जल संरक्षण की आवश्यकता जरुरी
- 11-Apr-24 12:00 AM
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भारत डोगराजहां एक ओर दूर-दूराज के गांवों में नल से जल मिलने की प्रसन्नता है, वहीं यह जरूरत भी बढ़ गई है कि नलों और पाइपों के लिए पानी मिलता रहे। इसके लिए जल संरक्षण को मजबूत करना चाहिए।देश के परंपरागत जल संरक्षण उपायों से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। बुंदेलखंड जैसे कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां जल प्रबंधन और उपलब्धि के परंपरागत और नये तौर-तरीकों में बहुत अंतर है। जहां पहले तालाबों में जल-संग्रहण और इसके माध्यम से आसपास के जल स्तर को ऊंचा रखते हुए कुछ चुने हुए स्थानों पर कुएं बनवाने को महत्त्व दिया जाता था, वहीं इन दिनों तालाबों की उपेक्षा कर काफी मनचाहे ढंग से जगह-जगह नलकूप और हैंडपंप लगाए गए हैं। बड़ी संख्या में नलकूप विफल रहे हैं, हैंडपंप भी कुछ समय बाद जवाब दे गए। कुछ समय के लिए नई सुविधाएं मिलने पर परंपरागत तौर-तरीकों की उपेक्षा होने लगती है, जो बाद में मंहगी पड़ती है क्योंकि नया लाभ स्थायी सिद्ध नहीं होता। इस तरह क्षेत्र की विशेषताओं को ध्यान में न रख कर खर्च किया गया बहुत सा पैसा अपेक्षित लाभ नहीं दे पाता और कई स्थानों पर तो स्थिति पहले से भी ज्यादा खराब हो जाती है। बुंदेलखंड में कुछ स्थानों पर ट्यूबवेलों के आने के बाद पहले से बने कुएं सूखने लगे। जहां भूजल उपलब्धि की स्थिति ट्यूबवेलों के अनुकूल न हो, वहां जबरदस्ती इसी नीति को अपनाने से संतोषजनक और स्थायी समाधान मिल ही नहीं सकता।नल या हैंडपंप, नलकूप या पाइपलाइन, ये सब कई गांवों में ज्यादा नजर आ रहे हैं पर जिस भूजल से, तालाब या झरने से इन्हें पानी मिलना है, यदि उनमें ही पानी कम होने लगे तो भला इन निर्माण कार्यों से क्या समस्या हल होगी। पिछले लगभग दस-पंद्रह वर्षो में हमारे देश में भूजल स्तर में बहुत तेजी से गिरावट आई है। पहाड़ी क्षेत्रों से कितने ही झरनों के सूखने या पतले पडऩे के समाचार हैं। बहुत बड़ी संख्या में तालाब मैदान जैसे बन गए हैं, उन पर अतिक्रमण हो चुका है या ये बुरी तरह जीर्ण-शीर्ण स्थिति में पड़े हैं। जल की कमी के संकट को जल प्रदूषण ने और भी विकट कर दिया है। छोटी-छोटी नदियां भी इतनी प्रदूषित हो गई हैं कि कई गावों की जल उपलब्धि पर प्रतिकूल असर पड़ा है। जहां कृषि रसायनों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है, वहीं भूजल पर इनका हानिकारक असर दिखने भी लगा है।जल के संकट से बेपरवाहीकई क्षेत्रों में जल के संकट की परवाह न करते हुए ऐसे उद्योग लगाए जा रहे हैं जो जल का अत्यधिक उपयोग करेंगे तथा जल प्रदूषण में वृद्धि करेंगे। कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां जल संकट को नजरंदाज करते हुए जल का अत्यधिक उपयोग करने वाली ऐसी नई फसलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिनका लाभ कुछ पहले से समृद्ध लोगों तक सीमित रहेगा पर जिनके दुष्परिणाम और नीचे गिरने वाले भूजल के रूप में जनसाधारण को भुगतने पड़ेंगे। शहरी क्षेत्रों में पांच-सितारा होटल, लॉन, गोल्फ-कोर्स आदि अत्यधिक जल उपयोग वाली सुविधाओं के जुटाने में हम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं जबकि अनेक बस्तियों में जल अभाव से हाहाकार है। अन्य प्राकृतिक संसाधनों की तरह जल का बंटवारा भी विषमता से ग्रस्त है, और यह विषमता जल संकट की स्थिति में असहनीय हो जाती है। एक ओर लोग पीने के पानी को तरसते रहें तथा दूसरी ओर पानी का अपव्यय होता रहे, यह वर्तमान की दृष्टि से तो अन्यायपूर्ण है ही, भविष्य में समस्या का स्थायी हल खोजने में भी रुकावट बनता है। इस विषमता के कारण जल वितरण और उपयोग का ऐसा नियोजन नहीं हो सकता जो सबकी प्यास बुझाने में समर्थ हो।