शिक्षक की संवेदनहीनता
- 09-Apr-24 12:00 AM
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सतीश सिंहअहमदाबाद के एक नामचीन निजी स्कूल के वाइस प्रिंसिपल ने नौवीं कक्षा के मिर्गी की बीमारी से पीडि़त एक्सÓ छात्रा के समक्ष उसके पिता से कहा अगर मिर्गी की बीमारी की वजह से आपकी बेटी कक्षा में लगातार अनुपस्थित रह रही है तो आप किसी ओपेन स्कूल में उसका दाखिला करवा दीजिए, ताकि उसे रोज स्कूल जाने के बंधन से मुक्ति मिल जाए और सिर्फ परीक्षा देने के लिए ही स्कूल जाना पड़े।Óप्रत्युत्तर में एक्सÓ छात्रा के अभिभावक ने कहा, मैडम, इस बीमारी में बच्चे का कम से कम 9 से 10 घंटे सोना जरूरी होता है, अन्यथा मिर्गी का ट्रिगर आ सकता है। इसलिए नींद नहीं पूरा होने पर एक्सÓ स्कूल नहीं जा पाती है, इस वजह से पूर्व के स्कूलों में भी एक्सÓ का 75 प्रतिशत उपस्थिति पूरा नहीं हुआ था, पर कभी भी किसी शिक्षक या प्रिंसिपल ने इस तरह की आपत्तिजनक सलाह नहीं दी, एक शिक्षक होकर आप ऐसी बेतुकी बातें कैसे कर सकती हैं, क्या आपको नहीं मालूम है कि ऐसा करने से बच्चे पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है, उसके व्यक्तित्व का विकास भी बाधित हो सकता है आदि।Ó वाइस प्रिंसिपल से इस तरह के संवेदनहीन और अनैतिक सलाह की कतई अपेक्षा नहीं की जा सकती है, वह भी पीडि़त छात्रा के सामने, लेकिन शिक्षा के संक्रमण के दौर में शिक्षा और शिक्षकों का इस कदर बाजारीकरण हो चुका है कि शिक्षकों के संवेदनशील होने की कल्पना करना बेमानी है।अब टीचर और बुचर के बीच के फर्क की परत बहुत तेजी से छीज रही है। शायद इसी वजह से कोटा और देशभर में बड़ी संख्या में बच्चे हर साल आत्महत्या कर रहे हैं। निजी स्कूलों में सुविधाओं की बात करें तो मुश्किल से 5 प्रतिशत स्कूलों में ही खेल का मैदान है। ऐसे में, इंडोर गेम खेलकर बच्चे शारीरिक रूप से कितने फिट रहेंगे? अमूमन, निजी स्कूलों में न ही लाइब्रेरी होती है और न ही फस्र्ट एड की व्यवस्था। आजकल निजी स्कूलों में बच्चों को विभिन्न मुद्दों पर परामर्श देने के लिए काउंसलर भी रखा जा रहा है, लेकिन इनकी उपयोगिता भी सवालों के घेरे में हैं। कुछ स्कूलों में तो आज ड्रग्स और पॉर्न का बाजार भी फल-फूल रहा है।नर्सरी कक्षा से ही निजी स्कूलों में अभिभावकों से 1 से 1.5 लाख रु पए सालाना फीस वसूली जा रही है। बस का चार्ज अलग से लिया जा रहा है। आर्ट व क्राफ्ट एवं अन्य गतिविधियों के नाम पर अभिभावकों को पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं। बावजूद इसके, स्कूलों में अभिभावकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता है। निजी स्कूलों में मोटी फीस जरूर वसूल की जा रही है, लेकिन ऐसे अधिकांश स्कूलों में शिक्षा का स्तर दोयम दर्जे का है। कई निजी स्कूलों की हालत सरकारी स्कूलों से भी बदतर है। निजी स्कूलों में शिक्षकों का वेतन कम होने के कारण ज्ञानहीन शिक्षक अध्यापन का काम कर रहे हैं, जो बच्चों को पढ़ाने की कला से अनभिज्ञ होते हैं, क्योंकि वे प्रशिक्षित नहीं होते हैं।