बिहार भाजपा में जड़ें कमजोर हुई तो

  • 05-Jul-24 12:00 AM

प्रेमकुमार मणिबिहार भाजपा में इन दिनों भीतर-भीतर आग सुलग रही है। कारण कुछ बाह्य हैं, कुछ आंतरिक। केंद्र में भाजपा की सरकार तो बन गई है, लेकिन इस बार 2014 और 2019 जैसी सफलता नहीं मिली है। जब शीर्ष कमजोर होता है तो निचले स्तर पर जनतंत्र की कोपलें स्वत: उभरने लगती हैं। यही कारण है कि नेताओं की दबी हुई भावनाएं भी अभिव्यक्त होने लगी हैं। पिछले दिनों भाजपा नेता अिनी चौबे ने पार्टी मामलों पर टिप्पणी करके स्थिर जल में लहरें पैदा कर दी है। नतीजों के कारण यूं भी कुछ बेचैनी है।2020 के विधानसभा चुनाव में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ कर भी नीतीश की पार्टी भाजपा के मुकाबले बहुत पीछे रह गई थी। इस बार वह एक सीट कम लड़ कर भी बराबरी पर है। केंद्रीय स्तर पर भी जो लोक सभा के नतीजे आए हैं उसमें नीतीश अधिक प्रासंगिक और शक्तिमान हो गए हैं। अब चूंकि नीतीश की राजनीति बिहार केंद्रित है इसलिए स्वाभाविक है उनका प्रभाव बिहार पर पहले से अधिक होगा। बिहार भाजपा की परेशानी इन सब से ही बढ़ी है। जब नीतीश ने राजद के साथ 2022 में राजनीतिक समझौत किया था तब भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने बहुत सोच समझ कर सम्राट चौधरी को बिहार भाजपा का अध्यक्ष बनाया था। ऐसा इसलिए किया गया था कि सम्राट एक साथ नीतीश और तेजस्वी को राजनीतिक चुनौती दे सकेंगे। उस समय ऐसा लग रहा था कि जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल की समन्वित राजनीति का नेतृत्व जल्दी ही तेजस्वी करने वाले हैं। नीतीश कुमार इस तरह के संकेत भी दे रहे थे।ऐसे में भाजपा को तेजस्वी को जवाब देने लायक एक युवा नेतृत्व विकसित करना था। सम्राट चौधरी को आगे कर पार्टी ने यही किया था। सम्राट इस निकष पर खरे भी उतरे थे। उनकी लोकप्रियता बढ़ रही थी। बिहार-जहां राजनीति में जाति एक बड़ा फैक्टर होता है-के धरातल पर पिछड़े वर्ग के बड़े हिस्से को आकर्षित करने और सामान्य वगरे के लिए अनुकूल बने रहने की छवि उनकी बन रही थी। भाजपा का जो आधार वोट है उस में उनकी स्वीकृति भी पुख्ता हो रही थी। इसी बीच जनवरी 2024 के आखिर में नीतीश एक बार फिर भाजपा के साथ हो लिये और पुराने सारे गणित गड्डमड्ड हो गए। यह लोक सभा चुनाव के ठीक पहले हुआ था।चुनाव में पिछली बार की तरह सफलता नहीं मिली, जबकि एक छोड़ 39 सीटों पर एनडीए को कामयाबी मिली थी, लेकिन इस चुनाव को 2019 के निकष पर देखना सही नहीं होगा। इस चुनाव में लालू प्रसाद ने जाति कार्ड खूब खेला। अपनी पार्टी और गठबंधन से सम्राट चौधरी के जनाधार क्षेत्र में सेंध लगाने की हरसंभव कोशिश की। इसके उलट सम्राट अपनी ही बिरादरी के किसी व्यक्ति को अपनी पार्टी का टिकट नहीं दिला सके। ऐसे में हवा यह बनी थी कि सम्राट चौधरी को लालू प्रसाद ने अपनी राजनीतिक चाल से ध्वस्त कर दिया है। उनकी पार्टी में भी इसी तरह की बात जोर बांधने लगी कि सम्राट की कोई राजनीतिक उपयोगिता नहीं सिद्ध हुई, लेकिन इन तमाम बातों के बीच सम्राट चुपचाप अपने काम में लगे रहे। उनके साथ दो चुनौती थी। पहली तो तेजस्वी यादव का राजनीतिक मुकाबला करना और दूसरा नीतीश जैसे कद्दावर नेता के साथ एकता बनाए रखना। इन दोनों स्तरों पर वह सफल रहे।