जाति गणना कराने का फैसला

  • 10-May-25 12:00 AM

अजीत द्विवेदीकांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2024 में बहुजन राजनीति का जो प्रयोग किया था उसे अब वह सांस्थायिक रूप दे रही है और इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जाति गणना कराने का ऐलान कर दिया। बुधवार, 30 अप्रैल को कैबिनेट की बैठक में जाति गणना का फैसला हुआ। सरकार ने कहा कि अगली जनगणना में जातियों की गिनती होगी। आजादी के बाद पहली बार जातियां गिनी जाएंगी। अभी तक 1931 में अंग्रेजों की कराई जातिगत गणना के आंकड़ों के आधार पर बने अनुमान से काम चल रहा था।बिहार की जाति गणना से यह पता चल गया कि मोटे तौर पर अनुमान सही भी है। लेकिन चूंकि जाति और आरक्षण एक बड़ा भावनात्मक राजनीतिक मुद्दा है और 10 साल से सत्ता के लिए भटक रही कांग्रेस को यह अमोघ अस्त्र की तरह लगा तो उसने इसे 2024 के चुनाव में आजमाया। उसको इसका लाभ हुआ। समूचे विपक्ष को हुआ। इसी से भाजपा और नरेंद्र मोदी सावधान हुए। उनको लगा कि यह मुद्दा बिहार, उसके बाद उत्तर प्रदेश और उसके बाद लोकसभा चुनाव में नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए जाति गणना कराने का फैसला हुआ।परंतु सवाल है कि जाति की राजनीति का कांग्रेस को कितना फायदा होगा? ध्यान रहे वह इस राजनीति के इर्द गिर्द अपनी पोजिशन कंसोलिडेट करने की कोशिश कर रही है। हो सकता है कि इसमें समय लगे क्योंकि यह कांग्रेस की राजनीति का बुनियादी स्वरूप नहीं है। कांग्रेस ने पहले भी जाति की राजनीति की है लेकिन कभी भी इस तरह से नहीं। आजादी की लड़ाई के मूल्यों पर आधारित आइडिया ऑफ इंडिया के इर्द गिर्द कांग्रेस की राजनीति का तानाबाना था। लेकिन 2014 में बुरी तरह से हार कर सत्ता से बाहर होने के बाद उसने कई प्रयोग किए।भाजपा की राजनीति के रास्ते पर भी चलने का प्रयास किया, जिसके तहत राहुल गांधी मंदिर मंदिर घूमते रहे और जनेऊ दिखा कर उनको कौल ब्राह्मण बताया गया। लेकिन उसमें कामयाबी नहीं मिली। मूल हिंदुवादी पार्टी के रहते किसी ने क्लोन पार्टी की ओर से ध्यान नहीं दिया। इसके बाद जाति आधारित राजनीति का प्रयोग कांग्रेस ने शुरू किया, जिसमें आंशिक ही सही लेकिन कामयाबी मिली। इस आंशिक कामयाबी के बाद ही कांग्रेस ने बहुजन राजनीति को सांस्थायिक रूप देना शुरू किया।गुजरात के अहमदाबाद में हुए कांग्रेस के अधिवेशन को कांग्रेस की बहुजन राजनीति का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं। इसमें कांग्रेस ने तीन प्रस्ताव पास किए। पहला, आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा को समाप्त करके उसे बढ़ाने का प्रस्ताव। दूसरा, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के अंदर वर्गीकरण और आबादी के अनुपात में उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने का प्रस्ताव और तीसरा, निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के प्रावधान का प्रस्ताव। इस तीसरे प्रस्ताव से ही बात शुरू करें तो यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने सिर्फ निजी शिक्षण संस्थानों में दाखिले में ही आरक्षण देने की बात क्यों कही है?उसने निजी संस्थानों की नौकरी में आरक्षण देने का प्रस्ताव क्यों नहीं स्वीकार किया? ध्यान रहे निजी कंपनियों की नौकरी में आरक्षण की मांग पुरानी है। बहुजन राजनीति के तमाम बड़े नेताओं जैसे शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान आदि हमेशा निजी कंपनियों में आरक्षण देने की मांग करते रहे थे। जब कांग्रेस इस राजनीति में घुसी है तो पता नहीं क्यों आधे अधूरे मन से उसने सिर्फ निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देने का वादा किया है। क्या वह देश के कॉरपोरेट समूह को नाराज नहीं करना चाहती है या कोई और कारण है?संभव है कि कांग्रेस को यह लग रहा हो कि देश में सरकारी शिक्षण संस्थान दम तोड़ रहे हैं और निजी शिक्षण संस्थानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सो, अगर उसमें आरक्षण लागू हो जाता है तो वहां से पिछड़ी जातियों के या एससी, एसटी समूह के बच्चे पढ़ कर निकलेंगे और फिर निजी सेक्टर में आरक्षण की जरुरत ही नहीं रह जाएगी। जो भी यह कांग्रेस की राजनीति का एक बड़ा शिफ्ट है।