
जजों की सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति पर उठने वाले सवाल पर संसद की स्थाई समिति का विचार-विमर्श शुरू
- 24-Jun-25 12:00 AM
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नई दिल्ली,24 जून (आरएनएस)। संसद की विधि एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति ने न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता और सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्तियों पर विचार-विमर्श शुरू किया है. इसी संबंध में आज संसद परिसर में एक बैठक भी बुलाई गई है. हालांकि यह मुद्दा विवादास्पद है, क्योंकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह न्यायपालिका की निष्पक्षता को प्रभावित कर सकता है. बावजूद संसद की विधि एवं न्याय संबंधी स्थाई समिति ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के लिए एक औपचारिक आचार संहिता और उनकी सेवानिवृत्ति के बाद संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों पर विचार-विमर्श शुरू किया है.1997 में एक गैर-बाध्यकारी दिशानिर्देश था, अब इसे कानूनी रूप देने की कोशिश हो रही है. यह सुधार न्यायपालिका की साख बढ़ा सकता है, लेकिन इसके प्रभाव पर अभी बहस जारी है. संसद की विधि एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के लिए एक औपचारिक आचार संहिता और उनकी सेवानिवृत्ति के बाद संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों पर विचार-विमर्श शुरू किया है. यह कदम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए उठाया गया है, जो हाल के वर्षों में विवादों के केंद्र में रहा है.बीजेपी सांसद ब्रिज लाल ने इस मुद्दे पर अन्य नेताओं के साथ कई बैठक भी की है. वह स्थाई समिति की अध्यक्षता कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि समिति का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि न्यायपालिका की गरिमा बनी रहे और यह धारणा न बने कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों को पुरस्कार के रूप में पद दिए जाते हैं.उन्होंने बताया कि इस चर्चा में विधि मंत्रालय की राय भी ली गई है और समिति ने न्यायिक जवाबदेही पर भी विचार-विमर्श शुरू किया है जो आगे भी जारी रहेगी. इसी क्रम में समिति ने मंगलवार को एक बैठक भी बुलाई है. इस संबंध में यदि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि देखी जाए तो 1997 में स्टेटमेंट वैल्यूज ऑफ ज्यूडिशियल लाइफ नाम से एक दिशानिर्देश जारी किया गया था जो न्यायाधीशों के आचरण के लिए सलाह देता था. हालांकि, यह दिशानिर्देश बाध्यकारी नहीं था. इसके कारण इसका प्रभाव भी सीमित रहा. अब समिति की कोशिश है कि इसे औपचारिक और कानूनी रूप दिया जाए ताकि यह न्यायिक व्यवस्था में स्पष्टता और जवाबदेही ला सके.पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आए जिसमें न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठाए गए. जैसे पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का राज्यसभा में नियुक्ति होना, या हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को विभिन्न आयोगों का अध्यक्ष बनाया जाना शामिल है. इन मामलों में यह चिंता व्यक्त की गई है कि क्या ऐसी नियुक्तियां न्यायिक निर्णयों पर सरकार के प्रभाव को दर्शाती है.इस मुद्दे पर कांग्रेस के प्रवक्ता अजय उपाध्याय का मानना है कि सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद न्यायाधीशों को राज्यपाल या राज्यसभा में भेजना लोकतंत्र के लिए खतरनाक परंपरा है, क्योंकि इससे जनता में यह संदेश जाता है कि न्यायिक स्वतंत्रता पर सवाल है. सूत्रों की माने तो समिति द्वारा प्रस्तावित आचार संहिता में कई महत्वपूर्ण पहलू शामिल हो सकते हैं, जैसे राजनीतिक मंच से दूरी बनाए रखना. सार्वजनिक टिप्पणियों पर सीमाएं, सरकारी संस्थाओं के साथ संबंधों पर स्पष्ट दिशानिर्देश. इसके अलावा, एक कूलिंग-ऑफ पीरियड की मांग भी उठ रही है ताकि सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद नियुक्तियों से बचा जा सके और न्यायिक निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके.इस संबंध में वरिष्ठ वकील और पूर्व बार कौंसिल के सचिव रोहित पांडेय का मानना है कि यह सिर्फ विधाई सवाल नहीं है, बल्कि नैतिकता का मुद्दा है. उनका कहना है कि आचार संहिता से न्यायपालिका की साख बढ़ेगी और जनता का विश्वास मजबूत होगा. दूसरी ओर बीजेपी नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने भी इस मुद्दे पर चर्चा की आवश्यकता को स्वीकार किया है, लेकिन विवरण पर अभी बहस जारी है.इस संबंध में समिति की बैठक आज बुलाई गई है और सूत्रों की माने तो समिति की रिपोर्ट आने के बाद सरकार नीति बनाने या नया विधेयक लाने पर विचार कर सकती है. यदि ऐसा होता है तो इसे भारत की न्यायिक प्रणाली के लिए ऐतिहासिक सुधार माना जा सकता है. यह कदम न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को मजबूत करेगा, बल्कि जनता के विश्वास को भी बढ़ाएगा. हालांकि, इस पर अभी भी विभिन्न पक्षों के बीच मतभेद है और आगे की बैठकों में इस बहस को नई दिशा मिलने की संभावना है.
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