14 अप्रैल डॉ भीमराव अंबेडकर बाबा साहब के जन्मदिन पर विशेष

  • 13-Apr-24 12:00 AM

संविधान की सफलता जनमत पर निर्भर-डॉ. अंबेडकररघु ठाकुर14 अप्रैल डॉ भीमराव अंबेडकर बाबा साहब का जन्मदिन है। किसी व्यक्ति का जन्मदिन अपने आप में महत्व का नहीं होता बल्कि वह इन प्रतीक दिनों पर उनके कामों की चर्चा, उनकी प्रासंगिकता पर चर्चा करने का एक निमित्त होता है।बाबा साहब की प्रासंगिकता उनके जीवन काल के बाद निरंतर बढ़ रही है और अपने अंतिम जीवन काल में वे जितने अकेले और निराशा में थे, अगर आज वे जिंदा होते तो शायद उस अकेलेपन या सामाजिक मान्यता के अभाव की निराशा से मुक्त हो चुके होते। क्योंकि-कुछ ऐसी स्थिति का निर्माण हुआ है की भले ही कोई उन्हें ना मानने वाला हो या उनका आलोचक भी हो पर उनके विरुद्ध बोलने का साहस नहीं कर सकता।इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि डॉक्टर अंबेडकर के समर्थन की सीमाएं अब महाराष्ट्र या उसके सीमाई क्षेत्र से बाहर निकल कर उत्तर भारत में भी पहुंची है। और हिंदी प्रदेश विशेषतरू उत्तर प्रदेश, हरियाणा में उनके समर्थकों या मानने वालों की संख्या में खासी वृद्धि हुई है।साथ ही उनके समर्थकों में एक विशेष प्रकार की एकजुटता व आक्रामकता भी आई है। जिससे उनकी खिलाफत करने वाले भी बचते हैं। अनुसूचित जाति के उनके समर्थक वोट भले ही किसी को देते हों परंतु बाबा साहब उनके लिए एक प्रेरणा का स्रोत व स्वाभिमान के प्रतीक हैं। और देश में शायद सर्वाधिक स्वप्रेरणा से उनकी छोटी बड़ी प्रतिमाओं का निर्माण उनके मानने वालों ने अपने-अपने इलाकों में किया है। अगर किसी नेता की प्रतिमा के क्षतिग्रस्त होने पर सबसे तीखी व उग्र प्रतिक्रिया होती है तो वह बाबा साहब के समर्थकों की होती है।दरअसल पिछले 10 वर्षों से केंद्र में श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार के कामकाज से देश के पढ़े-लिखे तबके और वंचित व अल्पसंख्यक तबकों में यह भावना पनपी है (सही या गलत) कि मोदी सरकार संविधान को बदलना चाहती है और एक धर्म का देश बनाना चाहती है, जो सरकार की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घोषित लक्ष्य रहा है। सरकार के कामकाज के तरीकों से इस आशंका को बल मिलना स्वाभाविक है। जिस प्रकार पिछले वर्षों में विशेषतरू श्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में देश की संवैधानिक और लोकतांत्रिक परंपराओं को बलाए ताक रखा गया है, प्रतिपक्ष को खत्म करने या घुटने टेक करने का प्रयास किया गया है, संविधान प्रदत्त देश के संघीय ढांचे को एक केंद्रीय या एकात्मक ढांचे में बदलने के प्रयास चल रहे हैं, सरकारी जांच संस्थाओं का प्रयोग एकपक्षीय हो रहा है, मीडिया को केवल सत्ता प्रचार का माध्यम बनने तक सीमित किया जा रहा है। राजनीति और चुनाव में धन (काला या सफेद )और कारपोरेट की भूमिका जिस तेजी से बढ़ रही है। उससे इस आशंका को वास्तविक खतरा महसूस करने के तार्किक कारण बनते हैं। और इसलिए जो लोग संविधान को बदलना चाहते हैं या संविधान को दरकिनार कर उसकी भावना व आत्मा को मारकर केवल शब्दों से खेलना चाहते हैं वे भी बेमन से या रणनीति के तहत ही सही ऊंची आवाज में बाबा साहब का नाम उच्चारण करते हैं और उनकी पाषाण प्रतिमाओं की पूजा करते हैं।