राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मोदी से बेहद खफा

  • 14-Jun-24 12:00 AM

अजय सेतियाजिस बात का खंडन किया जा रहा था, या जिस पर बोलने से इंकार किया जा रहा था, वह बात अब खुल कर सामने आ गई है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा, भाजपा सरकार और खासकर नरेंद्र मोदी से बेहद खफा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत या कोई बड़ा पदाधिकारी मोदी के शपथ ग्रहण में शामिल नहीं हुआ था।अब सरसंघचालक मोहन भागवत का बयान सामने आ गया है, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना कहा - सच्चे सेवक में अहंकार नहीं होता और वह दूसरों को कोई चोट पहुंचाए बिना काम करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे जिन्होंने कहा था कि वह प्रधानमंत्री नहीं प्रधान सेवक हैं।मोहन भागवत के शब्दों को देखिए - एक सच्चा सेवक काम करते समय मर्यादा बनाए रखता है... जो मर्यादा बनाए रखता है, वह अपना काम करता है, लेकिन अनासक्त रहता है। इसमें कोई अहंकार नहीं है कि मैंने यह किया है। केवल ऐसे व्यक्ति को ही सेवक कहलाने का अधिकार है। मोहन भागवत ने संभवत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ ही इशारा करके कहा है कि चुनाव में शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखा गया। रविवार को शपथ ग्रहण के बाद अगले दिन जिस समय नई गठबंधन सरकार की पहली कैबिनेट बैठक हो रही थी, ठीक उसी समय मोहन भागवत नागपुर में स्वयंसेवकों के विकास वर्ग के समापन कार्यक्रम में आरएसएस पदाधिकारियों और स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे थे।चुनावों के दौरान ऐसी कई खबरें आई थीं कि संघ के स्वयंसेवक इस बार भाजपा उम्मीदवारों के लिए पहले जैसी ऊर्जा से काम नहीं कर रहे। ये खबरें कितनी सही थी, कितनी गलत, यह नहीं कहा जा सकता, लेकिन चुनाव नतीजों के बाद इन खबरों को ज्यादा हवा मिली कि यह संघ की नाराजगी का प्रतिफल है कि भाजपा को महाराष्ट्र, कर्नाटक, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान और हरियाणा में काफी सीटों का नुकसान झेलना पड़ा। सरसंघचालक मोहन भागवत के इन दो वाक्यों ने इसकी पुष्टि ही की है कि संघ कुछ कारणों से भाजपा से नाराज है। चुनावों के दौरान ऐसी दो बातें हुई थीं, जिनसे संघ की तथाकथित नाराजगी की खबरें बनी थी। एक तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का वह बयान था, जिसे मीडिया ने तोड़ मरोड़ कर पेश किया था कि भाजपा संघ पर निर्भर नहीं है, वह सक्षम है, और उसे संघ की जरूरत नहीं है। हालांकि जेपी नड्डा ने एक इंटरव्यू में ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया था।जेपी नड्डा ने कहा था कि - हर किसी का अपना काम है, आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन है और भाजपा राजनीतिक संगठन है। शुरुआत में हम कम सक्षम थे और हमें आरएसएस की जरूरत थी। आज हम बड़े हो गए हैं और हम सक्षम हैं, भाजपा खुद को चलाती है, यही अंतर है। दोनों संगठनों में एक दूसरे का बहुत सम्मान है। मीडिया में कुछ लोग आरएसएस और भाजपा संबंधों पर अटकलें लगाना पसंद करते हैं। वे षड्यंत्र के सिद्धांत और मिथक फैलाते हैं। लेकिन उनके इस कथन को अन्य मीडिया ने उसी तरह तोड़मरोड़ कर पेश किया जैसी नड्डा ने आशंका व्यक्त की थी। नड्डा ने यह कभी नहीं कहा था कि भाजपा को संघ की जरूरत नहीं है। यह बिलकुल वैसा ही हो गया, जैसे करीब 30 साल पहले दिल्ली के एक हिन्दी दैनिक में छपे एक लेख ने गोविन्दाचार्य की ओर से अंग्रेजी में कहे गए एक शब्द का हिन्दी रूपान्तर ऐसा कर दिया था कि अटल बिहारी वाजपेयी बुरा मान गए थे। एक विदेशी प्रतिनिधिमंडल भाजपा मुख्यालय में पार्टी महासचिव गोविन्दाचार्य से मिलने आया था। बातचीत में प्रतिनिधिमंडल के सदस्य ने पूछा कि आप कांग्रेस का विकल्प कैसे बन सकते हैं, जबकि आपके नेता लालकृष्ण आडवानी कट्टर हिंदूवादी नेता के तौर पर माने जाते हैं। तो गोविंदाचार्य ने कहा था कि अवर फेस इज ए वेरी लिबरल अटल बिहारी वाजपेयी। यानी पार्टी का चेहरा बहुत ही उदारवादी अटल बिहारी वाजपेयी हैं, लेकिन लेख में चेहरे की जगह अटल बिहारी वाजपेयी को मुखौटा लिखा गया था। लेकिन मीडिया की ओर से फैलाई गई झूठी खबर का संघ स्वयंसेवकों पर असर नहीं पड़ा होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर नहीं गए थे। