सरकार रूपी रोटी को उलटते-पलटते रहें

  • 31-Mar-24 12:00 AM

रघु ठाकुर2024 के लोकसभा चुनाव देश के लिये विशेष महत्व और चिंता के चुनाव है। जहां एक तरफ देश का एक बौद्धिक हिस्सा चुनाव के बाद की संभावनाओं को लेकर आशंका व्यक्त कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर देश के ग्रामीण और आम आदमी प्रधानमंत्री के प्रति उत्साह से सराबोर है। विशेषतरू राम मंदिर के निर्माण, फिर प्राण प्रतिष्ठा, फिर अबूधावी में स्वामी नारायण मंदिर का शिलान्यास और अब बनारस की ज्ञानव्यापी और मथुरा के श्रीकृष्ण मंदिर को लेकर एक जुनूनी वातावरण जैसा है।देश के बौद्धिक जगत के एक बड़े हिस्से में जो आशंकायें हैं वह हो सकता है कुछ कि राजनैतिक प्रतिद्वंदिता की वजह से भी हों या सत्ता हासिल करने के लिये पिछले कुछ समय से जिस प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप चुनावी बहस का आधार बनाये जाते हैं उन्हें देखते हुए इन आशंकाओं के पूर्वाग्रह होने के आरोप को भी एकदम नकारा नहीं जा सकता। परंतु कुछ समय से और विशेषतरू मप्र, छग और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा की कार्य पद्धति में जो परिवर्तन दिख रहे हैं वे कुछ आशंकाओं को सिद्ध तो करते हैं। वैसे तो पिछले लगभग आजादी के बाद से ही राज्यों के मुख्यमंत्रियों के चयन में देश के सत्ताधारी दल के केंद्रीय नेतृत्व और प्रधानमंत्री का निर्णायक हस्तक्षेप रहा है। परंतु पिछले 55 वर्षों से यानि 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी के बहुमत से जीत जाने के बाद श्हाईकमान्य के नाम से मुख्यमंत्री नामजदगी की परंपरा शुरू हुई और यह बीमारी यहां तक पहुंची कि चुनाव के बाद पार्टियों के विधायक दल चाहे मुख्यमंत्री के पद का चुनाव हो या नेता प्रतिपक्ष का चयन हो, चयन करने के लिये स्वतंत्र नहीं होते तथा एक लाइन का प्रस्ताव पारित करते हैं कि हाईकमान को अधिकार दिया जाता है। यह एक प्रकार से दलों में लोकतांत्रिक प्रणाली का समापन और चरम व्यक्तिवाद और केंद्रीयकरण का उदभव था। यह चलन कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय पार्टियों में भी रहा क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों के राज्य प्रमुख जो होते हैं वे स्वयंभू सर्वेसर्वा होते हैं।हालांकि भाजपा में यह चलन एकदम उस रूप में शुरू नहीं हुआ था जिस रूप में कांगे्रस में आया था। और वहाँ एक स्तर पर विधायकों की राय को भी जाना जाता था, जो संघ के लोग संगठन मंत्री होते थे वे भी अघोषित रायसुमारी विधायकों में करते थे और इन सब सूचनाओं के आधार पर केंद्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री के पद का चयन करता था। परंतु इन तीन राज्यों के चुनाव में अप्रत्याशित और विशाल बहुमत की जीत ने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और विशेषतरू प्रधानमंत्री को एक छत्र शक्तिशाली बना दिया है। तथा केंद्रीयकरण का चरम रूप देखने को मिल रहा है। इन तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों की नामजदगियाँ बगैर किसी रायशुमारी के सीधे केंद्रीय नेतृत्व ने की है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दिखाने का प्रयास भी नहीं किया। विधायक दलों की बैठक में जो केंद्रीय पर्यवेक्षक भेजे गये उन्होंने विधायकों को एक पर्ची दिखाकर बता दिया कि यह केंद्र का निर्णय है और विधायकों ने बिना चू-चपड़ के पर्ची के आदेश को शिरोधार्य किया। पर्ची से मुख्यमंत्री के जन्म की यह नई परिपाटी जो भाजपा में शुरू हुई है यह लोकतांत्रिक तो नहीं ही है इसके साथ ही एक खतरनाक केंद्रीयकरण की भी शुरुआत है।राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संचालक और उनकी टीम की क्या भूमिका है मैं नहीं जानता, परंतु इसके पहले तक विधायक दलों के चुनाव में जो भूमिका संगठन मंत्रियों के माध्यम से संघ की सुनने या जानकारी में आती थी वह इस बार नहीं लग रही है। हालांकि संघ का शिक्षण व संस्कार भी एक अंधानुकरण का है, याने जिस प्रकार एक गड़रिया समूचे भेड़ों के समूह को हाँकता है और वे उसका आदेश मानकर चलती हैं वही अनुशासन की परिपाटी संघ की रही है। एक राजनैतिक दल के रूप में जनसंघ व भाजपा इस परिपाटी से अभी तक कम से कम दिखावे में मुक्त थी परंतु अब वह दिखावे का हिस्सा भी भाजपा ने छोड़ दिया। हालांकि इसका एक अच्छा भी परिणाम हुआ है कि लंबे समय तक मुख्यमंत्रियों के पदों पर बैठे रहे जो अपना गुट या समर्थकों अथवा कृपा वालों का गुट बनाकर स्थाई जैसे हो गये थे, उनके हाथ से सत्ता छिन गई। निरंतर और स्थाई सत्ता, जड़ता और तानाशाही पैदा करती है। इसलिये सत्ताधारी राजनैतिक दलों में भी परिवर्तन होना चाहिए। मेरी राय में तो हर 5 सालों में नेतृत्व में सत्ता के व संगठन के दोनों में परिवर्तन होना चाहिए। दलों के सत्ता और संगठन के नेतृत्व में परिवर्तन होते रहने से नया नेतृत्व उभरेगा तथा परिवारवाद भी कम होगा। यह लोकतंत्र के लिये भी शुभ है और नये नेतृत्व के लिये उभरने के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार पुराना वृक्ष जिसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं, वह सारा रस खींच लेता है और अपने नीचे आस-पास किसी नये पौधे को नहीं पनपने देता वही स्थिति राजनीति की भी होती है।एक जो दूसरा चिंताजनक पहलू है वह भी विचारणीय है। इन विधानसभा के चुनाव में और चुनाव के बाद पार्टी और सरकार के कार्यक्रम के नाम पर एक नया जुमला शुरू हुआ है, वह है मोदी गारंटी। विधानसभा चुनाव में स्वतरू प्रधानमंत्री ने मोदी गारंटी का सभाओं में उल्लेख किया। यह कहते हुये कि मोदी गारंटी मतलब उसका क्रियान्वयन होना निश्चित है। इस कथन का एक अर्थ यह हुआ कि जो वायदे सूबाई सरकार के मुखिया कर रहे थे उनके क्रियान्वयन की गारंटी नहीं थी बस केवल प्रधानमंत्री जी के वायदे के क्रियान्वयन की गारंटी है तथा विधानसभा चुनाव की जीत के बाद भी यही कहा गया कि जीत का कारण केवल मोदी गारंटी है। याने देश की जनता का विश्वास एक मात्र केवल मोदी जी पर ही है और अब भाजपा शासित सभी राज्यों पर हर विज्ञापन में सिर्फ दो ही चित्र दिखते हैं ऊपर प्रधानमंत्री का, नीचे मुख्यमंत्री का।इतना ही नहीं राज्यों में हो रहे छोटे बड़े हर काम का लोकार्पण, विमोचन, शिलान्यास और शुरुआत प्रधानमंत्री जी या तो सशरीर उपस्थित होकर या फिर वर्चुअली याने वीडियो कांफे्रं स से कर रहे हैं और उनके हर कार्यक्रम और भाषण को राज्यों में मंत्रियों, मुख्यमंत्री, सांसदों, विधायकों और पदाधिकारियों को सुनना और देखना अपरिहार्य है। प्रधानमंत्री का कार्यक्रम कहने को सरकारी होता है, खर्च और व्यवस्था पूर्णतरू सरकारी होती है परंतु वह पूर्णरूपेण दलीय कार्यक्रम होता है। प्रधानमंत्री जी केे कार्यक्रम के नाम पर इन आयोजनों में सभी बड़े-छोटे नौकरशाह और कर्मचारी भी शामिल होते हंै यह एक प्रकार से नौकरशाही का दलीयकरण है और दलों का नौकरशाहीकरण है।