दूसरी तरफ सत्ताकांक्षी प्रतिपक्ष जो अपने राजनीतिक जनाधार को बचाए रखने के लिए बाबा साहब के नाम का इस्तेमाल कर रहा हैं वह भी भले ही बाबा साहब के विचार को न मानता हो परंतु उनका इस्तेमाल कवच व तलवार के रूप में करता है। उसके लिए एक शाब्दिक जुमला चलाया गया है कि बाबा साहब का संविधान और अनुसूचित जाति के मतदाताओं में यह बात पहुंचाने का प्रयास करता है कि यह संविधान केवल बाबा साहब की निर्मिति है और उनके विचारों की प्रतिध्वनि है। सत्ता पक्ष अपनी जातीय व सांप्रदायिक सोच के कारण बाबा साहब के संविधान को बदलना चाहता है। सत्ताकांक्षी प्रतिपक्ष भी भले ही बाबा साहब को न मानता हो उसके वैचारिक या सैद्धांतिक आदर्श भले ही बाबा साहब जैसे ना हो परंतु वह कम से कम अपने वोट के लिए अपने आधार को बचाने के लिए बाबा साहब के नाम का भजन तो करता है।आज यह विचार करना चाहिए कि क्या हम आर्थिक व सामाजिक समानता प्राप्त कर सके हैं?? बाबा साहब चाहते थे कि संविधान में समाजवाद के प्रावधानों को वाध्यकारी रूप में शामिल किया जाए। पर क्या आज का सत्ता पक्ष या सत्ताकांक्षी प्रतिपक्ष इसके लिए तैयार है?? और है, तो कहे कि हम सब मिलकर देश की आर्थिक, सामाजिक विषमता को मिटाने वाले प्रावधान संविधान में शामिल करेंगे। जो बाबा साहब करना चाहते थे, परंतु तात्कालिक परिस्थितियों में नहीं कर सके थे।बाबा साहब का मत था कि आने वाली पीढ़ी अपने विचारों के अनुसार परिवर्तन चाहेगी और उसे स्थाई रूप से अतीत का बंदी नहीं बनाना चाहिए। याने हर कालखंड की युवा पीढ़ी को अपने सोच व निष्कर्षों को प्रयोग करने का अधिकार व व्यवस्था होना चाहिए।बाबा साहब तो राजकीय समाजवाद चाहते थे याने ऐसे प्रावधान जिसमें समता कानूनी बाध्यता हो। और आज का सत्ता पक्ष व सत्ताकांक्षी प्रतिपक्ष तो राजकीय पूंजीवाद स्थापित कर रहा है। सांप्रदायिक सोच व एक धर्म का राष्ट्र निर्माण करने वाली जमातें संविधान को प्रतिदिन जलाने जैसा काम कर रही है। और उनके मन में यह प्रबल आकांक्षा है कि बाबा साहब के आक्रोश में व्यक्त किए गए शब्दों की ओट में संविधान के वर्तमान मूल ढांचे को बदल दें। धर्मनिरपेक्षता के बजाय हिंदू राष्ट्र, समाजवाद और लोकतांत्रिक शब्दों को ही प्रस्तावना से हटाकर वर्तमान संघीय ढांचे को ही समाप्त कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूल सपने के अनुसार यूनेटरी संविधान याने शक्तिशाली केंद्र व कमजोर राज्य, होना चाहिए। जैसा प्राचीन काल में होता था कि एक महाराजा उनके नीचे छोटे-छोटे राजा वैसा ही परिवर्तित संविधान बना लें। यह भी खुश-पुश चर्चा है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश के संघीय संसदीय लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को बदलकर अमेरिका जैसी राष्ट्रपति प्रणाली में बदलना चाहता है। संविधान से याचिकाओं के प्रावधान को जो न्याय पालिका को विधानेतर, न्याय संगत हस्तक्षेप का अधिकार देता है को भी हटाना चाहते हैं।दूसरी तरफ सत्ताकांक्षी प्रतिपक्ष केवल बाबा साहब के नाम जप व संविधान बचाव का हल्ला पीटकर उन अनुसूचित जाति के मतदाताओं का समर्थन हासिल करना चाहते हैं जिनका मत प्रतिशत देश में लगभग 17 प्रतिशत है और जो बाबा साहब को अपना मुक्तिदाता मानते हैं और उनके नाम के बहाव में वह सकते हैं।बाबा साहब का जो महत्वपूर्ण तीसरा निष्कर्ष था उसे नजरअंदाज किया जाता है कि संविधान की सफलता, असफलता संविधान की किताब या पोथी पर नहीं बल्कि उसे लागू करने वालों की नियत, क्षमता व योग्यता पर निर्भर होगी। और उन लोगों के सामथ्र्य का निर्णय अंततरू जनमत ही करेगा।