सम्राट ने अपना संतुलन बनाए रखा। तेजस्वी के बाद सबसे अधिक चुनावी सभाएं उन्होंने की। अपने गृहक्षेत्र में लोजपा के एक ऐसे उम्मीदवार को जिताने में वह सफल हुए जिनका जाति के हिसाब से कोई वोट बैंक नहीं था। पूरे बिहार में अपने प्रभाव के वोट को ट्रांसफर कराने में वह लगभग सफल हुए। हां, सोन इलाके के शाहाबाद और मगध के कुछ चुनाव क्षेत्रों में उनकी नहीं चली। यहां महागठबंधन के विजयी नौ में से सात उम्मीदवार जीते हैं। यदि सम्राट ने अपना प्रभाव न दिखलाया होता तो बिहार एनडीए की स्थिति बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसी हो जाती। बिहार का सामाजिक-राजनीतिक मन-मिजाज उत्तर प्रदेश से मिलता-जुलता है।यदि बिहार में उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति हो जाती, तो क्या होता? एनडीए को दस-बारह सीटें कम आती और इंडिया गठबंधन को उतनी ही अधिक। फिर तो केवल तेदेपा के हाथ में सरकार बनाने की कुंजी होती। सम्राट ने इस स्थिति से भाजपा को बाहर रख कर उसकी साख बचा ली। यह उनकी उल्लेखनीय सफलता है, लेकिन आने वाले समय में बिहार भाजपा के सामने बड़ी चुनौती आगामी विधान सभा चुनाव है, जो अगले वर्ष होने वाला है। इसके समय पूर्व होने की भी चर्चा है। राजद, कांग्रेस और वाम का गठबंधन से मुकाबला और एनडीए के भीतर नीतीश से ताल-मेल रखना निश्चित ही राजनीतिक कौशल का काम होगा, जिसे भाजपा नेतृत्व को करना होगा। जब नीतीश की जुगलबंदी राजद के साथ थी तब वहां नीतीश अधिक सहज थे। क्योंकि तेजस्वी ने चाचा-भतीजा की स्थिति बनाई हुई थी।सम्राट ऐसा नहीं कर सकते। क्योंकि यह उनके स्वभाव में ही नहीं है। ऐसे में नीतीश कुमार से उनकी कितनी और किस स्तर पर पटरी बैठती है, यह समय बताएगा। यह भी है कि नीतीश और सम्राट का सामाजिक आधार एक ही है। दोनों के साथ होने के असर को लालू प्रसाद चाह कर भी बहुत कमजोर नहीं कर सकते, लेकिन सम्राट की मुश्किलें भाजपा के भीतर से उभर सकती हैं। उनकी अयोग्यता यह है कि वह संघ से जुड़े कभी नहीं रहे हैं। उनका राजनीतिक प्रशिक्षण समाजवादी घराने में हुआ है। निश्चित तौर पर वह इस मामले में नीतीश और लालू से जूनियर हैं, लेकिन जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है उनका सामना तेजस्वी से होना है और इस नजरिये से वह उपयुक्त दिखते हैं।इस बीच उन्होंने कुछ अनुभव भी हासिल किया है और स्वीकार्यता भी, लेकिन भाजपा के संघी नेता कुपित हैं कि पार्टी में बाहरी लोगों का महत्त्व अधिक होता जा रहा है। वहां हिन्दू होना ही जरूरी नहीं है, संघी होना भी जरूरी है। अब हिन्दू में भी बाहरी-भीतरी का यह संघर्ष छिड़ा तो सम्राट के लिए मुश्किलें बढ़ेंगी और ये मुश्किलें अंतत: भाजपा की होंगी। उत्तर प्रदेश की तरह यदि बिहार में भाजपा की जड़ें कमजोर हुई तो केंद्र में उसका बने रहना मुश्किल होगा। बिहार की राजनीति इसलिए न केवल भाजपा के लिए बल्कि देश के लिए भी आने वाले समय में महत्त्वपूर्ण बनी रहेगी।




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