमेटी नहीं बना पाए हैं। सो, बदलाव का एक मतलब तो यह है कि जिन राज्यों में संगठन भंग कर दिया गया है वहां नए अध्यक्ष की नियुक्ति हो और प्रदेश से लेकर जिला व प्रखंड स्तर तक कांग्रेस कमेटियों का गठन हो।दूसरा मतलब यह है कि जिन राज्यों में अध्यक्ष बन गए हैं लेकिन महीनों से उनकी कमेटियों का गठन नहीं हो पाया है वहां नई कमेटियों का गठन किया जाए और तीसरा अर्थ यह है कि जिन राज्यों में कांग्रेस हाल में हारी है वहां अगर बदलाव करना है तो वह जल्दी हो ताकि पार्टी का संगठन काम शुरू कर सके। कुछ राज्यों में कांग्रेस को संगठन के साथ साथ और भी फैसले करने हैं। जैसे कांग्रेस ने हरियाणा और महाराष्ट्र में विधायक दल के नेता का नाम तय नहीं किया है। सोचें, पार्टी चुनाव हार गई या अनुकूल फैसला नहीं आया तो विधायक दल का नेता ही तय नहीं करेंगे?अगर बदलाव के शाब्दिक अर्थ से अलग हट कर देखेंगे तो कांग्रेस को संगठन की मजबूती के लिए बहुत कुछ करना है। सिर्फ नए अध्यक्ष बना देने या नई कमेटियों का गठन कर देने से कांग्रेस का काम नहीं चलने वाला है। उसे संगठन की कार्यशैली में आमूलचूल बदलाव की जरुरत है। मल्लिकार्जुन खडग़े ने बेलगावी अधिवेशन में इसी तरफ इशारा किया। लेकिन क्या वे इस तरह का बदलाव करने में सक्षम हैं? क्या कांग्रेस अध्यक्ष खडग़े और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी कांग्रेस के पुराने और मजबूत नेताओं को नाराज करने का जोखिम लेकर संगठन को नया स्वरूप दे सकते हैं? असल में कांग्रेस सत्तारूढ़ दल की कार्य संस्कृति के दुष्चक्र में फंस गई है, जिसे प्रतीकित करने वाले सूत्र वाक्य कांग्रेस की एक महिला नेत्री ने कहा था, जो अब पार्टी छोड़ कर चली गई हैं।उन्होंने कहा था कि, कांग्रेस सत्ता में रहती है या सत्ता के इंतजार में रहती हैÓ। यही कारण है कि कांग्रेस कभी विपक्ष की पार्टी के तौर पर प्रभावी तरीके से काम नहीं कर पाती है। केंद्र से लेकर प्रदेश और जिला स्तर तक के नेता यह मानते हैं कि सत्ता उनका अधिकार है और अभी जो लोग सत्ता में हैं उनको राज करना नहीं आता है। वे अपनी गलतियों के चलते सत्ता से विदा हो जाएंगे और तब कांग्रेस को सत्ता मिल जाएगी। इस मानसिकता की वजह से कांग्रेस अपने संगठन को सड़क पर उतर कर सत्तापक्ष से लडऩे वाली मजबूती नहीं दे पाती है।संगठन के मामले में कांग्रेस की दूसरी कमजोरी यह है कि उसके शीर्ष नेताओं का पार्टी के कार्यकर्ताओं और प्रदेश, जिला व प्रखंड स्तर के पदाधिकारियों से संवाद खत्म हो गया है। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व, प्रदेश की रिपोर्ट सिर्फ प्रभारी महासचिव से लेता है और ज्यादा से ज्यादा प्रदेश अध्यक्ष से बात करता है। कहने का आशय यह है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपने आइवरी टावर में बंद है, जहां तक पार्टी कार्यकर्ताओं, नेताओं, पदाधिकारियों की आवाज नहीं पहुंच पाती है।राहुल गांधी का सब्जी मंडी जाना, मोटर गैरेज में जाना या ट्रक ड्राइवरों से मिलना, राजनीति नहीं है, बल्कि राजनीतिक सक्रियता का दिखावा है, प्रदर्शन है। असल में यह भारतीय राजनीति की बहुत बड़ी समस्या है कि राजनीति अब एक प्रदर्शन कला में बदल गई है। यह परफॉर्मिंग आर्ट में तब्दील हो गई है। सच्ची राजनीति परदे के पीछे होती है, जिसमें मूल तत्व विचार विमर्श, संवाद, मोलभाव, समझौते और समस्याओं को सुलझाने की सामूहिक कोशिशें शामिल होती हैं, उसकी जगह सार्वजनिक स्पेस में नेताओं की परफॉरमेंस ने ले ली है। कांग्रेस इस समस्या से ज्यादा ग्रस्त है। इसका नतीजा यह हुआ है कि राहुल गांधी कहीं किसानों, मजदूरों, ऑटो वालों आदि से मिल कर ग्रैंड परफॉरमेंस कर देते हैं और समझा जाता है कि कांग्रेस का जमीनी कनेक्ट का काम पूरा हो गया, जबकि इससे असल में कुछ नहीं होता है।कांग्रेस को जनता से कनेक्ट और संवाद का पुराना तरीका विकसित करना होगा। पार्टी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की बात शीर्ष नेताओं को सुननी होगी। एक जमाना था, जब कांग्रेस के संगठन महासचिव चाहे वह ऑस्कर फर्नांडीज हों या जनार्दन द्विवेदी वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय में बैठते थे। पार्टी के नेता सहज रूप से उनसे मिल सकते थे। उनकी बातें सुनी जाती थी और उनकी फीडबैक के आधार पर पार्टी फैसले करती थी। यह सही है कि अहमद पटेल लोगों से नहीं मिलते थे लेकिन वे कांग्रेस अध्यक्ष के सलाहकार थे, संगठन महासचिव नहीं थे। अब जिन पर राहुल गांधी को सबसे ज्यादा भरोसा है वे बनाए गए हैं संगठन महासचिव लेकिन रंग ढंग अहमद पटेल वाले हैं। इसका नतीजा यह है कि मल्लिकार्जुन खडग़े, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा और केसी वेणुगोपाल आम कांग्रेसी की पहुंच से बहुत दूर हो गए हैं। ये लोग महासचिवों की बात सुनते हैं और महासचिव वही बात सुनाते हैं, जिसमें उनका अपना कुछ फायदा निहित हो। इस कार्य संस्कृति में बदलाव करके ही कांग्रेस पार्टी संगठन को मजबूत कर सकेगी। अन्यथा इनकी जगह उनको प्रदेश अध्यक्ष और इनकी जगह उनको महासचिव बना देने से कांग्रेस का कुछ भी भला नहीं होने वाला है।




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