गर्मी जल्दी आई साथ में प्यास भी गहराई

  • 11-May-24 12:00 AM

पंकज चतुर्वेदीइस बार गर्मी जल्दी आई और साथ में प्यास भी गहराई। केंद्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी हर घर जल योजनाÓ ने बढ़ते ताप के सामने दम तोड़ दिया।आखिर, धरती का सीना चीर कर गहराई से पानी उलीचने से हर एक का कंठ तर होने से तो रहा। वैसे हकीकत तो यह है कि अब देश के 32 फीसद हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता- बारहों महीने, तीसों दिन जेठ ही रहता है।कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले, दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था।समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है-तालाब, कुएं, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढिय़ों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी ओर काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। तभी बीते तीन दशक में केंद्र और राज्य की अनेक योजनाओं के तहत तालाबों से गाद निकालने, उन्हें सहेजने के नाम पर अफरात पैसा खर्च किया गया और नतीजा रहा वही ढाक के तीन पात!Óभारत के हर हिस्से में वैदिक काल से लेकर ब्रितानी हुकूमत के पहले तक सभी कालखंडों में समाज द्वारा अपनी देश-काल-परिस्थिति के मुताबिक बनाई गई जल संरचनाओं और जल पण्रालियों के कई प्रमाण मिलते हैं, जिनमें तालाब हर जगह हैं। रेगिस्तान में तो उन तालाबों को सागर की उपमा दे दी गई तो कन्नड में कैरे और तमिल में ऐरी। यहां तक कि ऋग्वेद में भी सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता है।हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो (ईसा से 3000 से 1500 साल पूर्व) में जलापूर्ति और मल निकासी की बेहतरीन पण्रालियों के अवशेष मिले हैं। ईसा से 321-297 साल पहले, कौटिल्य का अर्थशास्त्र बानगी है जो बताता है कि तालाबों को राज्य की जमीन पर बनाया जाता था। समाज ही तालाब गढऩे का सामान जुटाता था। जो लोग इस काम में असहयोग करते या तालाब की पाल को नुकसान पहुंचाते उन्हें राज्य-दंड मिलता। आधुनिक तंत्र की कोई भी जल संरचना 50-60 साल में दम तोड़ रही है जबकि चंदेलकाल अर्थात 1200 साल से अधिक पुराने तालाब आज भी लोगों को जिंदगी का भरोसा दिए हुए हैं।अंग्रेज शासक चकित थे, यहां के तालाबों की उत्तम व्यवस्था देख कर। उन दिनों कुओं के अलावा तालाब ही पेयजल और सिंचाई के साधन हुआ करते थे। फिर आधुनिकता की आंधी में सरकार और समाज, दोनों ने तालाबों को लगभग बिसरा दिया, जब आंख खुली तब बहुत देर हो चुकी थी। एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते-ऐवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता। इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था।लेकिन आज गांव या शहर के रुतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है-न भरेगा पानी, न रह जाएगा तालाब। गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कालोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं। राजस्थान में उदयपुर से ले कर जैसलमेर तक, हैदराबाद में हुसैनसागर, हरियाणा में दिल्ली से सटी सुल्तानपुर लेक या फिर उप्र के चरखारी और झांसी हों या फिर तमिलनाडु की पुलिकट झील; सभी जगह एक ही कहानी है। हां, पात्र अलग-अलग हो सकते हैं।सभी जगह पारंपरिक जल-प्रबंधन के नष्ट होने का खमियाजा भुगतने और अपने किए या फिर अपनी निष्क्रियता पर पछतावा करने वाले लोग एक समान ही हैं। समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्रोतों कुओं, बावडिय़ों और तालाबों में गाद होने की बात करते हैं, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदा नीरा रहने वाली बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया। एक तरफ प्यास से बेहाल होकर अपने घर-गांव छोड़ते लोगों की हकीकत है, तो दूसरी ओर पानी का अकूत भंडार! यदि जल संकटग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है।




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