सच्चाई यह है कि दलित और पिछड़ी जातियों से जो लोग सत्ता में आए उनमें से चंद अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश ने समग्र समाज को आगे ले जाने के बजाय खुद को और अपने परिवार को उच्च वर्णीय ढांचे में ढाल लिया, इसीलिए वे अपनी समाज के वैचारिक नेता नहीं हैं। जाति से उपजा नेता पदाधिकारी हो सकता है, सत्ताधीश हो सकता है परंतु नेता नहीं हो सकता। नेता वही हो सकता है जो व्यापक समाज की तरक्की के लिए अपने आप को, अपने परिवार को कुर्बान करने के लिए तैयार हो।महात्मा गांधी और डॉक्टर अंबेडकर में यह साम्य है कि गांधी ने जो भी किया वह अपनी समझ से दुनिया और देश के लिए किया, स्वयं के लिए और अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं किया। इसी प्रकार बाबा साहब ने जो भी किया अपनी समझ से अपने समाज के उत्थान और देश के लिए किया खुद को या अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं किया।संविधान को लेकर जो शंकाएं हैं और जो आसन्न संकट है वह भयावह है। परंतु उनका सामना करने के लिए और भारतीय लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न नई चुनौतियों के मुकाबले के लिए निम्न मुद्दे लक्षित हैं...-1 - अनुसूचित, जाति जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोग अपने मानसिक पिछड़ेपन से मुक्ति के लिए सांस्कृतिक अभियान चलाएं। कभी इस पर विचार करें की कावड़ यात्रियों में, बजरंग दल में मंदिर आंदोलन में बहुमत हिस्सेदारी अनुसूचित जाति और पिछड़ी जातियों की क्यों होती है? और अगर यह चेतना पैदा नहीं होगी तो लोकतंत्र की रक्षा कैसे होगी?अगर पीडि़त और वंचित लोग ही सत्ता और श्रेष्ठता के छोटे-छोटे अपने स्वार्थ के लिए पिछलग्गू बने रहेंगे तो यह मानसिक और सांस्कृतिक क्रांति कैसे संभव होगी?2. वैश्विक पूंजीवाद के नव उभार और विश्व, व्यापीकरण के बाद अब गांधी और अंबेडकर को बांटकर देखने की नहीं बल्कि साथ लेकर चलने की जरूरत है। महात्मा गांधी और बाबा साहब के बीच डॉक्टर लोहिया एक वैचारिक सेतु जैसे हैं जो इस उद्देश्य के लिए सर्वाधिक प्रासंगिक हैं।3. अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़ी जातियों को आपसी भाईचारा और बंधुत्व बढ़ाने के लिए अंतरजातीय विवाहों की बड़े पैमाने पर शुरुआत करनी चाहिए। जाति के विनाश के लिए अंतरजातीय विवाह सबसे कारगर उपाय है। यह कितना विचित्र है कि अगर अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति के बीच कोई शादी विवाह कर ले तो झगड़ा ही नहीं होते वरन कत्ल तक हो जाते हैं, परंतु अगर वे उच्च जाति में शादी करते हैं इसे न केवल स्वीकारते हैं वरन् इस पर गौरवान्वित महसूस करते हैं।4. अनुसूचित जाति पिछड़े वर्ग के मतदाता तय करें कि हमारा नेता पूंजीवादी मानसिकता का नहीं होगा। जातिवादी और परिवारवादी नहीं होगा। हम उसे ही अपना नेता स्वीकार करेंगे जो चार बीमारियों से मुक्त हो जातिवाद, परिवारवाद, पूंजीवाद और अंधविश्वासी पुरोहितवाद। ऐसा नेतृत्व पैदा करना जनमत का काम है और वही जनमत न केवल वर्तमान संविधान और लोकतंत्र को बचा सकता है, बल्कि बाबा साहब की कल्पना के आदर्श समाजवादी संविधान के सपने को जमीन पर उतर सकता है।यही बाबा साहब के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।




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