2024 के भारत में ऑरवेल का सत्य!

  • 05-Mar-24 12:00 AM

श्रुति व्यासरोजाना एक ही तरह की चीजें पढ़ते रहने की बोरियत से मुक्ति के लिए मैंने पिछले वीकएंड एनीमल फार्मÓ फिर से पढ़ डाली। जार्ज ऑरवेल की यह कृति सच्चे अर्थों में कालजयी है। जब वह लिखी गई थी तब जितनी प्रासंगिक थी, उतनी ही आज भी प्रासंगिक है। सन् 1945 में प्रकाशित इस उपन्यासिका में शूकर (सुअर) बंधु जिस तरह सत्ता पर कब्जा जमाते हैं, वह सोवियत संघ (तब और रूस) जैसी तानाशाही और प्रोपेगेंडा की असीम ताकत के खतरों से दुनिया को सचेत करना है। जानवरों का जमावड़ा जैसे-जैसे समतापूर्ण समाज से असमान समाज बनने की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे शासक शूकर, प्लाट बदलते जाते हैं। जार्ज ऑरवेल ने इस पुस्तक में सत्ता, आशा, झूठ, प्रोपेगेंडा और अंधश्रद्धा जैसे मुद्दों की बारीक पड़ताल की है। वे हमें बताते हैं कि किस तरह अंतत: केवल सत्ता हासिल करना ही पहला और आखिरी लक्ष्य बन जाता है और सत्ता की यह लिप्सा कैसे समाज को नष्ट कर देती है।एनीमल फार्मÓ 20वीं सदी के मध्य के सोवियत संघ पर आधारित था। उसके पात्र नेपोलियन में हम स्टालिन और स्नोबॉल में ट्रोटोस्की को देख सकते हैं। अब न तो सोवियत संघ का कोई नामलेवा बचा है और न स्टालिन और ट्रोटोस्की हैं। मगर एनीमल फार्मÓ को आज की दुनिया की फेक न्यूज, जहरीले प्रोपेगेंडा और षडय़ंत्रपूर्वक की जाने वाली ऑनलाइन ट्रोलिंग से आसानी से जोड़ा जा सकता है।Óएनीमल फार्मÓ का मुख्य सन्देश यही है कि नैरेटिव, मीडिया पर जिसका नियंत्रण होता है, जीत उसी की होती है।भले ही यह हमें असहज करे, मगर तथ्य यही है कि करीब तीन-चौथाई सदी पहले ऑरवेल ने जो रूपक बुना था, वह आज की हमारी दुनिया के राजनैतिक नैरेटिव पर भी लागू है।अब जब सत्ता और पालिटिकल नैरेटिव की बात होती है, तो चुनाव का ध्यान हो आना स्वाभाविक है। भारत में चुनावी प्रक्रिया शुरू हो गई है। भारतीय जनता पार्टी ने एक-तिहाई से ज्यादा उम्मीदवारों की नामों की घोषणा कर दी है। चुनाव आयोग की टीमें राज्यों का दौरा कर तैयारियों का जायजा ले रही हैं। मीडिया हाऊस तरह-तरह के चमकीली-चटकीले राजनैतिक कॉन्क्लेव आयोजित कर रहा हैं, जो मिनी चुनावी सभा नजर आते हैं।चुनावों का नतीजा क्या होगा, यह करीब-करीब तय है। अलग-अलग क्षेत्रों में जिसकी भी जीत-हार हो लेकिन सर्वोच्च नेता की जीत तय बताई जा रही है। हालाँकि परिणामों के तय बताए जाने के बाद भी वातावरण में रोमांच तो है।2024 के लोकसभा चुनाव को विचारधारात्मक कारणोंÓ से महत्वपूर्ण बताया जा रहा हैं। लंदन कीÓद इकनामिस्टÓ पत्रिका ने लिखा है, इस साल भारत और अमेरिका में होने वाले दो बड़े चुनाव पूरी दुनिया के लिए प्रजातंत्र की परीक्षा होंगे।" क्या सचमुच? क्या वाकई भारत में प्रजातंत्र खतरे में है?ऐसा बताया जा रहा है कि सन् 2014 के बाद से एक प्रजातंत्र के रूप में भारत की छवि फीकी पड़ती जा रही है। क्या ऐसा है? देश की सबसे बड़ी अदालत के जजों ने एकमत से भारत सरकार की 2018 में शुरू की गई इलेक्ट्रोरल बांड योजना को रद्द किया है।मीडिया कह रहा है कि विपक्ष आखिर विचारधारा से चालित क्यों नहीं है? नौकरशाही दिन-रात इस कोशिश में है कि देश के सभी नागरिकों को साफ पानी और मुफ्त राशन मिले और हर घर में शौचालय हो।अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है। भारत का सूरज दुनिया के आसमान में चमक रहा है। रिहाना हमारे देश के एक रईसजादे के शाहज़ादे की शादी में गानें गा रही हैं।भारत में इतना काम, इतना जलवा? क्या पश्चिम में है कोई ऐसा जो इसके मुकाबिल हो? अगर मोदीजी पांच साल और प्रधानमंत्री रह गए तो भारत सचमुच विश्वगुरू बन जाएगा।सो देश में जो कुछ हो रहा है उसमें प्रजातंत्र के लिए खतरा क्या है? आखिकार प्रजातंत्र को किससे खतरा हो सकता है? प्रजातंत्र के दुश्मन वे हैं जो खुलकर और जानते-बूझते हुए प्रजातंत्र पर हमला करते हैं, जैसा कि इंदिरा गांधी ने इमरजेन्सी के दौरान किया था। क्या मोदी या उनके सिपहसालारों ने ऐसा कुछ किया है?दरअसल मोदी इसलिए लगातारजीतते जा रहे हैं क्योंकि राजनैतिक नैरेटिव वे तय कर रहे हैं। उस पर उनका पूरा नियंत्रण है। जैसा कि जार्ज ऑरवल ने हमें बहुत पहले बताया था, विजेता वही होते है जिनका नैरेटिव पर नियंत्रण हो। नरेन्द्र मोदी ने संविधान या भारत की प्रजातांत्रिक संस्थाओं से प्रकट रूप में कोई बड़ी छेड़छाड़ नहीं की है।उन्होंने केवल नैरेटिव को अपने पक्ष में किया है। पश्चिम के अति वामपंथी और मध्य वामपंथी बुद्धिजीवी तबके का कहना है कि भारत की जनता डर के कारण मोदी का साथ दे रही है। जनता को लगता है कि अगर मोदी नहीं होंगे तो पाकिस्तान और चीन भारत पर कब्जा कर लेंगे और हिन्दुओं के सिर पर खतरा मंडराने लगेगा।मगर वे यह भूल जाते हैं कि मोदी के राजनीति के मंच के केन्द्र में आने के काफी पहले से ही जनता का राजनीति से मोहभंग हो गया था। लोग बेचैन और अशांत थे। उनमें गुस्सा भी था और राजनीतिज्ञों के प्रति तिरस्कार का भाव भी। युवा और अशांत लोग कांग्रेस से बोर हो गए थे। उन्हें लगता था कि कांग्रेस समय के चक्र में एक निश्चित बिंदु पर अटक गई है और चूंकि प्रजातंत्र उन्हें यह अधिकार और मौका देता था कि वे अपना गुस्सा जाहिर कर सकें, इसलिए उन्होंने ऐसा किया।ठीक उसी तरह से जिस तरह उपन्यास में मेनर फार्म पर जानवर अपने गुस्से का इज़हार करते हैं और ओल्ड मेजर बहुत ही व्यवस्थित और प्रभावी ढंग से इस गुस्से का लाभ उठाते हुए उन्हें मनुष्य के अत्याचारोंÓ के खिलाफ विद्रोह करने के लिए भड़काता है। जैसा कि हमेशा होता है, कोई भी नई चीज अपने साथ नयी आशा लाती है।यह आशा आपके गुस्से पर छा जाती है और आपको अंधा बना देती है। विद्रोह करने वाले जानवरों को यह समझ में ही नहीं आता कि विद्रोह के नेतृत्व की नेकनियती पर भरोसा करने के कारण वे अंतत: उसी व्यवस्था के लिए काम करने लगे हैं जो व्यवस्था उनका अत्यंत क्रूरतापूर्वक शोषण करती थी।सन् 2014 में लोगों ने बड़ी आशा से मोदी को सत्ता सौंपी। उन्हें मोदी की नेकनीयती पर पूरा भरोसा था। यह भरोसा आज भी कायम है, भले ही पिछले 10 सालों में केवल शासन तंत्र आगे बढ़ा हो और आम लोग वहीं के वहीं हों। इसी भरोसे ने विपक्ष को कमजोर और पंगु बना दिया। नरेन्द्र मोदी ने विपक्ष को नहीं कुचला, विपक्ष ने स्वयं को कुचल लिया। छोटी-बड़ी पार्टियों के सैकड़ों नेता एक अज्ञात भय के वशीभूत भाजपा का हिस्सा बन गए। विपक्ष को नहीं मालूम कि उसे क्या करना चाहिए। उसके पास न नैरेटिव है, न प्रोपेगेंडा है और न कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व। विपक्ष, विपक्ष का काम करने में असफल और असमर्थ है।