तभी सफलता की उम्मीद
- 13-May-24 12:00 AM
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भारत डोगराधरती पर लाखों वर्षो से लाखों तरह के जीवन रूप फलते-फूलते रहे हैं। यह इस कारण संभव है क्योंकि धरती पर इतने विविध जीवन को पनपाने वाली विशिष्ट स्थितियां मौजूद हैं जैसे कि सूर्य का प्रकाश और ऊष्मा, पर्याप्त मात्रा में जल, वायुमंडल में विभिन्न गैसों की विशेष अनुपात में उपस्थिति आदि।हालांकि धरती पर समय-समय पर बड़ी उथल-पुथल हुई है, जैसे कि वह भारी उथल-पुथल जिसके कारण डायनोसोर लुप्त हुए, पर यह कभी धरती के किसी जीवन-रूप की कार्यवाहियों के कारण नहीं हुई।बीसवीं शताब्दी में पहली बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि धरती के किसी जीवन-रूप (मनुष्य) की कार्यवाहियों से धरती की जीवन-रक्षक स्थितियां खतरे में पड़ी हों। यह स्थिति सर्वप्रथम 1945 में परमाणु बम गिराने से आरंभ हुई। उसके बाद तो परमाणु हथियारों के साथ अनेक अन्य महाविनाशक हथियारों की एक दौड़ ही आरंभ हो गई। इस समय 9 देशों के पास 12500 से अधिक परमाणु हथियार हैं। यदि कभी इनमें से मात्र 5 से 10 प्रतिशत का वास्तव में उपयोग हो गया, तो पूरी धरती का जीवन नष्ट हो सकता है। रासायनिक और जैविक हथियारों पर विश्व में अनेक वर्षो से प्रतिबंध लगा हुआ है पर समय-समय पर संकेत मिलते रहते हैं कि चोरी-छिपे इन पर अनुसंधान जारी हैं। इसके अतिरिक्त अनेक वैज्ञानिकों ने यह चेतावनी भी दी है कि अनेक तरह के संदिग्ध माने जाने वाले जैव अनुसंधान (जैसे गेन ऑफ फंक्शन रिसर्च) से ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं, जो जैविक हथियारों के उपयोग जितनी ही खतरनाक हैं (जैसे कि प्राकृतिक स्थिति में जो वायरस हैं उनसे अधिक खतरनाक वायरस का प्रसार)। चाहे यह प्रयोगशालाओं में किसी दुर्घटना के कारण ही हो, पर इसका असर जैविक हथियार के उपयोग जितना ही खतरनाक है।अंतरिक्ष के सैन्यकरण की ओर हाल के वर्षो में जो कदम बढ़ाए गए हैं, वे भी उतने ही खतरनाक हैं जितना कि महाविनाशक हथियारों का प्रसार है। खतरनाक हथियारों में जिस तरह एआई या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग किया जा रहा है, वह अनेक नई खतरनाक संभावनाओं को उत्पन्न करता है जिसके बारे में अनेक वरिष्ठ वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं।वर्ष 1945 के बाद के लगभग आठ दशकों में महाविनाशक हथियारों का यह खतरा बढ़ता ही गया है। इसके साथ-साथ अनेक पर्यावरणीय समस्याएं भी यह रूप ले रही हैं कि उनसे धरती की जीवन रक्षक स्थितियां खतरे में पड़ जाएं। इनमें सबसे चर्चित समस्या जलवायु बदलाव की है पर इसके साथ लगभग दर्जन भर अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं भी हैं जो कई स्तरों पर आपस में जुड़ी हुई भी हैं।इन बढ़ते खतरों के बीच अंतरराष्ट्रीय समुदाय और नेतृत्व की ओर से कोई ऐसा बड़ा प्रयास नहीं हो सका है, जो असरदार ढंग से धरती की जीवनदायिनी क्षमता को क्षतिग्रस्त करने वाले इस बहुपक्षीय संकट का सामना करने का और इसे समय रहते सुधारने का विश्वास उत्पन्न कर सके। वास्तव में यह मौजूदा विश्व व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता है। इससे महत्त्वपूर्ण भला और क्या हो सकता है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं को बचा कर रखा जाए? पर इसे अभी तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय अपनी सबसे बड़ी प्राथमिकता के रूप में नहीं अपना सका है।