राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र चुनाव आयोग में पंजीकृत हो

  • 24-Apr-24 12:00 AM

रघु ठाकुरलोकतांत्रिक देशों में चुनाव के समय घोषणा पत्र जारी करने का चलन रहा है। दरअसल घोषणा पत्र का चलन संबंधित पार्टी के द्वारा आने वाले समय में कौन से काम को हाथ में लेंगे और क्या होना चाहिए इसका एक विवरण या पांच वर्षीय कार्यक्रम जैसा होता है। परंतु पिछले कुछ दशकों से यह अनुभव हो रहा है कि राजनीतिक दल विशेषतरू जो सत्ताधारी या सत्ता के नजदीक हैं, वह घोषणाएं तो बहुत करते हैं परंतु उसके ऊपर अमल नहीं करते हैं। घोषणा पत्रों के स्वरूप भी अब बदल रहे हैं।1952 से लेकर 1967 तक के दलों के चुनाव घोषणा पत्रों को देखें तो उनमें मुख्यतरू नीति परिवर्तन के संदेश और वायदे ज्यादा होते थे। परंतु अब घोषणा पत्र नीति परिवर्तन के बजाय वोट खरीदने के मंत्र बन रहे हैं। और घोषणा पत्र में मुख्यतरू राहत की बातों की चर्चा ही मुख्य होती है कि अगर सरकार बनती है तो कौन-कौन सी रियायत मतदाताओं को देंगे। मैं रियायतों के खिलाफ नहीं हूं। परंतु रियायतें स्थानी नहीं होनी चाहिए वरना वह लोकतांत्रिक विफलता में बदल सकती हैं। रियायतें एक अस्थाई संक्रमणता व्यवस्था हो जो आमजन को समर्थ बनाने की अवधि के बीच की मदद हो परंतु आमतौर पर दलों का लक्ष्य स्थाई विकलांगता पैदा करना हो गया यानि समर्थ न बनाकर निरंतर कमजोर रखना तथा मदद के नाम पर वोट हासिल करते रहना एक स्थाई रणनीति बन गई है।इस 2024 के लोकसभा चुनाव का जो घोषणा पत्र कांग्रेस ने जारी किया है उसमें यह कहा है कि गरीब महिलाओं को हर साल 1 लाख रुपए देंगे। भारतीय जनता पार्टी भी इसके पहले चुनाव में लगभग ऐसी ही अन्य घोषणाएं करती रही।उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 5०० रुपए तक के किसानों के कर्ज माफ करने का ऐलान किया था और इस आधार पर उन्हें वोट भी मिला, बाद में छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने भी किसानों के कर्ज माफी का ऐलान किया और उन्हें भी किसानों का समर्थन मिला। पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने भी यह वादा किया कि हम हर किसान को साल का रु. 6000 किसान सम्मान निधि देंगे और किसान उनकी ओर कुछ उन्मुख भी हुए।कुल मिलाकर स्थिति यही है प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से कुछ राहत के नाम पर रुपयों का लालच देकर पार्टियां वोट खरीदती हैं। प्रत्याशियों के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर मतदाताओं को आर्थिक लाभ पहुंचाना या कोई सुविधा देना चुनावी कानून की दृष्टि से अपराध है और इस अपराध के लिए उनके चुनाव भी रद्द हो सकते हैं, परंतु राजनीतिक दलों के द्वारा घोषणा पत्र के नाम पर यह थोकबंद खरीद चुनावी अपराध नहीं मानी जाती। सार्वजनिक रूप से ऐलान करके इस प्रकार से मतदाताओं को ललचाते हैं और वोट लेते हैं।घोषणा पत्र जारी करने की प्रक्रिया में एक और परिवर्तन आया है कि आम तौर पर घोषणा पत्र पार्टियां बगैर किसी सामाजिक और आर्थिक आंकलन के करती हैं। 