मोदी गठबंधन पूर्व गठबंधन सरकारों से अलग
- 28-Jun-24 12:00 AM
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अवधेश कुमारप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार ने अपना काम शुरू कर दिया है । भारत में गठबंधन सरकारों के काम करने और उसके संचालन का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। गठबंधन में सरकार का नेतृत्व करने वाले दल और नेता पर साथी दल अधिक से अधिक मंत्री बनाने और जिन्हें वो चाहते हैं उन्हें मंत्री के रूप में स्वीकार करने तथा बाद में अपने अनुसार नीतियां बनवाने या बदलवाने के लिए दबाव डालते रहें। अपनी बात न मानने पर समर्थन वापसी तथा सरकार के अस्थिर होने, गिर जाने, कमजोर हो जाने की घटनाएं भी हमने देखी हैं।जानते और चाहते हुए भी कई बार प्रधानमंत्री को नीतियों के स्तर पर वैसे कदम उठाने से स्वयं को रोकना पड़ा या उठाए हुए कदम वापस लेने पड़े जो देश के लिए आवश्यक थे। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान ऐसी कई घटनाएं हुई। इसमें प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान गठबंधन सरकार को लेकर कोई आशंका उठती है तो उसे इस पृष्ठभूमि में तत्काल खारिज भी नहीं किया जा सकता। हालांकि विपक्ष इसे कमजोर व लंगड़ी सरकार बता रहा है, प्रधानमंत्री मोदी के बारे में यह टिप्पणी कर रहा है कि वे शेर से बकरी हो गए हैं तो उससे पूछा जाना चाहिए कि इसके समानांतर अगर सत्ता में वे आते तो उनकी सरकार कैसी होती? कम से कम इस सरकार में एक इतनी बड़ी पार्टी है जिसके आसपास भी कोई दल नहीं। राहुल गांधी जी के शब्दों में अगर यह क्रिपल्ड सरकार है तो इंडियाÓ की सरकार क्या ठोस चट्टान वाली होती?कहने का तात्पर्य कि हमें आशंकाओं या विपक्ष की अतिवादी आलोचनाओं में जाने की जगह वास्तविकताओं के आधार पर इसके वर्तमान एवं भविष्य का आकलन करना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहिए कि आखिर अब मंत्रिमंडल गठन के बाद सरकार कैसे काम करेगी? सरकार की दिशा और दशा क्या होगी? यह बात सही है कि हमने पिछले 10 वर्षो में ऐसी मोदी सरकार देखी है जिसके पास अपनी भाजपा का बहुमत था और ऐसे बड़े फैसले हुए, कदम उठाए गए, संवैधानिक-प्रशासनिक एवं नीतियों के स्तर पर ऐसे आमूल बदलाव के निर्णय हुए जिनकी पहले कल्पना नहीं थी। स्वयं सरकार को और देश को 10 वर्षो के इस अभ्यास से बाहर निकालना कठिन होगा, लेकिन क्या वाकई इससे बाहर निकालने की अभी ही आवश्यकता महसूस होती है या संभावना दिखाई देती है?ध्यान रखिए कि पूर्व की गठबंधन सरकारों की तरह इस सरकार के गठन, मंत्रियों को सरकार में लेने या विभागों के बंटवारे में किसी तरह का खींचतान हमारे सामने नहीं आया। यह अन्य गठबंधन सरकारों से इसे अलग करता है। 72 सदस्यीय मंत्रिमंडल में साथी दलों के 11 मंत्रियों का होना ऐसी संख्या नहीं है जिसे लेकर इस आरोप को स्वीकार कर लिया जाए कि प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह पर साथी दलों का बहुत ज्यादा दबाव था। दूसरे, विभागों के बंटवारे में भी देखें तो जिन्हें जो मिला उसे लेकर कम से कम सार्वजनिक स्तर पर किसी ने भी अपना असंतोष प्रकट नहीं किया है। ज्यादातर का बयान यही है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में देश को विश्व की शीर्ष शक्ति बनाने के लिए काम कर रहे हैं।