05 सितंबर-पुण्यतिथि पर विशेष
- 04-Sep-25 12:00 AM
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विचित्र कुमार सिन्हा कलम के सिपाही, आज़ादी के दीवानेआरिफ़ मिजऱ्ाभोपाल की पहचान सिर्फ झीलों और महलों से नहीं है। इस शहर ने ऐसे कई लोग पैदा किए जिन्होंने अपने वतन, अपनी भाषा और अपनी जनता के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया। इन्हीं नामों में एक बड़ा नाम है विचित्र कुमार सिन्हा, जिन्हें लोग मोहब्बत से चंदा बाबू कहते थे।आज उनकी तीसवीं पुण्यतिथि है। वक्त गुजऱता गया, लेकिन उनकी याद, उनकी ईमानदारी और उनकी पत्रकारिता की रोशनी आज भी कायम है। पुराने भोपाली आज भी उन्हें इज्ज़त और मोहब्बत से याद करते हैं।गुना से भोपाल तक14 फरवरी 1924 को गुना जिले में जन्मे विचित्र कुमार सिन्हा उर्फ चंदा बाबू की जिंदगी का सफर बहुत ही खास था। उनकी जवानी उस दौर में आई जब पूरा मुल्क अंग्रेज़ों की गुलामी से जूझ रहा था। स्वाभाविक था कि उनके दिल में भी आज़ादी की आग जल उठी। 1939 में उन्होंने झाबुआ सत्याग्रह में हिस्सा लिया और जेल भेज दिए गए। इसके बाद उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी बढ़-चढकऱ भाग लिया। होशंगाबाद, मुंगावली, भैरोगढ़ और राजनांदगांव की जेलों में महीनों तक यातनाएं झेलीं। इतना ही नहीं, वे ग्वालियर और अन्य जेलों में भी बंद रहे। कई-कई महीनों की सजाएं काटीं। जब वे सिर्फ 23 साल के थे, तब तक वे करीब 9 महीने जेल की सलाखों के पीछे रह चुके थे।पत्रकारिता का रास्ताआजादी की लड़ाई में सिर्फ हथियार नहीं, कलम भी एक बड़ा हथियार थी। और चंदा बाबू ने इसी कलम को चुना।सन 1940 में जब वे भोपाल आए, तो अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ उठाने की ज़रूरत महसूस हुई। उन्होंने हाथ से लिखा जाने वाला अख़बार मित्रदेश शुरू किया। वे खुद खबरें लिखते, कार्बन कॉपी बनाते और सौ से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाते। फिर गूजरपुरा में पैडल वाली प्रिंटिंग मशीन लगाई। खुद ही मैटर कम्पोज करते और खुद ही छापते। ये उनकी मेहनत और जुनून का नतीजा था कि लोगों तक सही खबर पहुँच सके। इसके बाद वे प्रजा पुकार अखबार के संपादक बने। अंग्रेज सरकार ने इस अखबार को बंद करवा दिया क्योंकि इसमें जनता की असली आवाज़ छपती थी। आजादी के बाद भी उनका यह सफर रुका नहीं। उन्होंने पंचशील, हिंदी ब्लिट्ज और विचित्र-विनोद जैसे अखबार निकाले और भोपाल की पत्रकारिता को नई ऊंचाई दी।विलीनीकरण आंदोलनजब मुल्क आजाद हो गया, तब भी भोपाल नवाब अपनी रियासत को भारत में शामिल करने के खिलाफ था। इस मुश्किल घड़ी में विचित्र कुमार सिन्हा ने मास्टर लाल सिंह और कई साथियों के साथ मिलकर विलीनीकरण आंदोलन की अगुवाई की। नवाब ने आंदोलनकारियों को तोडऩे के लिए हर हथकंडा अपनाया। लालच दिया, धमकियां दीं। सिन्हा जी को तो 22 गांवों की जागीर और नायब तहसीलदार बनाने का प्रस्ताव तक दिया गया। साथ ही यह धमकी भी कि अगर मानेंगे नहीं तो भोपाल से निकाल दिए जाएंगे। लेकिन चंदा बाबू ने साफ कह दिया वतन की मिट्टी बिकाऊ नहीं है। उन्होंने हर लालच ठुकरा दिया। इसके बाद उन्हें भोपाल छोडऩा पड़ा। वे उज्जैन चले गए। वहां उस समय पंडित बेचन शर्मा उग्रÓ जय महाकाल अखबार निकालते थे। चंदा बाबू ने वहीं काम करना शुरू किया और अपने लेखों व कविताओं से और भी मशहूर हो गए। दो वर्ष के निर्वासन पश्चात् वे भोपाल लौट आये और आंदोलन की गतिविधियां जारी रखी। आखिरकार 1 जून 1949 को भोपाल रियासत भारत में विलीन हो गई।