हरिशंकर व्यास
सन् 2025 में भारत ने बहुत कुछ खोया। हालांकि दुनिया ने भी इस वर्ष बहुत गंवाया। पर भारत का नुकसान अपनी प्रकृति में अलग था। यदि अमेरिका एक अकेले डोनाल्ड ट्रंप से पहचान, गरिमा और विवेक में खोखला, भटका हुआ था तो भारत का सत्य है राष्ट्र-राज्य की प्रवृत्तियों, साख और नैतिक धाक को गंवा देना है। मई के ऑपरेशन सिंदूर से भारत में जो शोर था उससे न विश्व राजनीति प्रभावित हुई और न शक्ति का रूतबा बना। अर्से बाद पहली बार पाकिस्तान को दुनिया सुनती और मानती हुई थी।
फिर दक्षिण एशिया में बांग्लादेश और नेपाल में जेनरेशन ज़ेड के सत्ता पलट से भारत पड़़ोस में बेगाना व अकेला हुआ। इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक से दक्षिण एशिया में भारत स्वाभाविक नेतृत्व-स्थिति पाए हुए था वह खत्म होते-होते 2025 में लगभग समाप्त है। बांग्लादेश की ताजा घटनाओं से 2026 में वहां कट्टरपंथी भारत विरोधी सत्ता तय है।
ऐसे ही विश्व राजनीति में इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक में भारत-अमेरिकी एटमी करार के बाद भारत का वैश्विक प्रभाव बना। वह भी अब या तो खत्म है या बहुत हद तक ले दे कर बतौर बाजार भारत की पहचान है। संदेह नहीं कि 2025 में भारत की बाजार हैसियत, उपभोग और वैश्विक आपूर्ति-शृंखलाओं की चैन के एक स्थान से आर्थिकी साबुत रही लेकिन यह गर्व का विषय कम, और पराश्रित आर्थिकी का संकेत अधिक है। दुनिया भारत को महज उपभोक्ता-संख्या की विशालता में जांचती है न कि किसी निर्णायक भूमिका, विचार या संतुलनकारी शक्ति के रूप में। सो, आर्थिक बढ़ोतरी के आंकड़े ठोस विकास के नहीं, बल्कि खोखली, पराश्रित वास्तविकताओं की गंभीर चेतावनी लिए हुए है।
एक तरह से पूरे वर्ष भारत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के गर्म-सर्द रूख से अपने आपमें खोया हुआ था। उसी की वजह से भारत दुनिया के फोकस में भी था। साल भर प्रधानमंत्री मोदी जितना बोले, जैसा भारत में नैरेटिव रहा वही ट्रंप के कारण भारत घिरा रहा। पहलगांव में हुए आतंकी हमले और उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर से जो क्रिया–प्रतिक्रिया का सिलसिला बना, उसमें भारत में जहां शौर्य के नगाड़े थे वही अमेरिकी राष्ट्रपति के आक्रामक आत्मप्रदर्शन के सामने भारत ने धारे रखी एक ऐसी चुप्पी जिसे दुनिया ने कमजोरी नहीं, बेबसी के रूप में पढ़ा। राष्ट्रवाद की ऊंची ध्वनि के बीच यह अंतरराष्ट्रीय मौन भारत की घटती राजनीतिक स्वायत्तता का संकेत बना।
