बजट पर चर्चा जाति के चक्रव्यूह में फंसा
- 03-Aug-24 12:00 AM
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भारत की संसदीय राजनीति की यह सबसे दुखद परिघटना है कि लोक सभा में बजट पर हो रही चर्चा जाति के चक्रव्यूह में फंस गई। विपक्ष के नेतागण शायद इस तथ्य से अनजान हैं कि भारतीय समाज में जाति संघर्ष बढ़ा तो देश की क्षेत्रीय अखंडता पर इसके नकारात्मक परिणाम पड़ सकते हैं।संविधान निर्माता और चिंतक डॉ. अंबेडकर भारतीय समाज की इस बुराई को समझ गए थे। इसीलिए उन्होंने जातिविहीन समाज के निर्माण की कल्पना की थी। आगे चलकर समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने भी जाति तोड़ो को लेकर लंबा अभियान चलाया था। लेकिन विडम्बना है कि बिहार के नेताओं के बाद अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी को महाभारत में अजरुन को जिस तरह सिर्फ मछली की आंख दिखाई दे रही थी, उसी तरह जातिगत जनगणना दिखाई दे रही है।भारतीय राजनीति और समाज का दुखद पहलू है कि आज हर जाति में वर्चस्ववादी नेता पैदा हो गए हैं। ऐसा नेता जाति स्वाभिमान हो गया है। इस तरह से कट्टर जातिवादी नेताओं का समाज और राजनीति में प्रभाव बढ़ता है तो पहले से ही जाति और धर्म में विभाजित समाज आगे चलकर और कितना विभाजित होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। ठीक है कि जाति गणना सत्ता पाने की सीढ़ी बन सकती है लेकिन इससे सामाजिक विद्वेष बढ़ेगा और अंतत: प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा जाएगी।डॉ. लोहिया का विास है कि इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बंधन ढीले थे, उसने लगभग उसी काल में घुटने नहीं टेके।Ó उनका मानना है कि यह गलत धारणा है कि अंदरूनी झगड़ों और छल-कपट के कारण न तो विदेशी हमले हुए और न भारत गुलाम हुआ। इसका सबसे बड़ा और एकमात्र कारण है जाति।1960 और 71 के दशक में डॉ. लोहिया के प्रयासों से समाज में जाति के बंधन कुछ ढीले पडऩे लगे थे। बाद में आरएसएस ने भी हिन्दू समाज की जातियों की एकता को मजबूत करने के लिए अभियान चलाया और आज भी संघ का यह प्रयास जारी है लेकिन लगता है कि जातिगत पहचान और स्वाभिमान का उभार तेजी से हो रहा है।राहुल गांधी इस उभार को और अधिक हवा देने लगे हैं। हालांकि राहुल के जातिगत जनगणना के बयान पर भाजपा नेता के इस जवाब का समर्थन नहीं किया जा सकता जिनकी अपनी जाति का पता नहीं है, वे जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं। सदन हो या सड़क जाति पूछना अमर्यादित आचरण के दायरे में ही आता है।
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