गठबंधन सरकारों में साथी दलों के नेता इस तरह बेहिचक प्रधानमंत्री का नाम नहीं लेते थे। तीसरे, इस सरकार की सबसे बड़ी विशेषता है, शीर्ष मंत्रालयों में फेरबदल न होना। आप देख लीजिए प्रधानमंत्री के बाद गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, वित्त मंत्रालय , विदेश मंत्रालय यहां तक कि शिक्षा मंत्रालय, सड़क परिवहन मंत्रालय आदि उन्हीं वरिष्ठ मंत्रियों के हाथ में है। सरकार गठन के पहले मीडिया में साथी दलों द्वारा अलग-अलग मंत्रालयों के मांग की अटकलें आ रही थी, जिनमें बिहार द्वारा रेल मंत्रालय की मांग शामिल थी।हालांकि इसकी कहीं से पुष्टि नहीं हुई। कहने का यह अर्थ नहीं कि साथी दलों की अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं और महत्त्वाकांक्षाओं के अनुरूप चाहत नहीं होगी और उन्होंने प्रधानमंत्री या अन्य वरिष्ठ भाजपा नेताओं के समक्ष अपनी बात रखी ही नहीं होगी। आगे भी वह अपनी बात नहीं रखेंगे ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। मूल बात है जिद पर अडऩा और सरकार को मजबूर करके अपने अनुकूल निर्णय बदलवा लेना। उदाहरण के लिए यूपीए सरकार में तृणमूल कांग्रेस की ओर से रेल मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी ने अपने बजट में यात्रियों का जैसे ही किराया बढ़ाया ममता बनर्जी बिफर गई। उन्होंने न केवल बजट में परिवर्तन करने बल्कि रेल मंत्रालय से हटाने का फरमान सुनाया और मनमोहन सरकार को ऐसा ही करना पड़ा। कम से कम वह स्थिति इस समय सरकार में नहीं दिख रही है।इसी तरह किसी सरकार के नेतृत्वकर्ता की अपनी आभा, देश और काम के प्रति समर्पण तथा उसका दृष्टिकोण व लक्ष्य सबसे ज्यादा प्रभावकारी होता है। इस मायने में प्रधानमंत्री मोदी का नेतृत्व अन्य कई प्रधानमंत्रियों से अलग है। साथी दलों में जद (यू) और तेलुगू देशम पहले भी केंद्र और प्रदेश में साथ काम कर चुकी है। उन्हें पता है कि प्रधानमंत्री देश के लिए व्यापक विजन रखते हैं उसमें सभी राज्यों के विकास की उनकी कल्पना है। तो उन्हें नीतियों को लेकर कोई संभ्रम नहीं होगा। वैसे, आमतौर पर गठबंधन सरकारों में यह मांग होती है कि कॉमन मिनिमम प्रोग्राम यानी समान न्यूनतम कार्यक्रम बनाकर आगे काम किया जाए। न राजग के नेताओं ने चुनाव में जाने के पहले ऐसी मांग की और न सरकार गठन के पूर्व। भाजपा को बहुमत न मिलने के बाद उनके पास इसका अवसर था और वैसा कर सकते थे। अगर उन्होंने मांग नहीं किया तो इसका अर्थ यही है कि पूर्व सरकार की ओर से जो एजेंडा रखा गया है उससे वह सहमत हैं। यह भी ध्यान रखिए कि भाजपा ने पिछले 10 सालों में अपने हिंदुत्व व राष्ट्रवाद संबंधी एजेंडा पर खुलकर काम किया है और शेष कार्यों के लिए उन्होंने घोषणाएं भी की है। इस समय भविष्य की तस्वीर के बारे में निश्चिंतता के साथ पूरी तरह भविष्य की तस्वीर बनाने की बजाय हमें थोड़ी प्रतीक्षा करनी चाहिए। हां , इतना अवश्य कहा जा सकता है कि पूर्व की गठबंधन सरकारों से वर्तमान मोदी गठबंधन सरकार अपने चरित्र, आंतरिक संरचना व सामूहिक मनोविज्ञान आदि के स्तर पर काफी हद तक अलग है।
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