मेरा यह विश्लेषण मेरा नहीं है, बल्कि एक तरह से एआई का है। दरअसल मैंने वर्ष 2025 के अपने कॉलम एआई को पढ़वाए तो उसका लब्बोलुआब था कि 2025 भारत के लिए किसी एक घटना का वर्ष नहीं रहा। यह प्रवृत्तियों का वर्ष था—ऐसी प्रवृत्तियों का, जो धीरे-धीरे जमा होती हैं और फिर एक बिंदु पर पूरे समाज की दिशा तय करने लगती हैं। यह वह साल रहा, जिसमें सत्ता पहले से अधिक स्पष्ट दिखी, पर अर्थ पहले से अधिक धुंधला हो गया। इसमें निर्णय तेज़ हुए, पर विमर्श संकुचित; और जिसमें राष्ट्र-भावना ऊंचे स्वर में बोली, पर नागरिक-चेतना धीमे कदमों से पीछे छूटती गई। 2025 में भारत में सत्ता पहले से अधिक मुखर, स्पष्ट हुई, और पहले से अधिक संकुचित भी। अधिकार का केंद्रीकरण तेज़ हुआ, सत्ता की भाषा आत्मविश्वासी बनी और सार्वजनिक हाव-भाव निर्णायक सा दिखाई दिया लेकिन इस स्पष्टता की एक कीमत थी। वह पुराना संस्थागत संतुलन, जहां फैसले बहस, असहमति और विकल्पों से होकर गुजरते थे, धीरे-धीरे पतला, सिकुड़ता, संकुचित होता गया। संसद चली, विपक्ष के वॉकआउट के बावजूद। सार्वजनिक विमर्श भी जारी रहा, लेकिन वह राजनीति का इंजन कम और उसका बैकग्राउंड ज़्यादा बनता चला गया।
यह कोई अचानक आई गिरावट नहीं थी; यह वर्षों से बन रही उस प्रवृत्ति की परिपक्व अवस्था थी, जिसमें शासन प्रक्रिया से अधिक प्रस्तुति याकि शोशेबाजी, तमाशा बनता चला गया। यही तनाव अर्थव्यवस्था में भी दिखाई दिया। विकास का दावा ज़ोर-शोर से किया गया—हेडलाइन आंकड़ों में, निवेश घोषणाओं में, और वैश्विक मंचों पर पूरे भरोसे के साथ। लेकिन इस आशावाद के नीचे एक शांत बेचैनी थी: अस्थिर नौकरियां, नाज़ुक असंगठित श्रम, और उपभोग-आधारित विस्तार की साफ़ दिखती सीमाएं। अर्थव्यवस्था चल तो रही थी, इसमें संदेह नहीं था। लेकिन वह यह सवाल लगातार टाल रही थी कि वह किसे आगे ले जा रही है, और किसे पीछे छोड़ रही है। यह आर्थिक असफलता की कहानी नहीं थी, बल्कि आर्थिक चिंता की—गति थी, लेकिन आश्वासन नहीं।
समाज ने इन दबावों को अपने ढंग से आत्मसात किया। सामाजिक धरातल पर 2025 भावनात्मक ध्रुवीकरण का नहीं, बल्कि उसकी सामान्यीकृत अवस्था का वर्ष रहा। जो कभी असाधारण उत्तेजना थी, वह अब रोज़मर्रा की भाषा बन चुकी थी। असहमति को शत्रुता समझने की प्रवृत्ति अब हाशिए की नहीं रही। यह केवल राजनीतिक रणनीति नहीं थी; यह एक सामाजिक मनोदशा बनती गई—जहां प्रश्न पूछना जोखिम और चुप रहना सुरक्षा माना जाने लगा। नागरिक धीरे-धीरे भागीदार से दर्शक की भूमिका में सरकते गए। संस्कृति और भाषा ने भी इसी थकान को प्रतिबिंबित किया। अनुवादों, रीमिक्स और आयातित विचारों की बाढ़ के बीच मौलिक सृजन का साहस कम होता गया।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में कायदे का कुछ नहीं हुआ। यह भाषा का संकट नहीं था, यह सांस्कृतिक श्रम से पलायन था। समाज उपभोग के लिए उत्सुक दिखा, सृजन के लिए अनिच्छुक। यहीं राजनीति और संस्कृति मिलती हैं, जब सत्ता आसान कथाएं मांगती है, और समाज उन्हें बिना प्रतिरोध स्वीकार कर लेता है।