सार्थक जल नियोजन के लिए जरूरी है कि निहित स्वाथरे के दबाव की परवाह न करते हुए सर्वाधिक प्राथमिकता इस बात को दी जाए कि हर व्यक्ति, हर झोंपड़ी, हर गांव की प्यास बुझाई जा सके। पानी के अन्य उपयोग-चाहे किसी नई फसल के लिए हों या किसी उद्योग के लिए-तभी सोचे-विचारे जाएं जब पहले इस बुनियादी जरूरत को संतोषजनक ढंग से पूरा कर लिया जाए। इस प्राथमिकता पर कायम रहने के साथ ही यह भी जरूरी है कि पीने के पानी की आपूर्ति के कार्य को केवल हैंडपंप लगाने या कुएं खोदने तक सीमित न रखकर उन सभी महत्त्वपूर्ण गतिविधियों और क्षेत्रों को ध्यान में रखा जाए जिनका असर पानी की उपलब्धि पर पड़ता है। किसी ग्रामीण क्षेत्र में पीने के पानी की योजना बनाई जा रही हो और वह इस ओर से अनभिज्ञ रहे कि ऊपर पहाड़ी पर जो जंगल काटा जाने वाला है, उसका जल उपलब्धि पर क्या असर पड़ेगा तो यह योजना सफल नहीं हो सकती। इसी तरह औद्योगिक प्रदूषण, कृषि रसायनों का उपयोग, फसल-चक्र में बदलाव, खनन, ये सभी क्षेत्र हैं, जिनका पेयजल उपलब्धि पर असर पड़ सकता है। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि इन विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी परियोजनाओं और नये कार्यक्रमों पर जल-उपलब्धि की दृष्टि से भी विचार किया जाए और उनके पक्ष में निर्णय लेने से पहले जल-उपलब्धि की स्थिति पर उनका क्या असर होगा, इस प्रश्न को समुचित महत्त्व दिया जाए। जल-नियोजन के कार्य में लगे लोग भी इन विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे बदलावों पर नजर रखें तथा इनकी जल-उपलब्धि पर प्रतिकूल असर पडऩे की संभावना हो तो इस बारे में समय पर चेतावनी देने की भूमिका उन्हें निभानी चाहिए।भूजल की स्थिति पर रहे नजरसरकार के पास संतोषजनक पेयजल स्थिति होने के जो आंकड़े विभिन्न गांवों से पंहुचते हैं, उन्हें भेजने वालों को स्पष्ट निर्देश होने चाहिए कि कुछ नलकूप खोद लेने से ही स्थिति संतोषजनक नहीं हो जाती। भूजल नीचे तो नहीं जा रहा है, झरने सूख तो नहीं रहे हैं, जल का प्रदूषण बढ़ तो नहीं रहा है, इन सब बातों के उचित अध्ययन से ही स्पष्ट हो सकता है कि क्या इस गांव (या गांवों के समूह) की पेयजल स्थिति वास्तव में संतोषजनक है अथवा यहां पर पेयजल की कमी का संकट आज नहीं तो कल मंडराने वाला है। इस ओर भी ध्यान देना जरूरी है कि पेयजल के जो नये साधन या स्रेत उपलब्ध कराए जा रहे हैं, उनके रख-रखाव और मरम्मत की कितनी जानकारी स्थानीय लोगों तक पहुंचती है। यदि थोड़ी सी समस्या उत्पन्न होने पर लोगों को कई दिनों तक बाहरी सहायता के इंतजार में प्यासे रहना पड़े तो इस तरह की निर्भरता बढ़ाने वाली नई तकनीक को आदर्श नहीं माना जा सकता।वास्तव में जल व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें नई तकनीक परंपरागत उपायों का विरोध न करे अपितु उनकी कमियों को दूर करने या समय की आवश्यकता के अनुसार क्षमता बढ़ाने का कार्य करे। जल संग्रहण और संरक्षण के विभिन्न तौर-तरीके देश के विभिन्न भागों में (विशेषकर पानी की कमी वाले क्षेत्रों में) सदियों के अनुभव से विकसित किए गए और ये ऐसी अनमोल विरासत हैं, जिनकी उपेक्षा कर हम पेयजल का संकट हल करने में सफल नहीं हो सकते। यह भी सच है कि बदलती परिस्थितियों में कई जगहों पर तरह-तरह की नई तकनीक की जरूरत है। इनके बीच सामंजस्य बनाने में सुविधा होगी बशत्रे पेयजल योजनाएं बनाने और कार्यान्वित करने में स्थानीय लोगों की भागेदारी हो।
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