हाल में प्रकाशित अपने एक लेख में शेखर गुप्ता ने लिखा कि भाजपा के पास बहुत शानदार पैकेज है। जो लोग पार्टी में हैं उन्हें विचारधारा की फेविकोल वहीं रोके रखता है। जो बाहर हैं, उन्हें सत्ता और सुरक्षा का आश्वासन पार्टी की ओर खींचता रहता है। बचे आम वोटर, तो उनके लिए मोदी की गारंटियां हैं ही। शेखर गुप्ता का आकलन गलत नहीं है। मगर इसमें एक विरोधाभास है, जिसे नजरअंदाज किया तो जा सकता है लेकिन नहीं किया जाना चाहिए। आज राजनैतिक नैरेटिव विचारधारा से चालित नहीं है। कांग्रेस अगर बिखर रही है तो इसका कारण यह है कि राहुल गांधी पप्पू हैं और पार्टी के क्षेत्रीय नेताओ में वह चमक ही नहीं है जो लागों को आकर्षित कर सके। इस बीच भाजपा, मोदी की पार्टी बन गई है। जहां तक विचारधारा का सवाल है, उसे एक डिब्बे में अच्छी तरह से पैक करके पार्टी के आफिस के एक कोने में रख दिया गया है। भाजपा को भी आशा से ऊर्जा मिल रही है।पार्टी के पुराने और नए नेताओं को आशा है कि नरेन्द्र मोदी का व्यक्तित्व आमजनों में जिस तरह की आशाएं जगाता है, वह उनकी नैया पार लगा देगा। यह आशा उन्हें सत्ता की गारंटी देती है। यह आशा उन्हें सुरक्षा का भरोसा देती है। भाजपा पूरी तरह से व्यक्ति-केन्द्रित पार्टी बन गई है जिसकी कहानी मोदी से शुरू होती है और मोदी पर खत्म होती है। अगर भाजपा और उसके गठबंध साथियों के 545 उम्मीदवार मोदी की गारंटीÓ को अपने प्रचार का केन्द्र बनाएंगे तो विचारधारा के लिए कहां जगह बचेगी?।बिना किसी संकोच के यह तो कहा ही जा सकता है कि 2024 के चुनाव मोदी जीतेंगे। उनकी जीत शानदार होगी या नहीं, यह समय बताएगा। मगर मोदी की जीत प्रजातांत्रिक ढग़ से ही होगी, भले ही उसमें विचारधारा की कोई भूमिका न हो। अगर हम लोकलुभावन-वाद को विचारधारा मान लें, तो हम यह भी कह सकते हैं कि यह जीत विचारधारा के आधार पर होगी। विपक्ष बिखर जाएगा क्योंकि उसे मोदी की तीसरी पारी से डर लग रहा है। हम पत्रकार शहरों और गाँवों और नुक्कड़ों पर जाएंगे, लोगों से बातें करेंगे और जो नैरेटिव उभरेगा उसे अपने पाठकों या श्रोताओं तक पहुंचाएंगे।पर हम यह कहने से कैसे बच सकेंगे कि विपक्ष कमजोर है या विपक्ष है ही नहीं? या एक राजनीतिज्ञ के रूप में राहुल गांधी अनाड़ी हैं? एग्जिट पोल करवाने वाली एजेंसियां अपने-अपने नंबर देंगीं, जो लोगो का उस आशा, जिसके निर्माता-निर्देशक मोदी हैं, में विश्वास और दृढ़ होगा।2014 में मोदी ने यह आशा जगाई थी कि इंडिया बदलेगा और अपने अतीत को पीछे छोड़कर एक नई राह पर चलेगा।सन् 2024 में इंडिया भारतÓ बन चुका है और अपने अतीत को पीछे छोड़कर, रामराज्य की तरफ बढ़ रहा है। भारत के प्रजातंत्र को मोदी से उतना खतरा नहीं है जितना कि भारत के लोगों से है। ये चुनाव एक बार फिर यह बता बताएँगे कि अंधभक्ति और अंधश्रद्धा ने स्वतंत्रतापूर्वक सोचने की हमारी क्षमता को किस हद तक पंगु बन दिया है।ऑरवेल ने 1945 में ठिक लिखा था कि जीत उसी की होती हैं जो नैरेटिव को नियंत्रित करता है। निश्चित जानिए कि इस साल होने वाले चुनाव में भी जीत उसी की होगी जिसका नैरेटिव पर नियंत्रण है।




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