दरअसल, बेरोजगारी की वजह से युवा कम वेतन में भी स्कूल में पढ़ाने के लिए तैयार हो जाते हैं, लेकिन आमतौर पर उनके घर की जरूरतें वेतन से पूरी नहीं हो पाती है, जिसके कारण उन्हें ट्यूशन पढ़ाना पड़ता है। ट्यूशन के लिए स्कूल के बच्चों के अभिभावकों को राजी करना सबसे आसान होता है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए बच्चों को स्कूल में इस तरह से पढ़ाया जाता है कि विषय की सामग्री उन्हें समझ में नहीं आए। साथ ही, वार्षिक परीक्षा में आंतरिक मूल्यांकन परीक्षाओं, परियोजनाओं, अतिरिक्त गतिविधियों में 20 में से 20 नंबर उन्हीं बच्चों को दिया जाता है, जो ट्यूशन पढ़ते हैं। यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं होती है और शिक्षकों द्वारा नियमों का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जाता है।अकूत पैसा कमाने की चाहत की वजह से एक कक्षा में 40 से 50 बच्चों को पढ़ाया जाता है। शिक्षक कक्षा में सिर्फ तेज बच्चों के तरफ ध्यान देते हैं, जिसके कारण अधिकांश बच्चों की संकल्पनाएं विषय के बारे में स्पष्ट नहीं हो पाती है। हालांकि, यह सच है कि अगर स्कूल में शिक्षक समुचित तरीके से पढ़ाएंगे तो बच्चों को ट्यूशन पढऩे की जरूरत कभी नहीं पड़ेगी। मौजूदा समय में पेन, पेंसिल, कॉपी, स्कूल बैग, जूते, मोजे, ड्रेस, किताब हर चीज की खरीदगी में स्कूल कमीशन ले रहा है।निजी स्कूलों में किताबों को एमआरपी पर बेचने का ढोंग किया जाता है, क्योंकि उनकी एमआरपी उनकी वास्तविक कीमत से कई गुना अधिक होती है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फोर्मेशन सिस्टम फॉर एडुकेशन (यूडीआईएसई) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2022 में भारत में कुल स्कूलों की संख्या 14,08,115 थी, जबकि निजी स्कूलों की संख्या लगभग 3.40 लाख थी। भले ही सरकारी स्कूलों की संख्या ज्यादा है, लेकिन आर्थिक रूप से सबल अभिभावक; बच्चे को अंग्रेजी में बेहतर शिक्षा मिले, वे संचार कौशल में प्रवीणता हासिल करें आदि के लिए उन्हें निजी स्कूलों में दाखिला करवाते हैं।देखा जाए तो देश में आज एक ऐसा पारिस्थितकी तंत्र का निर्माण हो चुका है, जिसमें सरकारी स्कूलों को हेय की दृष्टि से देखा जा रहा है। यह माना जा रहा है कि अगर निजी स्कूल में बच्चे पढ़ेंगे तभी उनका भविष्य उज्ज्वल होगा। निजी स्कूल, अभिभावकों की इस कमजोरी को अच्छी तरह से समझ चुके हैं। वे जान गए हैं कि अभिभावक अपने बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं अर्थात वे बच्चे के भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए कोई भी कीमत अदा कर सकते हैं। इसलिए, निजी स्कूल के शिक्षक और प्रबंधन अभिभावक से पैसे वसूलने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते हैं।आज शिक्षा कारोबार बन चुका है, जिसके कारण शिक्षा के मंदिरों में संवेदनशीलता और मानवता का भी लोप हो रहा है। स्कूल प्रबंधन का लक्ष्य ज्ञान वितरित करने की जगह मुनाफा अर्जित करना हो गया है। लिहाजा, देशभर में निजी स्कूलों के आभामंडल को लगातार चमकीला, आकषर्क और प्रभावशाली बनाया जा रहा है, ताकि आमजन खुद व खुद इसकी तरफ खिंचा चला आए। देश के हिंदी पट्टियों में अभी भी अंग्रेजी का प्रभामंडल बहुत ही ज्यादा प्रकाशमान है। इसलिए, आमजन अपने बच्चों को अंग्रेजी में प्रवीण बनाने और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व विकास हेतु निजी स्कूलों के सब्जबाग में फंस जाते हैं। आज शिक्षा बाजार बन चुका है और इस बाजार में अभिभावक स्कूलों में मोटी फीस जमा करने के बाद भी शिक्षकों के सामने डर की वजह से कुछ नहीं बोल पा रहे हैं।
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