भारतीय संविधान ने देश के प्रशासन तंत्र को याने नौकरशाही को दलीय राजनीति से मुक्त रखा है। हमारे देश में इन्डपेंडेंट ब्यूरोक्रेसी है। कमिटेड ब्यूरोक्रेसी नहीं है। दुनिया में कई ऐसे देश हैं जहां कमिटेड याने प्रतिबद्ध नौकरशाही है। जैसे अमेरिका में यह परंपरा है कि राष्ट्रपति के चुनाव के बाद पिछले राष्ट्रपति के विश्वसनीय उच्च नौकरशाह बदल जाते हैं और नव नियुक्त राष्ट्रपति अपने पक्ष के नौकरशाहों को लाता है। कम्युनिष्ट देशों में तो दलीय तंत्र ही सत्ता तंत्र होता है। वहां दल के संगठन का निर्वाचन होता है और वही जनमत का निर्णय मान लिया जाता है। यह साम्यवादी तानाशाही होती है परंतु भारत और यूरोप के लोकतांत्रिक देशों में अभी तक यह चलन नहीं था। भारत की ब्यूरोक्रसी को शायद पहले चरण में कमिटेड ब्यूरोके्रेसी बनने के लिये मानसिक रूप से तैयार किया जा रहा है। प्रधानमंत्री जी संसद से लेकर सड़क तक और अब उनकी पार्टी भी मोदी इस बार चार सौ पार का नारा लगा रही है। एक राजनैतिक दल के रूप में अपना लक्ष्य तय करने का अधिकार सभी दलों को होता है और उनको भी है परंतु लगातार चार सौ की सख्ंया के उल्लेख के पीछे कुछ अन्य मनोवैज्ञानिक संकेत भी हो सकते हैं जैसे भारतीय संविधान को बदलने के लिये और नया एक धर्म के देश का संविधान लाने के लिये, न्यायपालिका को सत्ता परक बनाने व उसकी स्वतंत्रता समाप्त करने के लिये संसद का तीन चैथाई सदस्य संख्या घोषित रूप से नहीं पर अघोषित रूप से जरूरी है और मौखिक प्रचार से गांव-गांव में यह कहा भी जा रहा है कि मोदीजी को हमें इसलिये 400 की संख्या में जिताना है कि वे संविधान को बदल सकें और हिंदू राष्ट्र बना सकें।जिस प्रकार का मोदी गारंटी और मोदी का चित्र और नाम का प्रचार हो रहा है उससे एक ओर आशंका को बल मिलता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि श्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा आगामी लोकसभा के चुनाव में 400 की संख्या लाने के बाद देश में संवैधानिक ढांचे को बदल दें और अभी देश ने जो संसदीयलोकतंत्र स्वीकार किया है उसे बदलकर राष्ट्रपति प्रणाली लाने का भीतर का लक्ष्य हो। तब यह प्रचार किया जायेगा कि संसदीय लोकतंत्र होने की वजह से सरकार काम नहीं कर पाती है याने लोकसभा और राज्यसभा में प्रतिपक्ष अडंगेबाजी करता है इसलिये अब देश में रष्ट्रपति प्रणाली होना आवश्यक है ताकि एक ही व्यक्ति सारे निर्णय कर सके। यह आशंका इसलिये भी तार्किक लगती है क्योंकि संघ के मूल विचारक स्वर्गीय गुुरु गोलवलकर जी ने अपनी पुस्तक में एक व्यक्ति केन्द्रित राष्ट्र की कल्पना की है। वो संसदीय लोकतंत्र के पक्षधर नहीं थे बल्कि राष्ट्रपति प्रणाली के पक्षधर थे। वैसे भी कई हजार वर्ष से भारत राजतंत्रीय और रजवाड़ों का मुल्क रहा है जहां लोगों की मानसिकता कमोवेश अभी भी राजा को चुनने और देखने की है। और उसके इस मानस में नये राजतंत्र को स्वीकृत कराना आसान हो जायेगा। मुझे याद है कि जब श्री शिवराज सिंह चैहान पहली बार मुख्यमंत्री बने थे और उनके विधानसभा क्षेत्र दौरे के समय उनके जूते तत्कालीन कलेक्टर ने उन्हें उठाकर दिये थे जिसके समाचार और चित्र अखबारों मेें छपे थे। जब इसकी आलोचना हुई तो तत्कालीन भाजपा के संगठन मंत्री श्री कप्तान सिंह सोलंकी ने बयान दिया था कि इसमें कुछ गलत नहीं है। मुख्यमंत्री राजा होता है। कांग्रेस पार्टी में तो पहले ही यह हो चुका है। 1976 में आपातकाल में स्व. संजय गांधी के जूते उठाते तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. नारायणदत्त तिवारी के चित्र सारे देश में देखे गये थे। उत्तरप्रदेश जैसे विशाल प्रदेश का मुख्यमंत्री उम्रदराज और वह भी जनमना जाति से ब्राह्मण अगर प्रधानमंत्री के बेटे के जूते उठा सकता है तो इस देश को कुछ भी स्वीकार्य हो सकता है। मैं व्यक्ति विरोधी नहीं हूं, न मोदी का भक्त हूं न अंध विरोधी हूं परंतु भारतीय लोकतंत्र को कायम रखने के लिये मैं चाहता हूं कि जनता हर पांच वर्ष में सरकारों को बदले ताकि सरकारें स्थिर होकर जड़ और तानाशाह न बन सकें। डॉ.लोहिया कहते थे कि जनता की सरकारों को रोटी के समान उलटते-पलटते रहना चाहिए तभी वे स्वादिष्ट रहती हैं, अन्यथा जलकर बेकार हो जाती हैं।




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