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मणिपुर में दो समुदायों के बीच हुई हिंसा पर भी बोला। विपक्ष ने चुनावों में आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जानबूझ कर मणिपुर की अनदेखी की। मणिपुर का जिक्र करते हुए मोहन भागवत ने कहा, हर जगह सामाजिक वैमनस्य है, यह अच्छा नहीं है। पिछले एक साल से मणिपुर शांति का इंतजार कर रहा है। पिछले एक दशक से यह शांतिपूर्ण था। ऐसा प्रतीत होता था कि पुराने समय की बंदूक संस्कृति ख़त्म हो गई थी, लेकिन बंदूक संस्कृति अचानक फिर उभर आई, या उभारी गई। भागवत ने एक तरह से सरकार पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कहा कि मणिपुर आज भी जल रहा है, इस पर कौन ध्यान देगा? इससे प्राथमिकता से निपटना सरकार का कर्तव्य है। तो एक तरह से उन्होंने कहा कि पिछले सात आठ महीनों से सरकार अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रही है। एक और घटना थी, जिस कारण संघ की नाराजगी की अवधारणा को बल मिला। वह घटना यह थी कि भाजपा ने उस कृपाशंकर सिंह को भाजपा में प्रवेश और उत्तर प्रदेश की जौनपुर सीट से लोकसभा का टिकट दे दिया था, जिसने मुम्बई में हुए 26/11 के आतंकी हमले को आरएसएस की साजिश बताया था। कांग्रेस के कई नेताओं, वामपंथी बुद्धिजीवियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों ने यह नेरेटिव बनाने की कोशिश की थी कि मुम्बई के हमले में पाकिस्तान का हाथ नहीं है। राष्ट्रीय सहारा के उर्दू अखबार रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के संपादक अज़ीज़ बर्नी ने इस पर किताब लिख दी थी, जिसका शीर्षक था- आरएसएस की साजिश 26/11। मुम्बई में इस किताब का विमोचन कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह, उस समय मुम्बई कांग्रेस के अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह, महेश भट्ट और जमियत उलेमा ए हिन्द के अध्यक्ष महमूद मदनी ने मिल कर किया था। जनवरी 2011 में अज़ीज़ ने अपनी मनगढ़ंत किताब के लिए आरएसएस से माफी मांग ली थी। लेकिन भाजपा ने उसी कृपा शंकर सिंह को भाजपा में प्रवेश दे दिया, जिसने आरएसएस के खिलाफ झूठा नेरेटिव गढने वाली किताब का विमोचन किया था। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत चुनावों में इस्तेमाल की गई भाषा और विपक्ष की ओर से बिना वजह आरएसएस को घसीटे जाने से भी क्षुब्ध दिखाई दिए, जब उन्होंने कहा कि चुनावों को एक प्रतियोगिता के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि युद्ध के रूप में। जिस तरह की बातें कही गईं, जिस तरह से दोनों पक्षों ने एक-दूसरे को आड़े हाथों लिया... जिस तरह से किसी ने भी इस बात की परवाह नहीं की कि किस वजह से सामाजिक विभाजन पैदा हो रहा है।...और बिना किसी कारण संघ को इसमें घसीटा गया...तकनीक का इस्तेमाल कर झूठ फैलाया गया। क्या ज्ञान का उपयोग इसी तरह किया जाना चाहिए? ऐसे कैसे चलेगा देश? फिर बिना नरेंद्र मोदी या भाजपा के अन्य नेताओं का नाम लिए मोहन भागवत ने कहा कि वह विपक्ष को विरोध पक्ष नहीं कहते, वह इसे प्रतिपक्ष कहते हैं और प्रतिपक्ष विरोधी नहीं होता, प्रतिपक्ष भी एक पक्ष को उजागर कर रहा है और इस पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। भागवत ने कहा कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। दोनों पहलुओं की जानकारी लेकर ही निर्णय लेने की हमारी परम्परा रही है।




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