लोगों के जीवन की कोई कीमत नहीं

  • 01-Feb-25 12:00 AM

श्रुति व्यासमौत की गंध को, थकावट को, निराशा को, दु:ख को वे लोग महसूस कर रहे थे, जो वहां मौजूद थे और इंसान थे! दोपहर होते होते फिर भगदड़Ó को भगदड़-जैसे हालातÓ बना दिया गया। हकीकत को अफवाह बताया जा रहा था। आस्था की सराहना और उसके प्रति श्रद्धा दिखाना जारी था।एक छोटी बच्ची, थोड़ी देर पहले ही संगम में डुबकी लगाई थी। बाल अभी भी गीले थे, लेकिन शरीर ठंडा, मृत पड़ा था। एक थका-हारा आदमी ज़मीन पर पसरा हुआ था।वह खड़ा होने को तैयार नहीं था। उसकी आंखों में नाउम्मीदी साफ नजर आ रही थी। उसका दिल हमेशा के लिया उसका साथ छोड़ कर जा चुकी उसकी पत्नी को याद कर बैठा जा रहा था।समय- मंगलवार रात डेढ़ बजे, संगम के तट पर आस्था ने एक बेकाबू सैलाब बनाया। श्रद्धालुओं के बीच धक्कामुक्की हुई, और जो भी चीज या व्यक्ति रास्ते में आया, वह उसे कुचलता गया।लोग एक दूसरे के ऊपर चढ़ गए, एक दूसरे को धकेलते गए और एक दूसरे के पीछे भागते गए। संगम स्थल पहुंचने के लिए आस्था पागलपन और दीवानेपन की हद तक पहुंच गई थी। और 29 की सुबह, उस शुभ, पवित्र घडी, एक त्रासदी घट गई।सुबह 3.43 बजे मेरे मोबाइल पर मैसेज आया: कुंभ में भगदड़। कई लोगों की मौत। हम घटनास्थल पर मौजूद थे। रात 1.30 बजे आशीष कई अन्य पत्रकारों के साथ संगम की ओर जा रहे थे।और उन्होंने अफरातफरी और जन सैलाब के नतीजे में लोगों को मरते हुए अपनी आंखों से देखा। उन लोगों के घटनास्थल तक पहुंचने के पहले ही दुर्घटना का सबसे खतरनाक वक्त बीत चुका था।बाड़ें टूट चुकी थीं, लाशें पड़ी हुई थीं और घायल कराह रहे थे। बरबादी और जड़ता के माहौल में चारों ओर अव्यवस्था थी।अफसर, पुलिसवाले और पीडि़तों की मदद में जुटे लोग बदहवास इधर उधर दौड़ रहे थे, छानबीन कर रहे थे, भ्रमित थे और घबराए हुए भी। मौके पर मौजूद एक अन्य पत्रकार ने संदेश भेजा मैंने एम्बुलेंस में 15 लाशों को जाते हुए देखा है।हालांकि सुबह पांच बजे तक, बुधवार शाम तक घटना के बारे में कोई आधिकारिक सूचना जारी नहीं की गई थी। मगर लोग रात को सब देखते हुए तो थे।सरकारी पत्थर दिल भोंपू संगम की ओर बढ़ते जनसमुद्र की तस्वीरें दिखाते हुए अफवाहोंÓ पर ध्यान नहीं देने की अपील कर रहे थे।अंतत: सुबह 5.30 बजे- दुर्घटना के पूरे चार घंटे बाद- स्पेशल एग्जीक्यूटिव ऑफिसर आकांक्षा राणा ने एक वक्तव्य जारी कर बताया कि संगम के मार्ग में भगदड़ जैसे हालात बन गए थे।इस बीच ट्विटर हैंडल पर कुंभ में आए विदेशियों, नागा साधुओं और महानिर्वाणी अखाड़ा के जनक गिरी के संगम की ओर बढऩे के वीडियो डाले जा रहे थे।हालांकि घटनास्थल पर मौजूद स्थानीय पत्रकारों को अखाड़ों के माध्यम से यह सूचना मिली थी कि शाही स्नान रद्द कर दिया गया है। लेकिन अधिकारियों द्वारा आधिकारिक तौर पर कोई जानकारी तब तक भी नहीं दी जा रही थी।इस बीच मैं किसी भी ताजा खबर के लिए अपने व्हाटसएप पर नजर रखे हुए थी और बीच बीच में मेले में मौजूद लोगों को फ़ोन भी लगा रही थी।सुबह छह बजे लंदन के गार्जियनÓ ने खबर को अंतरराष्ट्रीय बना दिया: जानलेवा भीड़ ने भारत के कुंभ मेले में लोगों को कुचला। विदेशी मीडिया को अब पिछली देर रात को हुई दुर्घटना की तस्वीरें, वीडियो और खबरें मिलने लगी थीं।इसके बाद धीरे धीरे खबरें आने का सिलसिला शुरू हुआ और भारतीय मीडिया नींद से जागा। भगदड़ जैसे हालातÓ को भगदड़Ó कहा जाने लगा। हमारे मीडिया ने मृतकों की संख्या बताने से परहेज किया।लेकिन सुबह 6.30 बजे एएफपी ने खबर दी कि उन्होंने जिस डॉक्टर से बात की है उसने बताया कि हादसे में 15 लोगों की मौत हो चुकी है।सुबह सात बजे से स्थितियां साफ होने लगीं। भगदड़ हुई थी। घटनास्थल की तस्वीरों और वीडियो से स्पष्ट हुआ कि वहां अफरातफरी के हालात थे। लोग अपने सामानों के ढेरों के ऊपर गिरे थे। तस्वीरों में जमीन पर पड़ी लाशें भी नजर आ रहीं थीं।थोड़ी देर बाद फिर सच को धुंध में गुम करने में माहिर लोगों ने मीडिया का मोर्चा संभाल लिया। खबर की गंभीरता को कम करके बताया जाने लगा।