1952 के बाद लगभग 2-3 दशकों तक पार्टियां जो घोषणा पत्र जारी करती थीं उनके पीछे एक उत्तरदायित्व की भावना तथा वस्तुपरक आंकलन होता था कि वहघोषणा कैसे पूरी कर सकेंगे? जिनके लिए वे जरूरी मानती हैं। क्या देश के आर्थिक हालात इसके लिए समर्थ होंगे। मुख्यतरू उनके चुनाव घोषणा पत्र में नीति निर्माण के ऊपर जोर दिया जाता था। अब पार्टियों के जो घोषणा पत्र जारी हो रहे हैं वह इतने लंबे चैड़े हो रहे हैं कि उन्हें याद रखना जनता को तो दूर पार्टी के नेताओं को भी याद रखना संभव नहीं बचा है। पाँच सौ हजार वायदे और अलग-अलग क्षेत्रों के वायदे वाले इन चुनाव घोषणा पत्रों में सौ-सौ पेज तक होते हैं। इन चुनाव घोषणा पत्र को ना तो पार्टी वाले और ना मतदाता पढ़ते हैं। कोई विशिष्ट मुद्दे पर या किसी विशिष्ट राहत की घोषणा पर देश में चर्चा हो जाती है, परंतु उसका कोई महत्व नहीं होता। अभी जो चुनाव घोषणा पत्र जारी हुए हैं इनमें उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी ने भी कल घोषणा की है कि छोटे किसानों को प्रति माह प्रति किसान रु. 5000 की सहायता दी जाएगी। यह ढाई एकड़ से कम भूमि वाले किसानों को दी जाएगी। मैं नहीं जानता हूं कि उन्होंने इसका कोई आंकड़ा निकाला है? क्योंकि अगर निकाला होता तो वह उनकी भी संख्या भी जारी करते। इसी प्रकार हर मजदूर को रु. 5000 प्रतिमाह पेंशन देने का वादा किया है। सामान्य मजदूरी वाले मजदूरों की संख्या अनुमानतरू देश में (खेती और गैर खेती वाले मिलाकर) लगभग 30 करोड़ के आसपास होगी। यानी प्रति महीने लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपए और साल का 18 लाख करोड़ रुपए अकेले इन मजदूरों की पेंशन पर खर्च होगा। कल्पना करिए कि 30 लाख करोड़ के बजट में से 18 लाख करोड़ रुपए क्या केवल मजदूरों की पेंशन पर दिया जाना संभव होगा? जबकि स्थिति यह है कि देश के बजट का 25 से 30 प्रतिशत केवल वेतन भुगतान पर खर्च होता है व लगभग इतनी ही राशि राशि पेंशन भुगतान पर खर्च होती है। लगभग 20 प्रतिशत कर्ज के भुगतान पर खर्च होता है। तो कहां से मजदूरों को या छोटे किसानों को पेंशन मिलेगी। इसकी कोई गणना किए बगैर केवल एक घोषणा जारी करना यह राजनीति का आम चलन हो गया है। यही स्थिति लगभग सत्ताधारी दल या सत्ता आकांक्षी तथा कथित बड़े दलों की हो गई है कि वह भी मनमानी घोषणाएं कर रहे हैं।प्रधानमंत्री जी तो पार्टी घोषणा पत्र जारी किए बगैर ही पिछले लगातार दो माह से प्रतिदिन हजारों लाखों करोड़ की घोषणा करते रहे हैं। यह पूरी होगी कैसे होंगी, यह कहना संदिग्ध है। हालत यह है कि पार्टियां घोषणा पत्रों के प्रति कितनी जिम्मेदार हैं अगर यह जानना हो तो इसी से जाना जा सकता है कि चुनाव के दो चरण के लगभग पूरा होने के करीब हैं तब जाकर कुछ दलों ने घोषणा पत्र जारी किए हैं। कांग्रेस का घोषणा पत्र भी अभी दो दिन पहले ही आया है जबकि चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुए 20-25 दिन हो चुके हैं। समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र कल आया और भारतीय जनता पार्टी का जो देश की सत्ताधारी पार्टी है, का भी 15 अप्रैल 2024 को जारी हुआ है। कई बार ऐसे अनुभव आए