यह सच है कि जलवायु बदलाव पर चर्चा बहुत हुई है, पर इससे जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने कई बार बताया है कि जिन लक्ष्यों को प्राप्त करना जरूरी है, उनसे अभी हम बहुत दूर हैं। फिर जलवायु बदलाव कोई एकमात्र ऐसी गंभीर पर्यावरणीय समस्या तो है नहीं जो धरती की जीवनदायिनी स्थिति को प्रभावित करती है। ऐसी अनेक समस्याएं हैं और वे भी विकट हो रही हैं। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि ग्रीनहाऊस गैसों की वृद्धि के अपने टिपिंग प्वॉइंटÓ भी हैं और इस सीमा-रेखा के बाहर जाने पर समस्या तेजी से नियंत्रण से बाहर जा सकती है।जहां तक महाविनाशक हथियारों की दौड़ और होड़ का सवाल है तो इसे नियंत्रित करने के लिए पहले कई समझौते हुए जिनमें से अनेक अब रद्द हो चुके हैं, या इनका सीमा काल समाप्त होने के बाद इनका नवीनीकरण नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त इन महाविनाशक हथियारों को अपने टारगेट तक पहुंचाने की अधिक से अधिक तेज क्षमता यानी कम से कम समय में विध्वंस करने की क्षमता भी बढ़ती जा रही है। जब चंद मिनटों में महाविनाश करने की क्षमता ही जाए तो फिर इसे समय पर रोक पाने की या भूल-सुधार की क्षमता अपने आप न्यूनतम हो जाती है। ऐसे में यह संभावना भी बढ़ जाती है कि एक-दूसरे की आक्रामकता की गलत पहचान के आधार पर ही कोई बड़ा विनाश हो जाए।इन सब संभावनाओं और स्थितियों को देखते हुए हम संक्षेप में कह सकते हैं कि धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं के संकट के तीन पक्ष हैं। एक, 12500 के आसपास परमाणु हथियार एकत्र होने के साथ अनेक महाविनाशक हथियारों और अंतरिक्ष के सैन्यकरण में बढ़ावा. और दूसरा, जलवायु बदलाव सहित लगभग दर्जन भर गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं की उपस्थिति। इन दोनों समस्याओं के समय रहते संतोषजनक समाधान में अंतरराष्ट्रीय समुदाय, नेतृत्व और संस्थानों की अभी तक की विफलता। इस स्थिति की गंभीरता को देखते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण प्रयासों की जरूरत है।समाधानों की दिशा में निम्न महत्त्वपूर्ण कदमों पर गंभीर विचार होना चाहिए। एक मुख्य पहल तो यह होनी चाहिए कि अगले दशक को विश्व स्तर पर धरती की रक्षा के दशक में स्वीकृति मिलनी चाहिए। इस दशक को इस रूप में अपनाया जाना चाहिए कि इस दौरान धरती की जीवन-रक्षक स्थितियों को उच्चतम प्राथमिकता दी जाएगी तथा इस प्राथमिकता के अंतर्गत बहुत से महत्तपूर्ण कार्य किए जाएंगे। अगले दशक को ऐसी मान्यता विश्व स्तर पर प्रदान करवाने के लिए एक अभियान इस लेखक ने भी वर्षो से आरंभ किया हुआ है।दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम यह हो सकता है कि इस उच्च प्राथमिकता को समग्र रूप में आगे ले जाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्थान की स्थापना की जाए। इस समय इस समस्या के विभिन्न पक्षों पर कुछ संस्थान कार्य कर रहे हैं जैसे कि जलवायु बदलाव पर, समुद्रों का पर्यावरण बचाने पर, अंतरिक्ष के सैन्यकरण को रोकने पर और महाविनाशक हथियारों के प्रसार को रोकने पर।अब जरूरत यह है कि ऐसे सभी पक्षों पर समग्र रूप से कार्य करना और इसके लिए प्रतिबद्ध एक महत्त्वपूर्ण संस्थान की विश्व स्तर पर जरूरत है। इन दो प्रयासों का उचित उपयोग करते हुए लाखों की संख्या में ऐसे नागरिकों को तैयार करने की जरूरत दुनिया भर में है, जो इस सबसे बड़ी समस्या को भली-भांति समझें तथा इसके समाधान के लिए निरंतरता से कार्य करें। यह समाधान केवल चंद विश्व नेताओं के सम्मेलनों से प्राप्त नहीं होंगे। जब करोड़ों लोग धरती-रक्षा के अभियान से जुड़ेंगे तभी सफलता की उम्मीद होगी।
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