इस भीतर की थकान की एक बाहरी प्रतिध्वनि भी थी। वैश्विक स्तर पर 2025 अनिश्चितता को स्वीकार करने का वर्ष रहा। पुराने गठबंधन ढीले पड़े, नए हित उभरे। भारत इस बदलती दुनिया में अधिक उपस्थित था, लेकिन उसकी भूमिका सावधानी और प्रतीक्षा से परिभाषित थी। यह न कमजोरी थी, न ताकत, यह उस दौर का हस्ताक्षर था जहां फैसलों को टालना खुद एक रणनीति बन जाता है। इसलिए, साल के अंत से देखें तो 2025 संकट वर्ष जैसा नहीं लगेगा, बल्कि यह कुछ और, कुछ अधिक ठहरा और अधिक फिसलन वाला है। कोई एक बड़ी टूट नहीं, बल्कि स्थायी शोर का मौसम। हर दिन निर्णायक बनकर आया, कोई अभियान, कोई बयान, कोई वीडियो, कोई दावा, और इस अंतहीन तात्कालिकता के नाचगाने में विवेक और गरिमा लगभग चुपचाप फ्रेम से बाहर खिसक गए।
देश और ऊंची आवाज़ में बोलने लगा, लेकिन आत्मविश्वास सिमटकर बेचैनी में बदलता गया। सार्वजनिक जीवन सक्रिय दिखता रहा, ऊर्जावान भी, पर अर्थ के स्तर पर वह भीतर से खोखला होता चला गया। इस अर्थ में 2025 ने भारत के सामने एक दर्पण रखा। उसमें उपलब्धियां भी झलकीं, और आत्ममुग्धता भी; आत्मविश्वास भी, और अनकहे जोखिम भी। भारत ने इस वर्ष कोई युद्ध नहीं हारा। कोई चुनाव नहीं हारा। उसने आर्थिक दौड़ भी नहीं हारी। जो उसने खोया, वह कहीं अधिक सूक्ष्म था, और इसलिए अधिक ख़तरनाक: विवेक पर भरोसा। वही शांत, अलक्षित संसाधन, जिसके बिना सत्ता टिक नहीं सकती। यही 2025 का असली हिसाब है, और उसकी सबसे कठोर बही। 2025 जवाबों के साथ बंद नहीं होता, बल्कि एक चेतावनी के साथ हो रहा है, कि लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं टिकता, बल्कि विवेक के उस रोज़मर्रा, अलंकार-रहित श्रम से कि जितनी अधिक सत्ता सघन होती है, उतनी ही ज़्यादा उसे प्रश्नों की ज़रूरत होती है। और यह कि सभ्यताएं नाटकीय क्षणों में नहीं गिरतीं, वे तब क्षरित होती हैं जब सोचना असुविधाजनक हो जाता है, जब शोर चिंतन की जगह ले लेता है, और जब असहमति को निष्ठा-विरोध समझ लिया जाता है।
जैसे-जैसे यह वर्ष पीछे हटता है, सवाल जान बूझकर खुले छोड़े गए हैं। क्या शोर के बीच से अर्थ को वापस पाया जा सकता है? क्या नागरिक दर्शक-भाव से लौटकर भागीदारी की ओर बढ़ सकते हैं? और क्या सत्ता इतनी आत्मविश्वासी हो सकती है कि असहमति को ख़तरे की तरह पढ़े बिना सहन कर सके? 2026 इन सवालों के उत्तर घोषित नहीं करेगा। वह यह परखेगा कि क्या ये सवाल अब भी पूछे जा रहे हैं।
वाह! कैसा यह 2025 का कृत्रिम बुद्धिमता का हिसाब लगाना है। फिर हिंदी में इस तरह लिखना! एआई, कृत्रिम बुद्धि ऐसे सोच-विचार कर सकती है। मगर क्या नगाड़े-शोर में डूबी हिंदी भाषी प्रजा क्या यह सब समझने में समर्थ है?
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