प्रधानमंत्री ने मोर्चा संभाला और मुख्यमंत्री योगी को तीसरा फोन कॉल करके हर प्रकार की सहायता मुहैय्या करने का आश्वासन दिया। गृह मंत्री भी हरकत में आए।संतों को बुलाया गया और उन्होंने मीडिया को एक सुर में बाइट्स दीं: इसमें प्रशासन की कोई गलती नहीं है। वहां बहुत ज्यादा लोग थे। एक ने कहा, ऐसी घटना 1954 में जब नेहरू जी प्रधानमंत्री थे तब भी हुई थी।इस बीच मुख्यमंत्री ने जनता से अपील की कि वे अफवाहों पर ध्यान न दें। शाही स्नान की इजाजत दिए जाने की बातें होने लगीं। टीवी समाचार चैनलों में हेडलाइनें चलने लगीं दस की मौत के बाद भी आस्था अडिग।टीवी स्क्रीनें फिर बदल गईं। विशाल जनसमूहों के प्रयागराज में उमडऩे की ड्रोन से ली गईं तस्वीरें दिखाई जाने लगीं।इस बीच राजनीतिक रोटियों सेंकना शुरू हो गया। एक दूसरे को दोषी ठहराने का खेल शुरू हुआ। आखिर मनुष्यों की जान की कीमत ही क्या है।ऑस्कर वाइल्ड ने लिखा था, कुछ लोग हर चीज़ का दाम जानते हैं मगर किसी चीज़ की कीमत नहीं जानते।ये शब्द भारत में इंसानी जिंदगी के बारे में जितने सार्थक और सही हैं, उतने किसी और संदर्भ में नहीं हैं। हमें इसके बारे में साफ साफ कहने में संकोच हो सकता है, होता है।या हम एक देश के रूप में इसके बारे में बात करने से कतरा सकते हैं। लेकिन वास्तविकता है कि भारत में इंसानी जिंदगी की, लोगों के जीवन की कोई कीमत नहीं है।हमारे राजनेता और उनके अधिकारी- चाहे वे किसी भी पार्टी के हों- रोजाना मनुष्य के जीवन की रुपयों में कीमत लगाते हैं। रुपयों से खरीदते है। रुपयों में तौलते हैं।लोकतांत्रिक प्रणाली में होने वाले चुनाव में आए दिन कीमत का पैमाना तय होता हैं। सत्ता की कीमत होती है, मगर इंसानों की कोई कीमत नहीं होती।अंतिम नतीजा लोगों को उनके जीने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है, भयमुक्त रहने की आजादी छीन ली जाती है। यहां तक कि उनसे एक गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार भी छीन लिया जाता है।जैसा कोविड के दौरान हुआ था, गंगा तब शववाहिनी हो गई थी, मगर माना नहीं गया था। हजारों भारतीयों की मौतों को स्वीकारा नहीं गया।ठीक महाकुंभ के सबसे पुण्यदायी दिन में भी आंखों के अनुभव के आगे सुनने को मिला कि, अफवाहों पर ध्यान नहीं दें!11 बजते बजते प्रयागराज में आने के सभी रास्तों को बंद कर दिया गया। यह एक ऐसी खबर थी जो केवल मैदानी मौजूदगी वाले स्थानीय पत्रकारों को पता लगी।तब तक 8-10 करोड़Ó भारतीय पवित्र संगम में डुबकी लगा चुके थे। हमारे टीवी और मोबाइल फोनों की स्क्रीनों पर श्रद्धालुओं के बिना किसी हड़बड़ी के घाटों की ओर बढऩे के चित्र दिखाए जाने लगे।आधिकारिक वक्तव्यों में पुरानी बात को ही दुहराया जाना जारी रहा: सुबह बड़ी भीड़ का भारी दबाव था। सुरक्षा बढ़ा दी गई थी। प्रशिक्षित कुत्तों को तैनात कर दिया गया।न इस बारे में एक शब्द कहा गया कि कितने लोगों ने जान गंवाई और ना ही त्रासदी का जिक्र किया गया, बल्कि अखाड़ों के शाही स्नान की तैयारियां शुरू हो गईं।कुंभ के विभिन्न सेक्टरों में भगदड़ों की खबरें पत्रकारों के व्हाट्सएप समूहों में घूमती रहीं। खोया-पायाÓ की घोषणाओं से माहौल भारी हो रहा था। सायरन बजाती एम्बुलेंसें यहां से वहां भाग रही थीं।लेकिन, शहर का माहौल आस्थापूर्ण बना रहा। जनसमुद्र की आवाजें अन्य दिनों में मंत्रमुग्ध करती हैं चकित करती हैं।लेकिन 29 जनवरी को यह उन लोगों के मौन, अनसुने विलाप से लबरेज थीं, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया था।बावजूद इसके मौत की गंध को, थकावट को, निराशा को, दु:ख को वे लोग महसूस कर रहे थे जो वहां मौजूद थे और इंसान थे!दोपहर होते होते फिर भगदड़Ó को भगदड़-जैसे हालातÓ बना दिया गया। हकीकत को अफवाह बताया जा रहा था। आस्था की सराहना और उसके प्रति श्रद्धा दिखाना जारी था।लेकिन उस व्यक्ति का क्या, जिसने आस्था के समुद्र में अपनी पत्नी को खो दिया? क्या यह आस्था से पुण्य की उसे कोई प्राप्ति है?




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