कवि और लेखकविचित्र कुमार सिन्हा सिर्फ पत्रकार ही नहीं थे, वे एक उम्दा कवि और लेखक भी थे। उनकी कविताओं में वीर रस की गूंज थी। उनके शब्द युवाओं में जोश भरते थे।वे व्यंग्य और कार्टून के जरिए भी समाज की कड़वी हकीकत सामने रखते। उनकी कविताओं और लेखों में सिर्फ प्रकृति और प्रेम नहीं, बल्कि देशभक्ति और सामाजिक सुधार की बातें भी होती थीं। वे मानते थे कि लेखन सिर्फ भावनाओं को बयान करने का जरिया नहीं, बल्कि जनता को जगाने का हथियार भी है। 1955 में जब लालबहादुर शास्त्री ने उन्हें भोपाल आकाशवाणी का डायरेक्टर बनने का प्रस्ताव दिया, तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि उनका मकसद पत्रकारिता के जरिए जनता की सेवा करना है। ये उनकी साफगोई और उसूलों की मिसाल थी। उन्होंने कभी पद, पैसा या शोहरत को महत्व नहीं दिया।समाज सेवा और संगठनसिन्हा जी गांधी और नेहरू दोनों से प्रभावित थे। वे उनके विचारों को अपने जीवन में उतारते थे। उन्होंने भोपाल में हरिजन हिंदी स्कूल की स्थापना में भी अहम भूमिका निभाई। उनका मानना था कि शिक्षा और भाषा दोनों ही समाज की ताकत हैं। वे कांग्रेस संगठन से भी जुड़े रहे और भोपाल में उसकी जड़ों को मजबूत करने में मदद की।परिवार और विरासतविचित्र कुमार सिन्हा की विरासत को उनके बेटे कृष्णकांत सक्सेना ने आगे बढ़ाया। उन्होंने दैनिक क्षितिज किरण अखबार उनके जीवन कॉल में प्रारम्भ किया था जिसका प्रकाशन जारी है, जो आज भी होशंगाबाद, सीहोर और जबलपुर से निकलता है। इस तरह एक पिता की ईमानदार कलम का असर अगली पीढिय़ों तक कायम रहे उसके लिए उनके पुत्र विलक्षण सक्सेना जो बी.ए. एल.एल.बी., एल.एल.एम है अपनी दिल्ली सुप्रीम कोर्ट की वकालत न कर भोपाल आकर दैनिक क्षितिज किरण की कमान सम्भाली है और अपनी विलक्षण प्रतिभा से उसे निखार रहें है। आज जब पत्रकारिता पर कई तरह के सवाल उठते हैं, तब चंदा बाबू की याद और भी जरूरी हो जाती है। उन्होंने दिखाया कि पत्रकारिता सिर्फ खबर लिखना नहीं, बल्कि जनता के हक में खड़ा होना है। उन्होंने साबित किया कि पद और पैसे से ऊपर उठकर भी कोई इंसान अपना नाम रोशन कर सकता है। उनकी शख्सियत हमें बताती है कि सच्चा पत्रकार वही है जो सच को सच लिखे और जनता की आवाज़ बने। आज उनकी तीसवीं पुण्यतिथि पर हम उन्हें याद करते हुए यही कह सकते हैं। विचित्र कुमार सिन्हा सिर्फ एक नाम नहीं थे, बल्कि एक पूरा दौर थे। वो दौर जब कलम ही तलवार थी, और अखबार ही जनता की आवाज़। उनका जीवन हमें प्रेरित करता है कि सच और ईमानदारी के रास्ते पर चलना कभी आसान नहीं होता, लेकिन यही रास्ता असली इज्ज़त दिलाता है। भोपाल की पत्रकारिता, साहित्य और आज़ादी के इतिहास में उनका नाम हमेशा सोने के अक्षरों में लिखा रहेगा।
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