हैं कि कई चरणों के चुनाव पूरा होने के बाद या चुनाव प्रक्रिया लगभग समाप्ति के पहले घोषणा पत्र जारी करते हैं। इन घोषणा पत्रों के पीछे ना कोई ठोस योजना है, ना कोई आधार है, ना कोई आंकलन होता है। दरअसल अगर सच शब्दों में कहा जाए तो राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र आम मतदाता के लिये ठगपत्र माने जाने चाहिए। हम लोगों ने कई बार लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी की ओर से भारत के चुनाव आयोग से यह मांग की कि पार्टियों के घोषणा पत्र चुनाव के कम से कम से एक माह पहले जारी हों तथा इन घोषणा पत्रों का पंजीयन चुनाव आयोग में हो। इसके लिए पार्टियों से उनके आर्थिक आंकलन और पूर्ति के वचन का शपथ पत्र लिया जाए। यह कार्यक्रम भी समयबद्ध होना चाहिए। अगर कोई पार्टी सरकार में आने के बाद अपने घोषणा पत्र को उक्त समय में पूरा नहीं करती है तो फिर उस पार्टी की मान्यता और पंजीयन को समाप्त करना चाहिए तथा उसके शपथ पत्र देने वाले अध्यक्ष या नेताओं के ऊपर धारा 420 के अपराध का मुकदमा चलना चाहिए।हिंदुस्तान के सुप्रीम कोर्ट को मैं बधाई देना चाहता हूं कि उन्होंने झूठे विज्ञापन देने के आधार पर बाबा रामदेव और और पातंजलि के मुखिया आचार्य बालकृष्ण के माफीनामा को भी स्वीकार नहीं किया और और स्पष्ट संकेत दिया है कि उन्हें दंडित किया जाएगा। जिस प्रकार बाजार में झूठे विज्ञापन यानी झूठे वादे के आधार पर सामान को बेचना खरीददारों को गुमराह कर उन्हें खरीद को प्रेरित करना अपराध है उसी प्रकार राजनीति में दलों के द्वारा जनता को झूठे वचन देना और मतदाताओं को गुमराह करना भी अपराध माना जाना चाहिए और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए।एक और नई बात अभी सामने आई है कि पिछले कुछ दिनों से जो गठबंधन बन रहे हैं वह राजनीतिक रूप से, विचार के रूप से आमतौर पर बेमेल व केवल कुर्सी परक होते हैं और इसका परिणाम यह हो रहा है कि जो घोषणा पत्र बनते हैं वह आमतौर पर गठबंधनों के नहीं होते, बल्कि दलों के निजी होते हैं। सरकार अगर बनेगी तो गठबंधन बनायेगा और घोषणा पत्र यानी वचन पत्र राजनीतिक दल पृथक से देंगे। जबकि होना यह चाहिए कि जब कोई गठबंधन बनता है तो उनका घोषणा पत्र सामूहिक वचन पत्र होना चाहिए और गठबंधन की संयुक्त जवाबदेही होना चाहिए। गठबंधन के दलों के अलग-अलग घोषणा पत्र जारी करना यह भी लोगों को धोखा देने का प्रयास है। कांग्रेस पार्टी सीएए का विरोध कर रही है और उन्होंने यह भी कहा है कि अगर उनकी सरकार बनेगी तो वह नागरिकता संशोधन अधिनियम को समाप्त करेंगे परंतु उनके गठबंधन के प्रमुख दल डीएमके ने अपना जो घोषणा पत्र जारी किया है उसमें सीएए को स्वीकार किया है और यहां तक कहा है और कि वह श्रीलंका के तमिल लोगों को जो भारत की नागरिकता चाहेंगे उन्हें नागरिकता देंगे। अब यह कितनी विचित्र स्थिति है कि गठबंधन का प्रमुख कहेगा कि हम सीएए समाप्त करेंगे और उसका घटक दल कहेगा कि हम लागू करेंगे। ऐसी ही विचित्र परिस्थिति उत्तर पश्चिम की है जहां पर एनडीए यानी कि भाजपा के सहयोगी दल यह कह रहे हैं कि हम सीएए को नहीं मानते और भाजपा उसे अपनी उपलब्धि मानती है। भाजपा कहती है की गौ हत्या अपराध है और उस पर रोक लगाएंगे और उनके सहयोगी दल यहां तक कि उनके अपने दल के मुख्यमंत्री कहते हैं कि मैं गोमांस खाता हूं। गौमांस या गौहत्या पर कोई रोक नहीं लगी, कुल मिलाकर राजनैतिक दल भी जनता को गुमराह कर रहे हैं और गठबंधन भी।