पहले प्रस्ताव में कांग्रेस ने जाति गणना कराने और आरक्षण की सीमा बढ़ाने का संकल्प जताया था। इसका एक हिस्सा केंद्र की मोदी सरकार ने लागू करने का ऐलान कर दिया। अगली जनगणना के साथ जाति गणना होगी। तभी राहुल ने कहा है कि आरक्षण बढ़ाने का फैसला भी होगा। इससे पहले कांग्रेस शासित दो राज्यों ने जाति गणना के आंकड़े जारी किए। तेलंगाना बनने के बाद पहली बार 2023 में कांग्रेस की सरकार बनी और उसने दो साल से पहले जाति गणना करा कर उसके आंकड़े जारी कर दिए। इसके साथ ही जातियों की आबादी के अनुपात में आरक्षण बढ़ाने का प्रस्ताव भी तैयार कर कर दिया।उधर कर्नाटक में जाति गणना कोई 12 साल पहले हुई थी, जिसकी रिपोर्ट अब जारी की गई है। कर्नाटक में भी कांग्रेस सरकार ने जातियों की आबादी के अनुपात में सबको आरक्षण देने के लिए आरक्षण की सीमा 75 फीसदी तक बढ़ाने का फैसला किया है। यह अलग बात है कि अदालत में इस पर रोक लग जाएगी, जैसे छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार में लगी है। इसके बावजूद यह बड़ा भावनात्मक दांव होगा, जिसका लाभ चुनावी राजनीति में मिल सकता है। कांग्रेस का दूसरा प्रस्ताव एससी, एसटी समुदायों के अंदर वर्गीकरण का है, जिसका फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया हुआ है। इन समूहों के भीतर उनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति के अनुरूप आरक्षण का बंटवारा किया जाएगा।थोड़े समय पहले ऐसा लग रहा था जैसे आरक्षण की राजनीति अपने चरम पर पहुंच गई और अब इसका ढलान आएगा। पूरे देश में भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति के उभार की वजह से ऐसी धारणा बन रही थी। लग रहा था कि हिंदुत्व की राजनीति ने जातीय राजनीति की धार कुंद कर दी। ध्यान रहे मंदिर और मंडल की राजनीति एक साथ शुरू हुई थी और कदम दर कदम एक साथ चल रही थी। लेकिन नरेंद्र मोदी के रूप में अति पिछड़े समाज के एक नेता के राजनीति के शीर्ष पर पहुंचने और उसके बाद भाजपा द्वारा किए गए प्रयोगों की वजह से मंडल और कमंडल का भेद मिट गया।भाजपा ने दोनों एक एकाकार कर दिया। यह स्थापित किया कि मंडल ही कमंडल है। पिछड़ी और दलित जातियों की सांप्रदायिक मुद्दों पर जबरदस्त गोलबंदी हुई। मंडल के सारे मसीहा हवा में उड़ गए। भाजपा ने घोषित रूप से देश की राजनीति को 80 बनाम 20 फीसदी की राजनीति में बदल दिया। मुसलमान के रूप में एक साझा दुश्मन खड़ा किया गया और बाकी तमाम जातियों, समुदायों को उनके खिलाफ खड़ा करने का प्रयास किया। पिछले तीन लोकसभा चुनावों और अनगिनत विधानसभा चुनावों में भाजपा को इसका फायदा मिला।भाजपा की लगातार सफलताओं ने मंडल की पार्टियों को अपनी राजनीति बदलने के लिए मजबूर किया। उन्होंने अपना सामाजिक आधार बढ़ाने के लिए भाजपा से पारंपरिक रूप से जुड़ी रही जातियों को लक्ष्य बनाया। उनके नेताओं को साथ जोडऩे और उनके हितों की बात उठानी शुरू की। इससे जातियों के बीच की रेखा थोड़ी धुंधली हुई और अमुक जाति के अमुक पार्टी का बंधुआ होने की धारणा भी बदली। भाजपा को उसके ब्रांड की पोलिटिक्स में मात देने में नाकाम रही कांग्रेस बहुजन राजनीति में उतरी। उसने पहले से भीड़ भरे इस क्षेत्र में कदम रखा।उसको यह एडवांटेज है कि उसके पास अखिल भारतीय संगठन है, भाजपा विरोध का एक मजबूत वैचारिक आधार है, दूसरी मंडलवादी पार्टियों से इतर सवर्ण और दलित मतदाताओं में भी पहुंच है और भाजपा विरोध की स्थायी राजनीति के कारण अल्पसंख्यक समूहों का स्वाभाविक भरोसा है। उसे अब पिछड़ी जातियों का भरोसा हासिल करना है। जय बापू, जय भीम, जय संविधान रैली के जरिए कांग्रेस इस कोशिश में लगी है। राहुल गांधी स्वंय इस राजनीति का चेहरा बने हैं। पहले की तरह कांग्रेस अपने प्रादेशिक क्षत्रपों के जरिए यह राजनीति नहीं कर रही है, बल्कि सीधे राहुल गांधी यह राजनीति कर रहे हैं।हालांकि उनकी अपनी पहचान बहुजन समाज वाली नहीं है और यह उनके रास्ते में एक बड़ी बाधा है। फिर भी उन्होंने भाजपा और नरेंद्र मोदी को जाति गणना के फैसले के लिए मजबूर किया। केंद्र सरकार के इस फैसले से किसी भी दूसरे नेता से ज्यादा राहुल गांधी की विश्वसनीयता बनेगी।




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