विकास की सार्थकता पर सवाल
- 16-Jun-24 12:00 AM
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भारत डोगरावैसे तो वर्तमान विकास की विसंगतियां कई स्तरों पर नजर आ रही हैं, पर स्थिति तब और भी स्पष्ट हो जाती है, जब इस विकास की दौड़ में सबसे आगे माने जाने वाले देशों में भी लोग इस विकास की सार्थकता के बारे में सवाल खड़े करने लगें।ब्रिटिश सोशल साइंस रिसर्च काउंसिल (ब्रिटिश समाज शास्त्र अनुसंधान परिषद) द्वारा किए गए एक सव्रेक्षण में ऐसे ही सवाल सामने आए हैं।इस सर्वेक्षण में पांच वर्षो के दौरान तीन बार 1500 सामान्य नागरिकों के सैंपल से पूछा गया कि जीवन को बेहतर बनाने के लिए वे किन बातों को महत्त्व देते हैं और क्या उन्हें लगता है कि जीवन पहले से बेहतर हो रहा है या नहीं। ब्रिटेन के समाज को (अन्य पश्चिमी विकसित देशों की तरह) काफी भौतिकवादी माना जाता है पर 71 प्रतिशत लोगों ने जीवन की गुणवत्ता (क्वालिटी) के बढऩे या जीवन बेहतर होने में जिन बातों को महत्त्व दिया उनका आय या दौलत के बढऩे से कोई संबंध नहीं था।उपभोक्ता वस्तुओं से अधिक महत्त्व अच्छे पारिवारिक जीवनÓ और संतोष की स्थितिÓ को देने वाले लोगों की संख्या अधिक थी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो इस सर्वेक्षण में सामने आई वह यह थी कि लगभग सभी नागरिकों के मत में पिछले पांच वर्षो में उन्हें उपलब्ध उपभोक्ता वस्तुओं की मात्रा बढ़ गई थी पर साथ ही जीवन की गुणवत्ता कम हो गई थी। इतना ही नहीं, लगभग सभी लोगों ने यह विचार भी व्यक्त किया कि अगले पांच वर्षो में यही स्थिति और आगे बढऩे की संभावना है- उपभोक्ता वस्तुओं की मात्रा और बढ़ जाएगी पर साथ ही जीवन की गुणवत्ता और घट जाएगी।इस सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि वर्तमान विकास की विसंगतियों पर जोर देना केवल जीवन की गहराई में गोता लगाने वाले कुछ दर्शनशास्त्रियों या पर्यावरणविद् तक ही सीमित नहीं है अपितु इस विकास के क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले देशों के सामान्य लोग भी अब इस पीड़ा को समझ रहे हैं, चाहे विकल्पों के अभाव में इस पीड़ा से बाहर निकलने की कोई दिा अभी न मिल रही हो।प्राय: प्रति व्यक्ति आय को किसी देश के विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण द्योतक माना जाता है। चाहे दो राष्ट्रों की तुलना करनी हो या एक ही राष्ट्र की वर्तमान स्थिति की कुछ समय पहले की स्थिति से तुलना करनी हो, सबसे प्रचलित तरीका यही अपनाया जाता है कि राष्ट्रीय आय को जनसंख्या से विभाजित कर प्रति व्यक्ति आय प्राप्त कर ली जाती है। लेकिन अब अनेक अर्थशास्त्री व अन्य विद्वान राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय को वास्तविक विकास का द्योतक मानने के बारे में अनेक महत्त्वपूर्ण सवाल उठाने लगे हैं। राष्ट्रीय आय में सब तरह की वस्तुओं व सेवाओं को जोड़ा जाता है, इस बात को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है कि वह वस्तु जन-कल्याण से जुड़ी है या समाज के लिए हानिकारक है।यदि किसी देश में एक दशक के दौरान अन्य बातें समान हैं पर शराब, तंबाकू, वेश्यावृत्ति और जुआघरों में बहुत तेजी से वृद्धि हो रही है तो राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों के अनुसार विकास की गति काफी तेज मानी जाएगी। राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय द्वारा विकास को जानने की एक अन्य प्रमुख कमी यह है कि पर्यावरण को होने वाली क्षति का उचित आकलन इसमें नहीं होता है अपितु कई बार तो विपरीत आकलन होता है। एक देश में वनों को बहुत सुरक्षित रखा गया है ताकि भविष्य में जल व मिट्टी संरक्षण का कार्य अच्छी तरह से होता रहे, दूसरे देश में कुछ ही वर्षो में सारे जंगलों को काटकर उनकी लकड़ी बेच दी जाती है व इससे प्राप्त धनराशि को तरह-तरह के अनैतिक कायरे में खर्च कर दिया जाता है। राष्ट्रीय आय के आंकड़े तो यही बताएंगे कि दूसरे देश में अधिक विकास हुआ है क्योंकि लकड़ी काटने व बेचने से प्राप्त धनराशि की गिनती राष्ट्रीय आय में हो जाएगी। पहले देश द्वारा वन बचाए रखने के महत्त्व को राष्ट्रीय आय के आंकड़े नहीं पहचानेंगे।