देश में बड़ी मात्रा में छोटी पार्टियां भी है जो संघटनात्मक तौर पर या संसद व विधानसभा में भागीदारी के तौर पर बहुत ही कमजोर स्थिति में है या नहीं है। उनकी कमजोरी के कारण पर मैं यहां बहस नहीं करूंगा। इन दलों में भी दो प्रकार के दल हैं। कुछ एक दल निजी कारणों से बनाए गए हैं परंतु कुछ एक दल विचारधारा के आधार पर भी बने हैं। इन छोटे दलों के घोषणा पत्र या तो जारी नहीं हो पाते और अगर हो जाएं तो उनकी चर्चा मीडिया में नहीं हो पाती। क्योंकि इनके पास अपने घोषणा पत्र को मीडिया में लाने के लिए ना तो पर्याप्त आर्थिक ताकत होती है और ना राजनीतिक ताकत होती है। छोटी पार्टियों को या वैचारिक पार्टियों का एक संकट यह भी होता है कि जब कोई दल मुश्किल से 10-20 क्षेत्रों में ही लड़ रहा है तो वह घोषणा पत्र क्या जारी करें। क्योंकि जनता भी उनका या तो मजाक उड़ाती है या उन्हें गंभीरता से नहीं लेती। ये कम सीटों पर लडऩे वाले ना तो सरकार बनाने का दावा कर सकते हैं ना ही बड़े प्रतिपक्षी दल होने का और इसलिए उनका घोषणा पत्र अचर्चित रहता है। दूसरे उनके प्रसार की क्षमता बहुत कम होती है और आजकल तो प्रिंटिंग प्रेस वाले भी इतने कम संख्या के घोषणा पत्र की छपाई नहीं करते क्योंकि उन्हें वह कोई बहुत लाभप्रद काम नहीं लगता है। बहुत सारे ऐसे भी छोटे दल हैं जो नितांत निजी कारणों से या बड़े राजनीतिक खिलाडिय़ों के छिपे हुए लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बनवाए गए हैं। उन्हें घोषणा पत्र की कोई आवश्यकता नहीं होती। मेरा सुझाव है कि भारत का चुनाव आयोग निम्न बाध्यकारी नियम बनाए रू-1 -हर पार्टी को यह अनिवार्य किया जाए कि वह चुनाव की घोषणा के एक माह पहले अपने घोषणा पत्र और आंकलन पत्र तथा शपथ पत्र चुनाव आयोग में जमा कराएं ताकि चुनाव आयोग भी उनके उत्तरदायित्व का और घोषणाओं का आंकलन कर निर्णय कर उनकी व्याहारिकता का निर्णय कर सके2 -इन घोषणा पत्रों या वचन पत्रों का पंजीयन चुनाव आयोग में हो।3 -घोषणा पत्र को मीडिया में प्रकाशित करने का दायित्व चुनाव आयोग वहन करें और प्रिंट मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या यूट्यूब चैनल पर सभी पर बाध्यता हो कि वह चुनाव आयोग द्वारा जारी किए गए घोषणा पत्र को क्रमशरू प्रकाशित करेंगे और देश को दिखाएंगे।4 - घोषणा पत्रों की प्रति उन चुनाव क्षेत्र में चुनाव आयोग के मशीन के द्वारा वितरित कराई जाए जहां उक्त पार्टी या व्यक्ति चुनाव लड़ रहे हैं।5 -जो पार्टी सत्ता में आने के बाद अपने घोषणा पत्र को पूरा ना करें उसकी मान्यता समाप्त हो।6 - पार्टियों के घोषणा पत्रों का आर्थिक आंकलन और व्यावहारिकता का आंकलन चुनाव आयोग कराए और तदानुसार निर्णय करे।




Related Articles

Comments
  • No Comments...

Leave a Comment