विकास के द्योतक के रूप में राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय की एक अन्य प्रमुख कमी यह हैं कि इससे हमें आय के वितरण के बारे में कुछ पता नहीं चलता है। प्रति व्यक्ति आय जिस दशक के दौरान तेजी से बढ़ी है, हो सकता है कि उसी दशक के दौरान अर्थव्यवस्था के नीचे के 50 प्रतिशत लोगों का अभाव पहले से भी अधिक बढ़ गया हो। प्रति व्यक्ति (औसत) आय में वृद्धि पूरी तरह अमीर तबके की आय में तेजी से हो रही वृद्धि पर आश्रित हो सकती है। इस स्थिति में अतिरिक्त आय फिजूलखर्ची में जाएगी और गरीब लोगों को बुनियादी जरूरतों में भी और कटौती करनी पड़ेगी, पर राष्ट्रीय व प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े यही बताएंगे कि तेज विकास हो रहा है।किसी भी देश के लोगों की आर्थिक स्थिति से अलग बहुत सी बातें होती हैं जो प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों की पहुंच से बहुत दूर हैं। उस देश में भाईचारे और अच्छे नागरिक होने की भावना कितनी प्रबल है, पारिवारिक संबंध बेहतर हो रहे हैं या बिगड़ रहे हैं, शिक्षा पण्राली कैसी है, बचपन कितना सुरक्षित है ऐसी कितनी ही बातें हैं जो प्रति व्यक्ति आय की परिधि से बाहर हैं। फिर भी किसी समाज के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।ब्रिटेन में पिछले चार दशकों में कितना विकास हुआ है, इसका पता लगाने का एक अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार प्रयास नव अर्थशास्त्र प्रतिष्ठान ने किया है। इस प्रतिष्ठान ने टिकाऊ कल्याण का एक सूचक तैयार किया है। इस अनुमान के अनुसार जहां ब्रिटेन की राष्ट्रीय आय में 1950-90 तक 230 प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहां टिकाऊ आर्थिक कल्याण में मात्र 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यदि केवल वर्ष 1975 के बाद के आंकड़ों को देखें, तो इस दौरान राष्ट्रीय आय तो एक तिहाई बढ़ गई पर टिकाऊ आर्थिक कल्याण में 50 प्रतिशत की गिरावट आई। ऐसा व्यापक पर्यावरण के नुकसान व संसाधन आधार को क्षति पहुंचने के कारण हुआ। दूसरे शब्दों में 1975-90 के पंद्रह वर्षो में ब्रिटेन में अवनति हो रही थी जबकि राष्ट्रीय आय के आंकड़े विकास का ढोल पीट रहे थे। वास्तव में विकास की सही पहचान करने का काम तरह-तरह के विवादों से घिरा हुआ है, पर इतना स्पष्ट होता जा रहा है कि राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय वाला द्योतक बहुत अपर्याप्त तथा असंतोषजनक है।यह भी स्पष्ट हो रहा है कि यदि जन-कल्याण का ठीक-ठीक पता लगाने के अधिक व्यापक प्रयास किए जाएं तो परिणाम राष्ट्रीय आय पर आधारित आंकड़ों से बहुत अलग हो सकते हैं। यह केवल एक बुद्धिजीवियों की बहस मात्र नहीं है अपितु इस तरह की बेहतर जानकारी से इस बारे में जनमत तैयार करने में काफी मदद मिल सकती है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं और यह रास्ता कहां तक उचित है। जन कल्याण में किस तरह बदलाव हो रहा है, हमारा जीवन बेहतर हो रहा है या बिगड़ रहा है, इसका ठीक-ठीक मूल्यांकन करने के लिए अभी बहुत से ईमानदारी से किए गए प्रयासों की जरूरत है।
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